पद्मश्री जोधैया बाई का जाना

चित्रकार जोधैया बाई पिछले साल अक्टूबर में एक चित्रकला शिविर में ग्वालियर आयी थीं। कला – मर्मज्ञ मुश्ताक खान के प्रयासों से। यह शिविर आईटीएम विश्वविद्यालय ग्वालियर में हुआ था। सुबह सुबह हमने देखा कि वे रंगों से भरा गत्ते का डिब्बा सिर पर लिए हुए अतिथि निवास से रेनाल्ड्स ब्लाक की ओर जा रही थीं। जीवन में ऐसी सहजता देख मैं चकित, हतप्रभ और प्रेरित हुआ था। जोधैया बाई ‘पद्मश्री’ थीं। भारत सरकार ने आदिवासी कला के क्षेत्र में योगदान के लिए देश के चौथे सबसे बड़े अलंकरण से उन्हें विभूषित किया था। बैगा जनजाति की कला को प्रदर्शित करने के सिलसिले में दुनिया भर में घूमीं। पर अपनी सहजता नहीं खोई।
वे जब सिर पर रंगों से भरा गत्ते का डिब्बा सिर पर लिए जा रही थीं मैं उनके बगल से ही चल रहा था। अमरूद का बगीचा पार करते हुए। मैंने आग्रह किया कि यह डिब्बा मैं लिये लेता हूं, पर उन्होंने हंसते हुए कहा हम तो रोज ही सामान सिर पर लेकर चलते हैं। आधुनिक और अभिजात बनने के फेर में हम सबने अपने जीवन की सहजता गंवाई है, मैं चलते चलते यही सोचता रहा। जोधैया बाई मध्यप्रदेश के उमरिया से थीं। जनगढ़ सिंह श्याम की अचानक जापान में रहस्यमय परिस्थिति में मृत्यु के बाद बैगा आदिवासी कलम की वे महत्वपूर्ण पहचान रहीं। जीवन की शुरुआत मजदूरी से की थी।
जोधैया बाई उसी दिन हम सबसे विदा हुईं जिस दिन तबला के विश्वविख्यात उस्ताद ज़ाकिर हुसेन गये। महुए के फूल जैसे भोर में निःशब्द वृंत से अलग होते हैं, आदिवासी जीवन में वह शांति हिमालय सी ऊंचाई छूने पर भी आखिरी सांस तक बनी रहती है। जोधैया बाई हम सब के बीच से ऐसे ही गयीं।
-जयन्त सिंह तोमर 

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