वर्ष 2019 में बिहार की कला संस्था ‘रंगविकल्प, और बिहार म्यूजियम द्वारा एक वृहत कला आयोजन किया गया था । जिसके अंतर्गत मूर्तिशिल्प की एक समूह प्रदर्शनी और कला विषयक बातचीत रखी गयी थी। पहले दिन सुमन कुमार सिंह से इस बातचीत का सञ्चालन किया था संस्कृतिकर्मी और कला समीक्षक अनीश अंकुर ने। उसी बातचीत के कुछ सम्पादित अंश अनीश अंकुर की कलम से …
रंगविकल्प व बिहार म्यूजियम द्वारा आयोजित मूर्तिकला पर चले रहे विमर्श का विषय था ” भारतीय मूर्तिकला में बिहार का योगदान” चर्चित कला समीक्षक सुमन कुमार सिंह ने इस विषय पर अपनी बात रखते हुए कहा-
” वर्तमान बिहार के कला इतिहास की जब बात आती है तो इतना तो निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि इसके बगैर भारतीय उप-महाद्वीप के कला इतिहास की चर्चा संभव ही नहीं है। महाजनपद काल यानी लगभग 600 ईसा पूर्व से लेकर 12वीं सदी के पाल राजवंश काल तक कमोबेश बिहार में कला के विकास की जो धारा बनी रही उसने भारतीय कला जगत को अद्भुत समृद्धि प्रदान किया।”
इस अवसर पर रंगविकल्प के सचिव सन्यासी रेड ने अतिथियों का पुष्पगच्छ देकर स्वागत किया।
सुमन कुमार सिंह ने आगे कहा ” यह अलग बात है कि उसके बाद हमारा यह भू-भाग कई कारणों से अपनी इस विशिष्टता से वंचित होता चला गया। जो किसी ना किसी रूप में आज भी जारी है, कुछ अपवाद की बात करें तो इस बीच में ब्रिटिश काल में कंपनी शैली का एक रूप जिसे हम पटना शैली या पटना कलम के रूप में जानते हैं, की चर्चा की जा सकती है। किंतु मेरी समझ में इस शैली को पूरी तरह से बिहार की कला का देन नहीं समझा जाना चाहिए, क्योंकि जिस काल में बिहार के पटना और आरा जैसे शहरों में यह शैली व्यवहार में लायी जा रही थी उसी दौर में ब्रिटिश राज के संरक्षण में ही देश के अन्य हिस्सों मेें भी शैली के चित्रों का निर्माण हो रहा था। यह लगभग प्रमाणित सा ही है कि जब किसी देश विशेष में प्रतापी राजाओं का सुशासित, शांतिपूर्ण और शक्तिशाली शासन रहा है, वहां की कला संस्कृति व साहित्य के क्षेत्र में अद्भुत प्रगति की प्रवृत्ति बनी रही है। मिश्र मेें बारहवें व अट्ठारहवें राजवंश के समय का काल वहां की कला का स्वर्ण युग माना जाता है तो ईरान के संदर्भ में यही बात अकमेनियम राजवंश के दौर में देखने को मिलती है।”
भारत मे मौर्य काल की कला की विशेषताओं की बात करते हुए सुमन कुमार सिंह ने कहा ” कुछ यही बात भारतीय संदर्भ में मौर्यकाल को लेकर कही जा सकती है। भारतीय कला के इतिहास में मौर्यकालीन कला सबसे प्राचीन और कई दृष्टियों से अपूर्व है। विशेषकर बात जब वास्तुकला और शिल्प में पत्थरोंं के प्रयोग की आती है तो यह स्पष्ट हो जाता है कि इससे पूर्व में इसका कोई अन्य उदाहरण अभी तक ज्ञात नहीं हो पाया है। विसेंट स्मिथ का मानना है कि वास्तुकला और मूर्तिकला में अचानक पत्थर का व्यवहार बहुत अंशों में विदेशी, संभवत: पर्सिया का परिणाम है। यहां यह भी जानना महत्वपूर्ण है कि सिंधु-घाटी की सभ्यता की कलात्मक कृतियों के बाद जो कलाकृतियां हमें मिलती है वे लगभग मौर्यकालीन ही है।”
इस बातचीत में बड़ी संख्या में आर्ट कॉलेज के छात्र , रंगकर्मी, सामाजिक कार्यकर्ता मौजूद थे। इस मौके पर जयप्रकाश, विनीत , दिनेश कुमार, हर्ष माधव, विपिन, मृदुला, मनीष कुमार सिन्हा, पिंटू, रूपेश अनीशा कुमारी, कामिनी आदि प्रमुख थे।