डॉ. हरिसिंह गौर केन्द्रीय विश्वविद्यालय, सागर में राष्ट्रीय संगोष्ठी आयोजित

  • डॉ. हरिसिंह गौर सागर केन्द्रीय विश्वविद्यालय के प्रदर्शनकारी एवं ललित कला विभाग में शिवरात्रि के दिन से दो दिवसीय (26 -27 फ़रवरी 2025) राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन किया गया जिसमें देशभर के कला- मर्मज्ञों के व्याख्यान हुए।‌
  • उद्घाटन व समापन सत्र में विश्वविद्यालय के ललित कला संकाय पूर्व अधिष्ठाता डॉ. ललित मोहन व अकादमिक विषयों के अधिष्ठाता डॉ. नवीन कानगो विशेष रूप से उपस्थित थे।
  • संगोष्ठी के मुख्य सूत्रधार ललित कला एवं प्रदर्शनकारी कला विभाग के अधिष्ठाता डॉ. बलवंत भदौरिया थे।
सुप्रसिद्ध रंगमंच विशेषज्ञ व राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, नई दिल्ली के पूर्व निदेशक डॉ. देवेन्द्रराज अंकुर, उत्तरप्रदेश ललित कला अकादमी के अध्यक्ष व महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ में ललित कला संकाय के अध्यक्ष डॉ. सुनील विश्वकर्मा, सुप्रसिद्ध कला समीक्षक सुमन कुमार सिंह, दिल्ली विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग के एसोसिएट प्रोफेसर डॉ. आशुतोष कुमार राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय वाराणसी केन्द्र के प्रमुख प्रवीण कुमार गुंजन व राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, नयी दिल्ली के अध्यापक डॉ. रामजी बाली , महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय में नाट्यशास्त्र के विशेषज्ञ अध्यापक डॉ. सतीश पावड़े, राजा मानसिंह तोमर संगीत एवं कला विश्वविद्यालय ग्वालियर में रंगमंच विभाग के अध्यक्ष डॉ. हिमांशु द्विवेदी, सांची स्थित बौद्ध एवं भारतीय ज्ञान विश्वविद्यालय में चित्रकला विभाग की अध्यक्ष डॉ. सुष्मिता नंदी, इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय, नई दिल्ली के प्राध्यापक डॉ. लक्ष्मण प्रसाद, बड़ौदा व अमरीका के कला संस्थानों में पढ़ीं सुश्री कोपल सेठ, बुन्देलखण्ड विश्वविद्यालय झांसी में ललित कला विभाग की अध्यक्ष डॉ. श्वेता पांडेय, व कला – समीक्षक जयन्त सिंह तोमर के व्याख्यान हुए।
उद्घाटन भाषण में राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के पूर्व निदेशक व सुप्रसिद्ध रंगमंच विशेषज्ञ देवेन्द्र राज अंकुर ने कला पर केन्द्रित कला – समीक्षक प्रयाग शुक्ल का पुराना लेख ‘ देखने का स्वाद’ पढ़ कर सुनाया और कहा कि वे इससे पहले दो बार सागर आये हैं। रंगकर्मी गोविंद नामदेव के रंग- शिविरों में इससे पहले उनका आना हुआ। श्री अंकुर ने अपनी विनोदप्रियता प्रदर्शित करते हुए कहा कि जो विरोध में बोलता है उसके बोलने की व्यवस्था मंच के बांई ओर की जाती है और यहां वही व्यवस्था रखी गई है।
दूसरे सत्र के वक्तव्य में ललित कला व रंगमंच के अंतर्संबंध पर बोलते हुए देवेन्द्र राज अंकुर ने भरत मुनि का नाट्यशास्त्र सभी कलाओं का संगम है। यह उक्ति प्रसिद्ध है कि जो नाट्यशास्त्र में नहीं है वह कह कहीं नहीं है। भारतीय रंग- परंपरा को यदि देखें तो उसमें वाचिक, आंगिक, आहार्य व सात्विक अभिनय के साथ चित्राभिनय भी है। यह ललित कला व रंगमंच के अंतर्संबंध को बताता है।
उत्तरप्रदेश ललित कला अकादमी के अध्यक्ष डॉ. सुनील विश्वकर्मा ने उद्घाटन सत्र में सारस्वत अतिथि के रूप में बोलते हुए कहा कि भारतीय परम्परा में चौंसठ कलाएं बताई गई हैं। चीन में अपनी अध्ययन यात्रा का उल्लेख करते हुए डॉ विश्वकर्मा ने कहा चित्र एक वैश्विक भाषा है।
समापन समारोह के अध्यक्षीय वक्तव्य देते हुए डॉ. आशुतोष कुमार ने कला और कल्पना के संदर्भ में कहा कि आज की दुनिया में भटकने व असहमत होने से रोका जाता है जबकि एक बेहतर और वैकल्पिक दुनिया भटकाव और असहमति से ही बनती है। कल्पनाशीलता के बिना यह काम नहीं होता। कल्पनाशीलता वास्तव का ही विस्तार है जिसे साकार करने के लिए साहस चाहिए। दार्शनिक इमानुएल कांट ने कहा है कि अपनी समझ का उपयोग ही साहस है। डॉ. आशुतोष ने ‘ प्रासंगिक ‘ शब्द को एक एक हिंसक शब्द करार दिया और कहा कि वैधता अर्जित की जाती है और उसे खंडित भी किया जाता है। दार्शनिक एमर्सन ने कहा था कि सुंदर वह है जिसे देख, पढ़ या सुनकर जीवन की याद आये।कला और सौन्दर्य को ठीक से समझना हो तो मन्नू भंडारी की कहानी ‘ दो कलाकार ‘ पढ़नी चाहिए। संगीत और कलायें जीवन को उदात्त बनाती हैं। हमें इस बात को ग्रहण करने के साथ साथ यह भी समझना होगा कि केवल साहस नहीं बल्कि जीवन को सुंदर बनाने के लिए लड़ाई की पद्धति जानना भी जरूरी है।
प्रसिद्ध कला समीक्षक सुमन कुमार सिंह ने एक डिमांस्ट्रेशन के जरिए कलाविद जयकृष्ण अग्रवाल की कला यात्रा से परिचित कराया। उन्होंने कहा कि दुर्भाग्य से आज़ादी के बाद देश का राजनीतिक विभाजन एक सांस्कृतिक विभाजन भी बन गया । जिसने इस महाद्वीप की कला एवं संस्कृति को नुकसान पहुँचाया I कला इतिहास जैसे विषय की बात की जाये तो हमारे कला संस्थानों में विश्व का कला इतिहास तो पढाया जाता है I किन्तु छात्रों को अपने आंचलिक या स्थानीय धरोहरों के प्रति जागरूक नहीं किया जाता है I आज भी हम जहाँ रहते हैं उस अंचल विशेष की कला परंपरा या इतिहास के बारे में जानने की कोशिश नहीं करते। नालंदा विश्वविद्यालय के आसपास पांच और विश्वविद्यालय थे जिन्हें अब कम लोग जानते हैं। वहां कपड़े पर छपाई का काम होता था।
सांची बौद्ध एवं भारतीय ज्ञान विश्वविद्यालय में चित्रकला विभाग की अध्यक्ष डॉ. सुष्मिता नंदी ने चित्रकला में नवाचार व परम्परा पर बोलते हुए कहा कि हमारी कला पर औपनिवेशिक प्रभाव है । इससे मुक्त होकर भारतीय कला के पुनर्मूल्यांकन की आवश्यकता है। इस क्रम में उन्होंने गौतम बुद्ध, स्वदेशी आंदोलन, गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर की चर्चा करते हुए कहा कि मनुष्य को मनुष्य बनाये रखने के साथ साथ कला में वैश्विक दृष्टि, मौलिकता व दिशा निर्धारण की जरूरत है।
डॉ. सुष्मिता नंदी
महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा में रंगमंच के अध्यापक डॉ सतीश पावड़े ने भरत मुनि के नाट्यशास्त्र पर विस्तार से बोलते हुए कहा कि दो हजार वर्ष से भी अधिक पुराने इस ग्रंथ को जितनी बार पढ़ा जाये उतनी बार कुछ न कुछ न कुछ नयी बात मिलती है। उन्होंने बताया कि वे अब तक इसे सत्तर बार पढ़ चुके हैं। हर बार छह हजार श्लोक से युक्त इस ग्रंथ का अध्ययन कर रंगमंच के अनेकानेक आयामों का परिचय मिलता है। रंगमंच के किस स्तर पर बज्रलेप, सुधालेप, बेल आदि का लेप हो इसका तो वर्णन है ही काष्ठ शिल्प, वृक्षिका, शालभंजिका, प्रेक्षागृह, हस्तमुद्रा, वृत्ति आदि का भी विस्तार से वर्णन है। भाषाओं के विविध प्रकार जैसे शौरसेनी, मागधी, अर्धमागधी, पैशाची का विवरण इस ग्रंथ में मिलता है। अश्वघोष के बुद्धचरित से लेकर मोहन राकेश तक के नाटकों में एक सुदीर्घ परंपरा दिखाई देती है।
राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय वाराणसी केन्द्र के निदेशक प्रवीण कुमार गुंजन ने कहा कि अनुभूति एक गूढ़ और गहन विषय है। अपने दर्शकों में इसे विकसित करने के लिए प्रशिक्षण के साथ नये व्याकरण की भी जरूरत है। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय वाराणसी केन्द्र के पूर्व  निदेशक एवं राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, नयी दिल्ली के अध्यापक डॉ. रामजी बाली ने कहा कि आगे जाने के लिए कभी कभी पीछे भी मुड़कर देखना होता है।‌ परम्परा के अध्ययन का यही महत्व है। उन्होंने कहा कि नाटकों के अनुवाद अगर अभिनेताओं ने किये होते तो उनका स्वरूप कुछ और होता।‌ यथार्थ की जहां तक बात है तो हमारे रियलिज्म और पश्चिम के रियलिज्म में अंतर है।
इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय के अध्यापक डॉ. लक्ष्मण प्रसाद ने ‘ मुक्त शिक्षा में ललित कला व नवाचार ‘ पर बोलते हुए ज्ञानवाणी, ज्ञानदर्शन जैसे दृश्य – श्रव्य माध्यम, स्वयम पोर्टल, पत्राचार, दूरस्थ शिक्षण , अध्ययन सामग्री, वर्कशॉप आदि उपयोगी माध्यमों पर विस्तार से जानकारी दी।
राजा मानसिंह तोमर संगीत एवं कला विश्वविद्यालय ग्वालियर में रंगमंच विभाग के अध्यक्ष डॉ. हिमांशु द्विवेदी ने शास्त्रीय व लोक रंगमंच के क्रम में विलियम जोन्स द्वारा सन् १७८६ में किये गये अभिज्ञान शाकुंतलम के अंगरेजी अनुवाद, किर्लोस्कर थिएटर ग्रुप, भारतेन्दु हरिश्चन्द्र से पीटर ब्रुक तक के रंगमंचीय प्रयोग, अलखनंदन के बुन्देली स्वांग, संजय द्विवेदी के ध्रुवा बैंड कि चर्चा की। उन्होंने एकादश नाट्य संग्रह के साथ परम्परा, प्रयोग व नवाचार पर भी बात की।
बुंदेलखंड विश्वविद्यालय में ललित कला विभाग की अध्यक्ष डॉ. श्वेता पांडेय ने अपने वक्तव्य में कहा कि नवीन रचना तभी सम्भव है जब परम्परा का अध्ययन किया हो।
कला – समीक्षक के रूप में आमंत्रित जयंत सिंह तोमर ने कला संबंधी लेखन में मौलिक दृष्टि के साथ नये माध्यमों के समुचित उपयोग की जरूरत बताई। कुछ कलाकृतियों की कैसे अधिकाधिक चर्चा होती है उस प्रक्रिया व समीक्षा के तत्व को समझना एक कला समीक्षक का दायित्व है। इस क्रम में उन्होंने पिकासो की कृति ‘गेर्निका’ का उल्लेख करते हुए कहा कि टाइम पत्रिका के युद्ध संवाददाता का एक लेख इस कृति को चर्चा में लाया, लेकिन युद्ध पर ही केन्द्रित पिकासो की दो अन्य कृतियों की नाममात्र की चर्चा होती है जिनमें कोरियाई व फ्रेंच युद्ध के चित्र शामिल हैं। उन्होंने कहा कि ऐसे समय में जब मुख्यधारा के समाचार माध्यमों में कला को कम स्थान मिल रहा है तब सोशल मीडिया का उपयोग भी वैकल्पिक माध्यम का काम कर सकता है।
संगोष्ठी को सफल बनाने में अध्यापिका डॉ. सुप्रभा दास, संगोष्ठी संयोजक डॉ. नीरज उपाध्याय, अध्यापक डॉ. राकेश सोनी, डॉ. आकाश मालवीय, अल्ताफ मुल्तानी, अमितेश पांडेय की महत्वपूर्ण भूमिका रही। उद्घाटन व समापन सत्र का संचालन पत्रकारिता विभाग की शोधार्थी सलोनी शर्मा ने किया। श्रोता व दर्शकों में ललित कला के विद्यार्थियों की अधिक संख्या को देखते हुए इस आयोजन को संतुलित किया जा सकता था।

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