० चेतन औदिच्य
देश के अनुपम शिल्पकार पद्मश्री अर्जुन प्रजापति अब हमारे बीच नहीं हैं। जिस कोरोना की आपदा के विरुद्ध उन्होंने, हाल ही एक सघन आशावादी शिल्प रचा, उसी कोरोना ने उन्हें हमसे छीन लिया । उनकी विदाई रूपवादी शिल्पकारों की दुनिया के लिए एक बड़ी क्षति है। राजस्थान के आधुनिक मूर्ति-शिल्प सृजन में अर्जुन प्रजापति का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। माध्यमों की विविधता के साथ विपुल मात्रा में मूर्तियां बना कर उन्होंने देश दुनिया में ख्याति पाई । संगमरमर, मृदा, कांसा, फाइबर आदि माध्यमों के साथ काम करने में वे सिद्धहस्त कलाकार थे । अपनी टांची की थाप और अंगुलियों की दाब से वे एक ऐसी कृति उपस्थित कर देते थे, कि देखने वाला उसमें डूब जाए। राजस्थान की पारंपरिक शिल्प कला को उन्होंने, जिस तरह का लावण्य प्रदान किया, वह सर्वथा अपूर्व रहा है । जयपुर मूर्ति निर्माण कला का पुराना केंद्र रहा है। अर्जुन प्रजापति का बचपन भी जयपुर की उन्हीं गलियों में बीता, जहां पत्थर छैनी की गूंज और मूर्तियों का रूप अपनी आभा बिखेरते हैं । मूर्ति-शिल्प के इसी परिवेश ने उन पर असर डाला, जिसकी बदौलत वह इस रास्ते पर चल पड़े । और इसी बूते, वे देश के चौथे सबसे बड़े नागरिक सम्मान पद्मश्री से सम्मानित किए गए ।
अर्जुन प्रजापति की मूर्ति कला, दो अर्धवृत्तों में समझी जा सकती है। एक है — भाव-लावण्य की निजी सृष्टि, जहां मनुष्य तथा उनका भाव बोध है । दूसरा है — पारंपरिक रूप निर्माण का कौशल, जिसके तहत यथार्थवादी प्रतिरूप सृजित किए गए । अर्जुन प्रजापति की ख्याति ‘ क्लोन के महारथी’ तथा ‘ मूर्तिकला के जादूगर ‘ के रूप में रही है। इस प्रसिद्धि का कारण, उनकी बेहद दमदार शैल्पिक-कुशलता है। वे थोड़ी ही देर में, किसी भी व्यक्ति की छवि गढ़ने में माहिर थे । उनकी मूर्तियों में आनुपातिक संतुलन तथा आंगिक वक्रता गजब की थी । बहुत चर्चित घटना है कि, जब बिल क्लिंटन अमेरिकन राष्ट्रपति के रूप में भारत आए थे, तब, देखते ही देखते, बहुत मामूली समय में उन्होंने बिल क्लिंटन की मूर्ति गढ़ दी, जिसे देखकर क्लिंटन अभिभूत हो गए थे। और कई देर तक उन्होंने अर्जुन प्रजापति के हाथों को अपने हाथों में थामे रखा था । उनके द्वारा इस तरह के मूर्ति शिल्प बनाने की एक लंबी सूची है , जिसमें महात्मा गांधी, प्रिंस चार्ल्स, डॉक्टर अब्दुल कलाम, के आर नारायणन, प्रतिभा पाटिल, लता मंगेशकर, अमिताभ बच्चन, मोरारी बापू, राहुल द्रविड़ ,जैसे अनेक नाम शामिल है । इन सारे व्यक्तियों के मूर्ति शिल्पों को देखकर कहा जा सकता है, कि शिल्प की यह अभिव्यक्ति , अतिरिक्त मेधा के बिना संभव नहीं है । वे एक ऐसी ही मेधा थे। शिल्पकार ने इनके अलावा अनेक जन सामान्य तथा स्मारक स्थलों के लिए मूर्तियां बनाई , जो देश के अनेक स्थानों पर स्थापित की गई हैं । अनुष्ठानिक देवी- देवता के अलावा, प्रसिद्ध ऐतिहासिक व्यक्तित्वों के आवक्ष शिल्प भी उन्होंने रचे थे ।
समकालीन कला के परिप्रेक्ष्य में जब हम अर्जुन प्रजापति के मूर्ति-शिल्पों को देखते हैं, तो इनमें वे कृतियां आती है जिनमें परंपरा और आधुनिकता का सैद्धांतिक पक्ष एक साथ साकार हुआ है। अर्जुन ने परंपरा से यथार्थवादी रूप-भंगिमा और प्रतिकृति निर्माण को ग्रहण किया तथा जन-सामान्य की अनुपातिक छवियां रची । जिनमें स्त्री-पुरुष एवं पशु-जीवों के रूप प्रमुख हैं। इनके सामाजिक सांस्कृतिक परिवेश को भी यथासंभव मूर्ति में अंकित किया है। जब हम उनकी मूर्तियों में आधुनिकता के पक्ष को जानने की कोशिश करते हैं , तो कहना पड़ेगा कि संवेदन और लावण्य की जो छटा उन्होंने प्रस्तुत की, वह उत्कृष्ट श्रेणी की है । उनका शिल्प-सौंदर्य भावप्रवण रस वर्षा करने में सक्षम है । मूर्तियों में आया लावण्य और संवेदन अर्जुन प्रजापति की एक निजी पहचान को स्थापित करता है । एक कलाकार की आंखों से अनुभूत सौंदर्य वहां उपस्थित होता है। यह निजता ही उन्हें समकाल के आधुनिक मूर्तिकारों में सम्माननीय स्थान प्रदान करती है । यहां यह उल्लेख करना आवश्यक है, कि षड़ंग कारिका के भाव-लावण्य तथा सादृश्य तत्व को जहां आधुनिकता के आग्रह में हाशिए पर डाल देने की जुगत की जा रही है, वहीं,अर्जुन प्रजापति पूरी ठसक के साथ भारतीयता के मूलभूत सैद्धांतिक पक्ष को कुशलता से साधते हैं। वे अनेक कृतियों को भाव-लावण्य की ऐसी श्रेष्ठता प्रदान करते हैं, जहां विचार तत्व की आवश्यकता नहीं रहती, बल्कि वहां विशुद्ध सौंदर्य दीख पड़ता है।
किशनगढ़ शैली की प्रसिद्ध पेंटिंग ‘बणी-ठणी’ की तर्ज पर उनकी बनाई पाषाण मूर्ति को बड़े स्तर पर ‘बणी-ठणी’ नाम की प्रसिद्धि मिली। जबकि कथ्य और शिल्प दोनों ही तल पर पारंपरिक पेंटिंग बणी-ठणी से यह बिल्कुल अलग है । किंतु भाव-लावण्य की दृष्टि से अर्जुन प्रजापति की इस मूर्ति को देखते हैं , तो वह पारंपरिक बणी-ठणी के समकक्ष ठहरती है। अर्जुन प्रजापति के संगमरमर से गढ़ी कृतियों में पारदर्शी संयोजन दर्शक को चकित करने वाला है । अपने देश काल का रूप-विन्यास और भंगिमा की वक्रता स्तब्ध करने वाली है । वे एक ऐसे कलाकार थे जो समय और समाज के सापेक्ष अपनी कला-प्रतिक्रिया देते रहे थे। इस दृष्टि से अभी कोरोना-काल में भी उन्होंने हनुमान जी की एक मूर्ति बनाई थी । इस मूर्ति के बहाने से ज्ञात होता है कि कलाकार विश्व को, त्रासदी से मुक्ति दिलाने की कितनी सघन इच्छा रखता है ! कला के प्रति अर्जुन प्रजापति पूरी तरह समर्पित रहे, इसी समर्पण भाव के साथ उन्होंने ‘ माटी मानस ‘ नाम से मूर्तिशिल्प संग्रहालय की स्थापना की थी । अनेक कलाकारों से निरंतर जुड़े रहे । अपने सरल स्वभाव के कारण वे किसी भी कलात्मक आयोजन में सहज ही उपस्थित हो जाया करते थे । जितना उत्कृष्ट उनका शिल्प वैभव था, उतनी ही सादगी उनके व्यवहार में झलकती थी। वे अनेक कलाकारों के आत्मीय थे।
एक ऐसे समय में जब दुनिया को कलात्मक आकाश की अधिक जरूरत है , उनका विदा हो जाना, कला जगत के लिए एक बड़ी रिक्ति है ।