प्रतिमा नहीं यहाँ होती है चित्रित दुर्गा की पूजा 

बात अगर दुर्गा पूजा की करें तो इसे पश्चिम बंगाल का सर्वाधिक महत्वपूर्ण त्यौहार माना जाता है। इतना ही नहीं देखा तो यह भी जाता है कि देश के किसी भी हिस्से में रहनेवाला बंगाली समाज अपने स्तर से दुर्गा पूजा का आयोजन अवश्य करता है। खासकर इस अवसर पर भव्य और सुसज्जित पंडाल में माँ दुर्गा की प्रतिमा भी स्थापित की जाती है। और तो और विदेशों में जा बसे बंगाली समाज के लोग भी इसे उसी उत्साह से मनाते हैं। अधिकतर मामलों में यह भी देखा जाता है कि इसके लिए भारत से बनी बनायीं प्रतिमा भी विदेशों में ले जाई जाती है। देखा जाए तो सिर्फ बंगाल ही नहीं ओडिशा, बिहार, झारखण्ड और पूर्वी उत्तरप्रदेश में भी दुर्गा प्रतिमा की स्थापना की जाती है। सदियों से चली आ रही इस परंपरा के तहत पुआल एवं मिटटी से प्रतिमाएं बनायीं जाती रहीं हैं। किन्तु विगत दशकों में इसमें एक बड़ा बदलाव यह देखा जाने लगा है कि अब प्रतिमा निर्माण के लिए बड़ी मात्रा में प्लास्टर ऑफ़ पेरिस का इस्तेमाल होने लगा है। दूसरी तरफ पूर्व की भांति प्राकृतिक या खनिज रंगों की बजाय अब रासायनिक रंगों का प्रयोग बढ़ता चला जा रहा है।

अब इस प्रतिमा पूजा के पर्यावरणीय परिणामों की बात करें तो, वर्ष 1993-95 में केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) द्वारा हुगली नदी पर दशहरा महोत्सव के प्रभाव के अध्ययन रिपोर्ट से पता चला कि हर साल देवी दुर्गा की कम से कम 15,000 मूर्तियों को अकेले हुगली नदी में विसर्जित किया जाता है। इस अध्ययन में पाया गया कि इससे पानी में 16.8 टन वार्निश एवं गर्जन तेल और 32 टन रंग निकलता है। इन रंगों में भारी धातुओं जैसे मैंगनीज, सीसा, पारा और क्रोमियम की अच्छी मात्रा होती है। अध्ययन में यह भी पाया गया कि दशहरा के दौरान नदी में तेल की मात्रा में 0.99 मिलीग्राम प्रति लीटर (मिलीग्राम/लीटर) की वृद्धि हुई और भारी धातुओं की सांद्रता में 0.104 मिलीग्राम/ली की वृद्धि हुई। यह तो हुई इस प्रतिमा विसर्जन से होने वाले सिर्फ जलप्रदुषण की एक छोटी सी बानगी। अन्य पर्यावरणीय प्रभावों के अध्ययन से जो तस्वीर सामने आएगी वह सुखद तो कत्तई नहीं होगी। ऐसे में समय-समय पर पर्यावरणविदों और सामाजिक कार्यकर्ताओं द्वारा इसे रोकने के लिए न्यायालयों का दरवाज़ा भी खटखटाया जाता रहा है। कुछ राज्यों द्वारा इसे रोकने की दिशा में की जानेवाली पहल भी सामने आती रहती हैं। तो वहीँ दूसरी तरफ कुछ सामाजिक संगठन भी इसे लेकर अभियान चलाते नज़र आते ही हैं।

फिर भी सच्चाई यही है कि दुर्गा पूजा का यह रूप यानी मूर्ति पूजा आज भी ज्यादा प्रचलित है। किन्तु क्या आप जानते हैं कि बंगाल के विभिन्न हिस्सों में प्राचीन समय में देवी की पूजा चित्रों के माध्यम से भी की जाती थी। दुर्भाग्य से यह परंपरा जिसे लोकप्रिय रूप से ‘पोटेर दुर्गा ‘ यानी पटचित्र वाली दुर्गा के रूप में जाना जाता है; एक अनुष्ठान और कला दोनों रूपों में लगभग लुप्त होती जा रही है। अलबत्ता पश्चिम बंगाल के कुछ स्थानों पर चंद एक परिवारों में अभी भी यह प्रथा विद्यमान है। इन्हीं स्थानों में एक है गाँव हातसेरान्दी, पश्चिम बंगाल के वर्तमान बीरभूम जिले के इस गाँव में दुर्गा प्रतिमा की जगह माँ दुर्गा के पटचित्र की पूजा होती है। विश्व प्रसिद्ध शिक्षा संस्थान के तौर पर चर्चित बोलपुर स्थित शांतिनिकेतन से इस गाँव की दूरी लगभग तीस-पैंतीस किलोमीटर है। युवा मूर्तिकार वीरचन्द्र शांतिनिकेतन के पूर्व छात्र हैं, वीरचंद्र बताते हैं कि यहाँ के अधिकतर परिवारों में इसी पटचित्र वाली दुर्गा की पूजा आराधना की जाती है। यह परंपरा कब और कैसे शुरू हुई इसका कोई स्पष्ट प्रमाण तो नहीं मिलता है।

किन्तु एक प्रचलित कहानी या धारणा यह भी है कि किसी समय में गाँव की किसी महिला को स्वप्न में माता का आदेश मिला कि उनकी गांव में पूजा की जाये। दुर्गोत्सव का समय बहुत नज़दीक था, ऐसे में समस्या आयी कि इतने कम समय में प्रतिमा कैसे बने। कोई भी मूर्तिकार इतने अल्प समय में प्रतिमा निर्माण को राज़ी नहीं था। तो अब एकमात्र विकल्प यही था कि कपडे पर चित्रण कराया जाए। माना जाता है कि लगभग दो शताब्दियों से अधिक समय से यहाँ इस तरह के पटचित्र पूजा की परंपरा चली आ रही है। इसके तहत महिषासुर मर्दिनी माँ दुर्गा और गणेश के साथ लक्ष्मी, सरस्वती एवं कार्तिकेय के आदमकद चित्र कैनवस पर चित्रित किये जाते हैं। इन चित्रों को पूरे वर्ष के लिए रखा जाता है और विसर्जन के लिए तभी ले जाया जाता है जब अगले वर्ष नया पटचित्र तैयार हो जाता है।

हालाँकि ऐसा नहीं है कि सिर्फ हातसेरान्दी में ही इस तरह की चित्रित दुर्गा की पूजा की जाती है। हाथ से चित्रित दुर्गा पश्चिम बंगाल के क्षेत्र विशेष की एक लोकप्रिय विशेषता है, जिसमें बीरभूम, बर्धमान, बांकुरा, मुर्शिदाबाद और मेदिनीपुर के कुछ हिस्से शामिल हैं। ऐसा भी नहीं है कि सिर्फ ग्रामीण अंचलों में ही चित्रित दुर्गा पूजी जाती हैं, इस सूची में बर्धमान का राज परिवार भी शामिल है। हम जानते हैं कि पट या पट्टा का मूल अर्थ, कपड़े का एक टुकड़ा है। ग्रामीण बंगाल के दैनिक जीवन में हम पटुआ समुदाय द्वारा पटचित्रण की परंपरा सदियों से चली आ रही है। इसके तहत वे पौराणिक धार्मिक एवं सामाजिक कथाओँ तथा इतिहास की कहानियों को चित्रित करते हैं।

कुछ विशेषज्ञ मानते हैं कि बंगाल में पाया जाने वाला सबसे पुराना पट्टा या पटचित्र, देवी-देवताओं का प्रतिनिधित्व करता था, जिन्हें मिट्टी या पत्थर की मूर्तियों के किफायती विकल्प के रूप में पूजा जाता था। इस क्षेत्र विशेष के आर्थिक तौर पर पिछड़े होने को इसका एक कारण मानने वाले भी हैं। किन्तु ऐसे में यह सवाल भी बनता है कि फिर कई जमींदार परिवार भी पटचित्र वाली दुर्गा की पूजा क्यों करते हैं ? यह भी जानकारी मिलती है कि बर्धमान में हाथ से चित्रित दुर्गा को कभी भी विसर्जित नहीं किया जाता है। यहाँ पिछले 200 वर्षों से एक ही पट्टे की पूजा की जा रही है। पहले हर साल इस पर टच-अप किया जाता था। लेकिन पिछले कुछ दशकों से, इसे हर 12 साल में एक बार टच-अप किया जा रहा है।

इस तरह से देखें तो आनेवाले दिनों में इस परंपरा को बढ़ावा दिए जाने की सख्त आवश्यकता है। किन्तु दुर्भाग्य से हो रहा बिलकुल इसके उलट है, इससे जुड़े कलाकारों की पहली प्राथमिकता प्रतिमा निर्माण ही है। क्योंकि चित्र बनाने की अपेक्षा प्रतिमा निर्माण से ज्यादा आमदनी होती है। ऐसे में जिन परिवारों में पीढ़ियों से पटचित्र की परंपरा रही है उस परिवार की नयी पीढ़ी भी इससे विमुख होती जा रही है।

-सुमन कुमार सिंह

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