गुप्ता ईश्वरचंद प्रसाद नहीं रहे, इस खबर ने कला जगत को मर्माहत कर दिया। किन्तु एक दुर्भाग्यपूर्ण सच यह भी था कि देश के कला जगत ने तो उन्हें दशकों पहले अकेला छोड़ दिया था। अलबत्ता इस बीच स्थानीय स्तर पर कई प्रयास ऐसे भी हुए जिससे यह उम्मीद जगी कि शायद फिर से मुख्यधारा में उनकी वापसी हो जाए। किन्तु नियति को यह मंज़ूर नहीं था, इसलिए कोई भी प्रयास अपनी सार्थक परिणति तक नहीं पहुँच पाया। इस विलक्षण प्रतिभा के प्रति श्रद्धा सुमन के तौर पर प्रस्तुत है बिहार म्यूजियम, पटना के अपर निदेशक व वरिष्ठ कला लेखक अशोक कुमार सिन्हा जी का यह आलेख..
Ashok Kumar Sinha
ईश्वरचंद गुप्ता उर्फ लंदन बाबा। टेराकोटा शिल्प के महारथी। अर्धविक्षिप्तता की अवस्था। बीते चार-दशक से मधुबनी में प्रतिकूल परिस्थिति में जीवन जी रहे थे। फटे-पुराने वस्त्र, विकट देह, बढ़े बाल, बिखरी दाढ़ी और पेट से सटी पीठ के साथ एक तरह से निराला की कविता ‘भिक्षुक‘ की सजीव तस्वीर बन चुके थे। समाज, कलाजगत और उनके तथाकथित अपनों ने भी उनसे कन्नी काट ली थी। लेकिन पिछले 04 जून, 2023 को उनके निधन के बाद से सोशल मीडिया पर संवेदनाओं का तांता-सा लग गया।
बड़ी लम्बी कहानी है। गुप्ता ईश्वरचंद प्रसाद की दुःखभरी जिन्दगी की। गुप्ता ईश्वरचंद का जन्म मधुबनी शहर में 1 जून, 1941 को हुआ था। माँ श्रीमती राजेश्वरी देवी गृहिणी थी। पिता श्री रामदयाल प्रसाद का कोलकाता में खादी कपड़े का व्यवसाय था। प्रारंभिक शिक्षा गुप्ता ईश्वरचंद ने मधुबनी में ही प्राप्त की। गुप्ता ईश्वरचंद ने मिट्टी के लौंदे को रूप देना तभी शुरू कर दिया था, जब वह स्थानीय सूड़ी विद्यालय का नन्हा सा छात्र था। ईश्वरचंद को मधुबनी की सूर्ख चिकनी मिट्टी बहुत भाती थी, जिसे छलनी से छान लेने के बाद मक्खन की तरह गूँदा जा सकता था। दोस्तों और शिक्षकों से प्रोत्साहन पाकर वे सरस्वती पूजा एवं अन्य अवसरों पर अपने हाथों से मिट्टी की छोटी-छोटी प्रतिमाएँ गढ़ने लगे, जो लोगों को पसंद आने लगी। इसी बीच रंगों और तूलिका से भी उनकी दोस्ती हो गई। मधुबनी के सूड़ी हाई स्कूल से मैट्रिक करने के बाद गुप्ता ईश्वरचंद ने स्थानीय आर.के.कॉलेज में इंटरमीडियट में नामांकन कराया। अब तक ईश्वरचंद खुद ही चित्रांकन करने लगे थे। सन 1958 में इंटर की पढ़ाई पूरी करने के बाद ईश्वरचंद ने अपने पिता से कहा कि यदि उसे कला महाविद्यालय में नामांकन करा दिया जाए तो वह सर्वाधिक सुखी होगा। उन्ही दिनों पिता को व्यवसाय में जबर्दस्त घाटा लगा था और वे मधुबनी लौट आए थे।
लेकिन पुत्र में चित्रकला के प्रति अगाघ प्रेम को देखकर उन्होंने 100 रू. देकर शांति निकेतन भेज दिया। वहाँ नामांकन भी हो गया। लेकिन अचानक पैदा हुए आर्थिक संकट से शांति निकेतन की पढ़ाई में व्यवधान आ गया। वहाँ की पढ़ाई का खर्च ज्यादा था। ईश्वर मन-मसोसकर मधुबनी लौट आये। लेकिन गरीबी नें कला की शिक्षा प्राप्त करने की इच्छा को बलवती ही किया। ईश्वरचंद की जिद पर पिता ने काबुलीवाला से 50 रू. ऋण लेकर पटना भेज दिया। पटना के राजकीय कला एवं शिल्प विद्यालय में नामांकन भी हो गया। इश्वर की लगन और अभिरूचि को देखकर प्राचार्य राधामोहन बहुत प्रभावित हुए और उनके प्रयास से शिक्षा विभाग से इन्हें इक्कीस रू. महीने की छात्रवृति मिलनी शुरू हो गई। कॉलेज में प्राध्यापक सत्या मुखर्जी और बटेश्वरनाथ श्रीवास्तव से जलरंग, वाश शैली और तैल चित्रों की शिक्षा ग्रहण करने लगे। दाखिला लेने के बाद इनके द्वारा बनाये गये कृतियों और चित्रों की खूबी फैलने लगी। ईश्वरचंद धीरे-धीरे रंगों और मिट्टी की दुनिया में डूबते चले गये।
“पूतना वध” शीर्षक टेराकोटा शिल्प
उन्हीं दिनों लखनऊ कला महाविद्यालय के प्राध्यापक एवं प्रसिद्ध मूर्ति शिल्पकार श्रीधर महापात्र एक कार्यशाला में भाग लेने पटना कला महाविद्यालय में आये हुए थे। गेस्ट टीचर के रूप में पटना-प्रवास के दौरान वे छात्रों को गणेश सीरिज की मूर्तियाँ बनाना सीखा रहे थे। गणेश सीरिज की मूर्तियाँ ईश्वरचंद को बहुत पसंद आयी। एक दिन महापात्र अपने मित्र उपेन्द्र महारथी के यहाँ रात्रि भोजन पर गए। वहाँ से लौटने के पश्चात् उनकी तबीयत ज्यादा खराब हो गई। उस दौरान ईश्वरचंद ने उनकी खूब सेवा की। ईश्वरचंद गुप्ता ने मुझे बताया था कि महापात्र सारी रात पेट दर्द से कराह रहे थे और वे रात भर उनकी सेवा सुश्रुषा करते रहे थे। दूसरे दिन पटना के मंदिरी मुहल्ले में एक वैद्य से उनका इलाज चला। तब जाकर वे स्वस्थ हुए थे।
श्रीधर महापात्र ईश्वरचंद की गुरू भक्ति से काफी प्रसन्न हो गए और इन्हें पटना कला महाविद्यालय की पढ़ाई पूरी करने के बाद लखनऊ आने का आमंत्रण दिया। ईश्वरचंद कला एवं शिल्प महाविद्यालय, पटना से प्रथम श्रेणी में डिप्लोमा करने के बाद 1963 में लखनऊ चले गए और वहाँ के कला महाविद्यालय ने उनका नामांकन ले लिया। लेकिन, लखनऊ में भी आर्थिक संकट था। इसलिए कुछ महीनों बाद मन मसोसकर मधुबनी लौट आए। लखनऊ कला महाविद्यालय के प्राध्यापक महापात्र एवं अवतार सिंह पंवार के प्रयास से छात्रवृति के रूप में आर्थिक सहायता मिलनी शुरू हुई तो पुनः लखनऊ चले आए। श्रीधर महापात्र, सुधीर रंजन खास्तगीर एवं अवतार सिंह पंवार के मार्गदर्शन में इन्होंने टेराकोटा माध्यम में में मूर्ति शिल्प का सृजन शुरू किया।
College of Arts & Crafts Lucknow
लखनऊ में ईश्वरचंद ने गणेश को टेरोकोटा माध्यम में गढ़ना शुरू किया। लखनऊ कला महाविद्यालय के प्राचार्य रह चुके जयकृष्ण अग्रवाल उन दिनों की याद करते हुए कहते है कि ईश्वरचंद ने विभिन्न आकारों में गणेश की मूर्तियों का गढ़ा था। मिट्टी के स्लैव को घूमा-घूमाकर, मोड़कर जब वे आकार देते थे, तब वह असाधारण हो जाता था। टेराकोटा माध्यम में बड़े आकार में उनके द्वारा बनाए गए ‘गणेश‘ श्रृंखला के मूर्तिशिल्प आज भी मुझे याद है, जिसे वे उपहार स्वरूप बांटते थे।
ईश्वरचंद से पहले मिट्टी कुम्हारों, खिलौना या धार्मिक मूर्तियाँ बनाने वालों के काम आती थी। लेकिन ईश्वरचंद ने जब मिथिला की लोक कथाओं के पात्रों को विषय बनाकर मूर्ति शिल्प बनाना शुरू किया तो कला जगत में अचानक उनके नाम की धूम मच गयी। उत्तर प्रदेश कला अकादमी ने उनकी ‘सीता की खोज‘ श्रृंखला के मूर्तिशिल्प पर वर्ष 1965 का कला पुरस्कार प्रदान किया। उसी दौरान उनके द्वारा मिथिलांचल की नृत्य शैली ‘‘झिझिया‘‘ विषय पर निर्मित रंगीन तैल चित्र भी बहुप्रशंसित हुआ था। इसके बाद तो पुरस्कारों की झड़ी लग गयी। 1966 में उत्तर प्रदेश आर्टिस्ट असोसिएशन द्वारा इन्हें पुरस्कृत किया गया। 1968 में इंडियन एकेडमी ऑफ आर्ट, अमृतसर और ललित कला अकादमी, दिल्ली ने उन्हें अपने शीर्ष सम्मान से सम्मानित किया। ‘पूतना बध‘ विषयक टेराकोटा माध्यम मूर्तिशिल्प के लिए इन्हें ऑल इंडिया फाईन आर्टस एण्ड क्राफ्टस सोसाइटी, नई दिल्ली द्वारा विशेष रूप से सम्मानित किया गया।
ईश्वरचंद गुप्ता एवं युवा कलाकार प्रतीक प्रभाकर
1969 में लखनऊ कला महाविद्यालय से मूर्तिकला में स्नातक की डिग्री लेने के बाद ईश्वरचंद की नियुक्ति उसी महाविद्यालय में प्राध्यापक के पद पर हो गयी। राष्ट्रीय छात्रवृति के अंतर्गत मूर्तिकला पर शोध करने के लिए ये उसी वर्ष शांति निकेतन, पश्चिम बंगाल चले गये। शांति निकेतन में रहकर शोधकार्य के साथ-साथ इन्होंने कुछ रचनात्मक करने का भी प्रयास किया। कला भवन, शांति निकेतन के तत्कालीन प्राचार्य श्री दिनकर कौशिक, प्रो. रामकिंकर वैज एवं श्री धनराज भगत के मार्गदर्शन में ईश्वरचंद को काफी कुछ सीखने को मिला। ‘‘उन तीनों ने मुझे आगे बढ़ाया और मेरी कला को संवारा। उन्होंने मेरे जीवन की दिशा ही बदल दी‘‘- यह कहना था ईश्वरचंद का।
बाएं से सरबरी राय चौधरी, जनक झंकार नर्जरे, महिला सहपाठी , ईश्वर चंद्र गुप्ता (लंदन बाबा) एवं पांडेय चंद्रविनोद।
उन दिनों की स्थितियों का वर्णन शांति निकेतन में ईश्वरी प्रसाद गुप्ता के सहयोगी रहे रणजीत साहा ने कुछ इस प्रकार किया है- ‘‘शांति निकेतन में पूजावकाश के दौरान, ज्यादातर अध्यापक और छात्र बाहर चले जाते थे। लेकिन पूजावकाश से लौटने पर पता चला कि ईश्वरी तो घर गया ही नहीं, पूरी छुट्टी पटसन की रस्सियों को विभिन्न आकारों में गूंथते-बांधते, विविध अभिप्रायों और प्रतीकों को उनमें समायोजित करते उन्हें रंगता रहा। पटसन और पुआल, रंग और रस्सी बांस और मिट्टी- यानी आम और सहज उपलब्ध प्राकृतिक संसाधनों को प्रस्तावित आकार दे देना ईश्वरी का मानों शगल ही था। कौड़ी, सीपी, घुंघरू , गुडियां, चुड़ी, फीते, गिलट के सिक्के, शीशे के टुकडे़ और चमकीले पन्नी- ये सभी उन आकारों के अनिवार्य अनुसंग बनकर या- फिर मंत्रविद्ध होकर इस काले कलंदर कलाकार के हाथों किसी जादुई संसार की निर्मिति में ढल-बदल जाते। यह दुनिया एक बेहद उदासीन और बिंदास दिख पड़ने वाले सर्जक का उत्सवी बाना पहने एक जीवंत दुनिया थीं। लोकाश्रित आकारों, आख्यानों और आस्थाओं का एक विचित्र किंतु विश्वसनीय संसार।‘‘
janak jhankar narzary
शांति निकेतन में ईश्वरचंद के सहपाठी जनक झंकार नरझरे के शब्दों में-‘‘शांति निकेतन में ईश्वरचंद रामकिंकर वैज के अधीन नेशनल स्कॉलर के रूप में काम करते थे। उस दौरान उन्होंने टेराकोटा के बड़े आकार (7 फीट) की कई मिट्टी की मूर्तियाँ बनाई। परन्तु उनके पास उन्हें पकाने के लिए पैसे नहीं होते थे।‘‘
शांति निकेतन में दो वर्षों तक शोध करने के बाद ईश्वरचंद वापस लखनऊ लौट आए। अब तक ईश्वरचंद की कलाकृति देश के शहरों से निकलकर लंदन तक चर्चित हो चुकी थी। नतमस्तक करा देने वाली उनकी प्रतिभा से कुछ बड़े लोग हैरान-परेशां थे। कुछ लोग इर्ष्या की अग्नि में भी जल रहे थे। 1971 ई. में ब्रिटिश काउंसिल ने उनकी प्रतिभा का सम्मान करते हुए स्कॉलरशिप देकर उन्हें लंदन में आमंत्रित किया। उस समय ऐसा प्रशिक्षण भारतीय प्रतिभाओं के लिए अनिवार्य समझा जाता था। लेकिन, प्राचार्य ने उनके आवेदन को अनुमति के लिए शिक्षा विभाग में भेज दिया। जाने का समय बीत रहा था। इसलिए ये प्राचार्य कक्ष के सामने आमरण अनशन पर बैठ गए। इसी दौरान लखनऊ पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया। लगभग 14 दिन तक ये जेल में रहे। तब लखनऊ के कलाकारों ने उत्तर प्रदेश के तत्कालीन राज्यपाल अकबर अलीखान से मिलकर ईश्वरचंद को छुड़ाने की गुहार लगायी। खान ने इस मामले में व्यक्तिगत रूचि ली और उनके हस्तक्षेप के बाद ईश्वरचंद को वर्ष 1974 में दो वर्ष के लिए लंदन जाने की अनुमति मिल पायी।
ईश्वरचंद गुप्ता,लन्दन 1980
ईश्वरचंद ने लंदन के संत मेर्टिन स्कूल ऑफ आर्टस में प्रो. बरनेट मिरोज से एक वर्ष तक मूर्तिकला में एडवांस प्रशिक्षण लिया। तत्पश्चात रॉयल कॉलेज ऑफ आर्टस से कांसा मूर्ति ढलाई में फाउन्डरी कोर्स की पढ़ाई पूरी की। वर्ष 1976 से 1980 तक ‘सिरेमिक यूज इन स्कल्पचर‘ पर सर जॉन कैष कॉलेज में प्रो. हटरी एवं प्रो. विदहोल के निर्देशन में रिसर्च किया। लंदन प्रवास के दौरान ईश्वरचंद लंदन के कई कला महाविद्यालयों में भी गये। वहाँ के चित्रकारों और मूर्तिकारों से मिले और उनकी कला प्रदर्शनियों में शामिल हुए। लंदन प्रवास के दौरान उन्हें रॉयल अकादमी की नामी प्रदर्शनी में अपनी कृति सम्मिलित कराने का गौरव भी हासिल हुआ।
ईश्वरचंद लंदन गये तो वहीं के होकर रह गये। दरअसल, उनके मन में कहीं यह डर समाया हुआ था कि लखनऊ लौटने पर उन्हें पुनः प्रताड़ित किया जायेगा। इसलिए वीजा समाप्ति के बाद भी वे लंदन में ही रह गये। वर्ष 1977-78 में कॉमनवेल्थ छात्रवृत्ति के तहत उन्हें मिलने वाली राशि बंद कर दी गई। ईश्वरचंद के लिए लंदन में रहना मुश्किल हो गया था। फिर भी वे लंदन में ही बने रहे। ऐसे गाढ़े वक्त में उन्हें गुरूमुखी सिख अजीत सिंह हामरा ने अपने घर में शरण दी। उनका करेंसी का व्यापार था। कहते है कि लंदन प्रवास के दौरान ईश्वरचंद एक ब्रिटिश युवती माग्रेट सरला के प्रेमजाल में उलझ गये थे। लेकिन एक दिन उसने ईश्वरचंद को ठेंगा दिखाते हुए एक स्वीडिश युवक से शादी कर ली। यह ईश्वरचंद के लिए दूसरा आघात था। इसी बीच इनके पिता का भी निधन हो गया। कालांतर में जब एशियाई लोगों के खिलाफ लंदन में आंदोलन चला तो भारतीय उच्चायोग ने वर्ष 1981 में उन्हें जबरन वापस दिल्ली भेज दिया। यहीं से उनकी बर्बादी का सिलसिला शुरू हो गया।
प्राप्त जानकारी के अनुसार ईश्वरचंद लंदन से अपने साथ ढेर सारी कलाकृतियाँ, किताब और शोध-पत्र लाये थे, जिसे दिल्ली प्रवास के दौरान ही उनके किसी मित्र ने चुरा लिया। प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से उसकी पीड़ा आजीवन उनके भीतर रही। तदुपरान्त जब वे लखनऊ लौटे, तब तक ज्यादा दिन हो जाने के कारण उनकी प्राध्यापिकी समाप्त की जा चुकी थी। वहाँ से निराश होकर जब वे मधुबनी लौटे तो उनके पास कुछ नहीं बचा था। जीवन की इस क्रूरता ने उन्हें अर्द्धविक्षिप्त बना दिया।
देश का यह मूर्धन्य कलाकार लगभग तीन दशक तक गुमनामी के धुंध में खोया रहा, लेकिन किसी ने उसकी खोज-खबर नहीं ली। वर्ष 2014 में बिहार सरकार ने उन्हें राज्य के सर्वोच्च कला सम्मानों में से एक ‘लाइफ टाइम एचीवमेन्ट एवार्ड‘ से अलंकृत किया। ईश्वरचंद को जीवन की बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के साथ-साथ उन्हें अनुकूल कलात्मक माहौल देने के उद्देश्य से राज्य के तत्कालीन मुख्य सचिव अंजनी कुमार सिंह की पहल पर उपेन्द्र महारथी शिल्प अनुसंधान संस्थान ने मेरे निर्देशन में मधुबनी में 24 फरवरी से 5 मार्च, 2017 तक टेराकोटा महोत्सव का आयोजन किया, जिसमें गुप्ता ईश्वरचंद के अलावा पदमश्री ब्रहमदेव राम पंडित, धीरज चौधरी और श्यामल रॉय समेत 26 मूर्धन्य कलाकारों ने शिरकत की थी।
पटना के बहुद्देशीय सांस्कृतिक परिसर में 04-09 जून, 2017 तक प्रदर्शित कलाकृतियां
इस दस दिवसीय टेराकोटा महोत्सव के दौरान मुझे गुप्ता ईश्वरचंद को दिन-रात सृजन करते देखने और उनकी रचना प्रक्रिया को महसूस करने का अवसर मिला था। निश्चित रूप से मेरे लिए यह अनोखा और अविस्मरणीय पल था। महोत्सव के दौरान श्री गुप्ता का उत्साह देखते ही बन रहा था। मात्र दस दिनों के दौरान उन्होंने विभिन्न लोक देवी-देवता और जटायु विरह-विलाप श्रृंखला के तहत दस आकर्षक एवं विलक्षण मूर्तियों का निर्माण किया। जब उनके द्वारा निर्मित नमूनों को पटना के बहुदेशीय सांस्कृतिक परिसर में 04-09 जून, 2017 तक प्रदर्शित किया गया तो उन्हें आम लोगों विशेषकर कला प्रेमियों एवं समीक्षकों ने खूब सराहा था। इस सफलता से उत्साहित होकर मैंने गुप्ता ईश्वरचंद के मार्ग-दर्शन में मधुबनी के स्थानीय जे.एन. कॉलेज में जुलाई, 2017 से टेराकोटा के स्थायी प्रशिक्षण कार्यक्रम की योजना तैयार की। लेकिन तब तक ईश्वरचंद पर सनकपन सवार हो चुका था। उन्होंने प्रशिक्षण शुरू करने से पूर्व ही शर्तों की झड़ी लगा दी। परिणाम-स्वरूप उनके पुर्नवास हेतु प्रशिक्षण की यह योजना अधूरी रह गयी थी। उसके बाद से ईश्वरचंद गुमनामी के अंधेरे में खो गए। अर्द्धनग्न अवस्था में ही दिनभर मधुबनी की सड़कों का चक्कर लगाया करते थे। कोई उन्हें ‘पागल‘ या ‘सनकी‘ समझता था तो कोई ‘भिखारी‘ या ‘फकीर‘। इस त्रासदपूर्ण स्थिति में ही 04 जून, 2023 को उनका निधन हो गया और हम सिर्फ देखते रह गए। ईश्वरचंद जी को मेरा और इस कृतघ्न बिहारी समाज का सलाम।