अजीत कौर : बिखरी हुई कड़ियों को जोड़े रखने की जिद

मौजूदा दौर में भले ही कहा जाता हो कि सूचना क्रांति की वजह से पूरा विश्व अब एक गांव में तब्दील हो चुका है। दुनिया के एक कोने से दूसरे कोने तक किसी खबर के पहुंचने में भले ही चंद मिनट या घंटे लगते हों। किन्तु क्या यही सबकुछ कला-साहित्य और संस्कृति से जुड़े मामलों में भी होता है? ऐसे में मेरा जवाब तो होगा कि नहीं ऐसा नहीं है। वस्तुस्थिति तो यह है कि हम अपने आसपास की दुनिया से लगभग बेखबर हो गए हैं, भारतीय उपमहाद्वीप या आसियान देशों की बात करें तो हममें से बिरला ही कोई होगा। जो यहां चल रही साहित्यिक- सांस्कृतिक गतिविधियों से भलीभांति वाकिफ हो। कला की दुनिया को ही लें तो हमारे भारतीय कला जगत के लोग यूरोप और अमेरिका के कला आंदोलनों से जितना भी वाकिफ हों, आसियान देशों की कला गतिविधियों से लगभग नावाकिफ ही मिलेंगे। मेरी समझ से कुछ यही हाल साहित्य की दुनिया का भी है।

अलबत्ता फिल्म और संगीत की दुनिया में हालात कुछ बेहतर कहे जा सकते हैं। अक्सर देखा जाता रहा है कि सरहदों और भाषाओं की सीमाओं को तोड़कर कोई धुन पूरे क्षेत्र में गूंज उठता है। जाहिर है ऐसे में अगर कोई संस्था लगातार कई वर्षों से आसियान देशों के बीच की बिखरी हुई कड़ियों को जोड़ने का लगातार उपक्रम कर रहा हो तो उसकी चर्चा होना स्वाभाविक है। पिछले महीने किसी कार्यक्रम के दौरान अपनी मुलाकात होती है कला जगत की मशहूर हस्ताक्षर अर्पणा कौर जी से। बातचीत के क्रम में उन्होंने बताया कि मार्च में उनकी संस्था फाउंडेशन ऑफ सार्क राइटर्स एंड लिटरेचर के द्वारा 63 वां फोसवाल लिटरेचर फेस्टिवल का आयोजन होने जा रहा है।

विदित हो कि हमारी पीढ़ी के अधिकांश कलाकारों के लिए अर्पणा कौर बड़ी बहन हैं। एक ऐसी बड़ी बहन जो कलाकारों के लिए हरसंभव मदद को सदैव तत्पर रहती हैं। बहरहाल उन्हीं से यह भी जानकारी मिली कि इस आयोजन के पीछे मुख्य भूमिका माताजी यानी अजीत कौर जी की रहती है। उम्र संबंधी तमाम परेशानियों के बावजूद वे प्रतिवर्ष बड़े उत्साह से इसका आयोजन दशकों से करती चली आ रही हैं। विदित हो कि त्र्ते 1934 में जन्मी अजीत कौर आजादी के बाद के इतिहास की सबसे उल्लेखनीय पंजाबी लेखिका हैं। आपके लेखन को जीवन के उहापोह का समझने और उसके यथार्थ को उकेरने की ईमानदार कोशिश के तौर पर देखा जाता है। नारी का संघर्ष और उसके प्रति समाज के असंगत व्यवहार को रेखांकित करती उनकी रचनाओं ने पाठकों को प्रभावित तो किया ही, उस लेखन ने सामाजिक और राजनैतिक विकृतियों पर धारदार प्रहार भी किया ।

बहरहाल बात इस तीन दिवसीय आयोजन की करें जो दिनांक 26, 27 एवं 28 मार्च को नई दिल्ली स्थित सिरी फोर्ट इंस्टीट्यूशनल एरिया के अकेडमी ऑफ फाइन आर्टस एंड लिटरेचर में संपन्न हुआ। जिसमें भारत समेत नेपाल, भुटान, बांग्लादेश, म्यांमार, थाइलैंड, वियतनाम और श्रीलंका से आए प्रतिनिधियों ने भाग लिया। कार्यक्रम के पहले दिन डॉ. कुनजंग चोडेन, भुटान, डॉ. रिनझिन रिनझिन, भुटान, प्रो. हंपा नागराजन, भारत, प्रो. आलोक भल्ला, भारत, श्री भीष्म उप्रेती, नेपाल, सुश्री कंचना प्रियकांता, श्रीलंका एवं श्री कौशल्या कुमारसिंघे, श्रीलंका को फोसवाल लिटरेचर अवार्ड से सम्मानित किया गया। तीन दिन तक चले इस कार्यक्रम में वैचारिक सत्र के अलावा कविता पाठ एवं गद्य पाठ भी रखा गया था।

कार्यक्रम में शामिल वक्ताओं में आशीष नंदी, नासीर मुंजी, सुरेश गोयल, दीपक वोहरा, गणेश देवी जैसे नामचीन शख्सियतों की उपस्थिति रही। वहीं कविता पाठ में अनामिका, यश मालवीय, अशोक आत्रेय, वर्षा दास, संगीता गुप्ता,  अमित कल्ला, देवप्रकाश चौधरी, शाहिद अनवर, राजेंद्र शर्मा, रितु त्यागी, देव शंकर नवीन, सविता पाठक, शाहिद अंजुम, मनप्रीत सिंह, सिया सचदेव जैसे चेहरे शामिल थे। व्यक्तिगत तौर पर मेरे लिए यह एक सुखद अनुभव था, क्योंकि पहली बार इस तरह के किसी कार्यक्रम को देखने- सुनने का अवसर मिला था। जहां अपने सार्क देशों के प्रतिनिधि साहित्यकार एक मंच पर इकठ्ठा हुए हों। तीन दिवसीय इस कार्यक्रम के दौरान माताजी अजीत कौर व बहन अर्पणा जी की अनवरत सक्रियता का कायल तो होना ही था। किन्तु इन सबके बावजूद एक सवाल या मलाल यह भी रह रहकर सामने आ रहा था कि हम अपने पड़ोसियों से उतने नजदीक क्यों नहीं हैं, जितना होना चाहिए। वहीं बतौर जवाब अजीत कौर, अर्पणा कौर, देवप्रकाश चौधरी एवं प्रीतिमा वत्स समेत आयोजन से जुड़े तमाम मित्रों के चेहरे सामने आ जाते हैं, जो आश्वस्त करते दिखते हैं कि बिखरी हुई कड़ियों को जोड़े रखने की यह कोशिश या जिद आगे भी जारी रहेगी।

-सुमन कुमार सिंह

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