विगत 15 एवं 16 अप्रैल को सिताब दियारा, छपरा में भोजपुरी समागम 2023 का आयोजन किया गया। जिसके तहत दिनांक 15 अप्रैल को भोजपुरी लोक चित्रकला पर बातचीत रखी गयी। आमंत्रित वक्ता थे बिहार म्यूजियम के अपर निदेशक अशोक कुमार सिन्हा, वरिष्ठ आर्ट फोटोग्राफर शैलेन्द्र कुमार, लोकनायक जयप्रकाश राष्ट्रीय कला एवं संस्कृति प्रतिष्ठान, नयी दिल्ली के महासचिव अरविन्द ओझा, सचिव प्रबंध, साधना राणा एवं कला लेखक सुमन कुमार सिंह। बातचीत के सत्र की अध्यक्षता प्रो. पृथ्वीराज सिंह ने की। सत्र सञ्चालन करते हुए श्री सिंह ने भोजपुरी लोकचित्रकला के वर्तमान और भविष्य की रुपरेखा पर अपने विचार रखे। बिहार की लोककलाओं के विकास में उपेंद्र महारथी संस्थान एवं उसके पूर्व निदेशक अशोक कुमार सिन्हा के योगदान की चर्चा करते हुए सुमन कुमार सिंह ने भोजपुरी लोक चित्रकला की वर्तमान दशा-दिशा का चित्रण प्रस्तुत किया। साथ ही इस बात का भी उल्लेख किया कि दुनिया भर में लोक परम्परा और लोकाचार को युगों-युगों से संजोये रखने की ज़िम्मेदारी सदैव महिलाओं ने ही निभाई है। अतः जिस समाज में भी महिलाओं के इस प्रयास को प्रोत्साहित किया गया, उसकी लोक परम्पराएं आज भी अक्षुण्ण हैं।

अशोक कुमार सिन्हा ने भोजपुरी में दिए गए अपने संबोधन में मिथिला चित्रकला, मञ्जूषा चित्रकला एवं भोजपुरी चित्रकला के इतिहास पर विस्तार से चर्चा की। मिथिला चित्रकला के इतिहास की बात करें तो हमें इसके साहित्यिक प्रमाण तो मिलते हैं, मसलन रामायण में राजा जनक की रंगशाला में चित्रांकन के विवरण हैं। किन्तु इससे जुड़ा कोई पुरातात्विक प्रमाण आज भी हमारे पास नहीं है। वहीँ भोजपुर अंचल के इतिहास में हमें कैमूर और मिर्ज़ापुर की पहाड़ियों के गुफाओं में चित्रांकन के साक्ष्य आज भी मौजूद हैं। आप अगर वर्तमान भोजपुरी चित्रशैली में व्यवहृत प्रतीकों का मिलान इस गुफा चित्रों से करें तो हम पाते हैं कि उनमें आज भी उनकी अद्भुत साम्यता हमें मिलती हैं। जो इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि यह परंपरा हज़ारों वर्षों से समाज में प्रचलित रही है। किन्तु यह हमारा दुर्भाग्य रहा कि समाज और सरकार का जो संरक्षण मिथिला चित्रकला को विगत पांच-छह दशकों में मिला, वह संरक्षण भोजपुरी चित्रकला को नहीं मिला पाया। यही कारण है कि जहाँ मिथिला लोककला में सात महिलाओं को पद्म पुरस्कार हासिल हो चूका है, वहां भोजपुरी चित्रकला बृहत्तर कला समाज में अपनी उपस्थिति दर्ज़ कराने की जद्दोजहद से जूझ रही है। किन्तु इन सबके बावजूद आशा की किरण तब दिखती है, जब हम देखते हैं कि हमारे युवा कलाकारों द्वारा पिछले दिनों आरा स्टेशन को भोजपुरी चित्रशैली के चित्रों से सजाने के लिए चालीस दिनों तक संघर्ष किया गया।

उन्होंने उपेंद्र महारथी संस्थान के निदेशक के तौर पर अपने कार्यकाल में भोजपुरी चित्रकला को राज्य सरकार के विभिन्न आयोजनों में शामिल करवाने के अपने प्रयासों का उल्लेख किया। इस क्रम में आपने बताया कि जब 2017 में माननीय राष्ट्रपति का आगमन राजगीर में होनेवाला था। तब राज्य सरकार की तरफ से मिथिला और मञ्जूषा पेंटिंग उपहार में देने का निर्णय लिया गया था, तब मैंने उनसे अनुरोध किया कि इन उपहारों में भोजपुरी पेंटिंग को भी शामिल किया जाए। जिसका अन्य साथियों ने यह कहते हुए विरोध भी किया कि भोजपुरी चित्रशैली के बारे में तो हमने कभी सुना ही नहीं है, किन्तु अंततः मेरी बात मान ली गयी और भोजपुरी शैली के चित्रों को भी उपहार में जगह मिली। साथ ही आपने मैथिली समाज और भोजपुरी समाज में महिलाओं की स्थिति पर बात करते हुए, इस बात का उल्लेख किया कि जब प्रगति मैदान, दिल्ली में आयोजित होनेवाले ट्रेड फेयर में महिला कलाकारों को ले जाने की बात आयी। तो मिथिला की लगभग बीस से अधिक महिला कलाकार दिल्ली जाकर चित्र बनाने के लिए आसानी से राज़ी हो गयी।

जिसका सुखद परिणाम यह आया कि पहली बार ट्रेड फेयर में बिहार को गोल्ड मैडल मिला। अगर मिथिला चित्रकारों के बजाये मैंने भोजपुर की महिला कलाकारों को ले जाने का निर्णय लिया होता तो बहुत कम सम्भावना थी कि यहाँ की महिलाएं आसानी से दिल्ली जाने को तैयार हो पातीं। क्योंकि भोजपुरिया समाज की महिलाएं घर से बाहर निकलने के मामले में अब भी बेहद संकोची हैं। आज मिथिला की सिक्की कला की चर्चा देश भर में होती है। किन्तु दुर्भाग्य से बिक्रमगंज के आसपास प्रचलित सिक्की कला एवं इसके कलाकारों की जानकारी बहुत कम लोगों को है। अतः आवश्यकता इस बात की है कि हम अपने नारी शक्ति की प्रतिभा को सम्मान देते हुए उन्हें उचित अवसर प्रदान करें। विदित हो कि श्री सिन्हा इन दिनों बिहार म्यूजियम, पटना में बतौर अपर निदेशक कार्यरत हैं। अतः अब उनका प्रयास है कि बिहार म्यूजियम के संग्रह में भोजपुरी लोकशैली की कलाकृतियों को भी शामिल कराया जाये।
अरविन्द ओझा ने भोजपुरी में दिए गए अपने संबोधन में बेहतर समाज के निर्माण में कला की भूमिका पर विस्तार से चर्चा करते हुए कला एवं संस्कृति के विकास के लिए लोकनायक जयप्रकाश राष्ट्रीय कला एवं संस्कृति प्रतिष्ठान, नयी दिल्ली के योगदान का उल्लेख किया। साथ ही भोजपुरी चित्रकला को राष्ट्रीय -अंतर्राष्ट्रीय पटल पर स्थापित करने के लिए हरसंभव प्रयास का अपना संकल्प दुहराया। एवं जल्द ही सिताब दियारा में अपने प्रतिष्ठान की तरफ से कला एवं संस्कृति से जुड़े कार्यक्रम के आयोजन की इच्छा भी जाहिर की। अरविन्द ओझा ने आगे कहा कि मुझे कला में जीवन का विस्तार दिखता है। हमारे भोजपुरी अंचल में साहित्य को लेकर जो उत्साह बचपन से देखने को मिलता रहा है, दुर्भाग्य से कला के प्रति वैसा ही उत्साह मुझे देखने को अभी तक नहीं मिला है। आज हम उस लोकनायक की भूमि पर हैं जिन्हें अपने नैतिक मूल्यों के लिए आज भी हम याद करते हैं, किन्तु वहीँ दुःख की बात है कि आज हमारे समाज में नैतिक मूल्यों के प्रति वह प्रतिबद्धता देखने को नहीं मिलती; जिसकी अपेक्षा और आवश्यकता पहले से कहीं ज्यादा है। हमारा संकल्प है कि लोकनायक जयप्रकाश राष्ट्रीय कल एवं संस्कृति प्रतिष्ठान के माध्यम से हम युवाओं में कला बोध एवं नैतिक बोध की अलख जगायेंगे। क्योंकि इसके बिना हम लोकनायक की सप्तक्रांति की अवधारणा के तहत स्वयं के विकास के मुख्य सूत्र से वंचित रह जायेंगे। हमारे यहाँ विशुद्ध लाभ की अवधारणा के बजाये शुभ-लाभ की अवधारणा पायी जाती है। जिसका आशय है कि लाभ का शुभ होना ज्यादा आवश्यक है, वनिस्पत सिर्फ लाभ ही लाभ के।

साधना राणा ने भोजपुरी अंचल की अपनी इस पहली यात्रा के अनुभवों को साझा करते हुए,आयोजन में आमंत्रित किये जाने के लिए आयोजकों के प्रति आभार प्रकट किया। साथ ही दुबारा यहाँ आने की इच्छा भी सार्वजनिक की। इस बातचीत के क्रम में आयोजकों द्वारा सभी अतिथियों का स्वागत फूलों के गुलदस्ते और भोजपुरिया पारम्परिक गमछे से किया गया। कार्यक्रम के अंत में धन्यवाद ज्ञापन शैलेन्द्र कुमार सिंह ने किया।
-सुमन कुमार सिंह
आवरण चित्र : कार्यक्रम की शुरुआत करते प्रो. पृथ्वीराज सिंह