“जलम” जैसे आयोजन के निहितार्थ

जलम यानी “जबलपुर आर्ट एण्ड लिट्रेचर फेस्टिवल-22” में सहभाग के बाद अपने ठिकाने पर अपनी वापसी परसों ही हो चुकी है। किन्तु मन अभी भी जबलपुर की स्मृतियों और अंबर दंपत्ति के आतिथ्य में रमा हुआ है। साथ ही यह सवाल भी कहीं न कहीं घुमड़ रहा है कि ऐसे आयोजनों को किस रूप में देखा जाए? क्योंकि हम देख रहे हैं कि कोरोना की त्रासदी से हमारा कला समाज लगभग उबर चुका है। आए दिन देश के किसी न किसी हिस्से में कला से जुड़े आयोजन हो रहे हैं। कला दीर्घाओं की रौनक भी लौट चुकी है, दिल्ली जैसे महानगर में एक बार फिर से रोजाना कहीं न कहीं कला प्रदर्शनी का उद्घाटन हो रहा है। दूसरी तरफ आजादी का अमृत महोत्सव भी अपना देश मना रहा है, ऐसे में सरकारी स्तर पर भी लगातार आयोजन हो रहे हैं। जिनमें कुछ सार्थक तो बहुत कुछ खानापूर्ति वाले भाव से आयोजित किए जा रहे हैं। वैसे भी मार्च नजदीक आते-आते वित्तीय वर्ष की समाप्ति से पहले की व्यस्तता बढ़ ही जाती है। जाहिर है इसके पीछे के भाव और भावना से हम सभी लगभग परिचित ही हैं।
भेड़ाघाट भ्रमण
तो देश भर में होनेवाले कला आयोजनों की भव्यता से अगर तुलना करें तो जबलपुर का यह आयोजन किसी को भले ही छोटा सा आयोजन लगे। किन्तु आत्मीयता का जो भाव इससे जुड़े आयोजकों ने प्रदर्शित किया, वह अन्यत्र सहज-सुलभ नहीं है। विगत दशकों में कला एवं संस्कृति के प्रति बरती जा रही सरकारी उदासीनता और महत्वपूर्ण कला संस्थाओं की अकर्मण्यता अब जगजाहिर हो चुकी है। मेरा शुरू से यह मानना रहा है कि जबतक व्यक्ति, समाज और सत्ता अपनी कला-संस्कृति के प्रति सजग नहीं होगा। किसी एक के बूते इसका उन्नयन संभव नहीं है। बहरहाल ‘जलम’ हमारे उन बहुत सारे सवालों के जवाब के तौर पर अब हमारे सामने है। साथ ही मुझ जैसे लोगों के लिए यह एक संदेश भी है, कि सिर्फ सरकार और समाज की उदासीनता का रोना रोते रहना कोई उपाय नहीं है। इस अरण्य रोदन से कुछ भी सार्थक होनेवाला नहीं है, न सरकारें जागेंगी और न सत्ता को कोई फर्क पड़ेगा। क्योंकि उनके लिए कला-संस्कृति के विकास जैसी बातें सिर्फ चुनावी घोषणाओं से अधिक कोई मायने नहीं रखता। यानी सिर्फ और सिर्फ जुमलाबाजी। ऐसे में आश्चर्य होता है कि हम जैसो से उम्र में अपेक्षाकृत युवा कलाकार दंपत्ति विगत सात वर्षों से यह सब कर रहे हैं। जो कला अकादमियों के बस की बात अब नहीं रह गई है।
बाएं से सुमन सिंह, सीरज सक्सेना, पीयूष ठक्कर, अखिलेश, भूपेंद्र अस्थाना, डॉ. ज्योतिष जोशी, डॉ. राजेश व्यास एवं वरिष्ठ कलाकार रघुबीर अम्बर
देश के बहुत सारे शहरों की बात करें तो वहां कला, साहित्य, संगीत और रंगमंच से जुड़े लोग वर्षों से सक्रिय तो हैं। किन्तु अधिकांश जगहों पर इनके बीच आपसी समन्वय और संवाद की कमी सी ही दिखती है। जबकि आवश्यकता इस बात की है कि कला एवं साहित्य के इन विभिन्न रूपों के आपसी सहकार को ज्यादा से ज्यादा बढ़ावा मिले। अगर जलम के इस महोत्सव से प्रेरणा लेकर हमारा समाज अपने-अपने स्तर से अपने नगर और कस्बों में इस तरह के आयोजन को अपनाए, तो सही मायनों में यह एक महत्वपूर्ण कदम होगा। कार्यक्रम के दौरान देश के विभिन्न हिस्सों से पहुंचे कलाकारों, कवियों एवं कलाविदों के व्याख्यान तो हुए ही, आपसी जान-पहचान और समन्वय की नींव भी पड़ी। जिन्हें हम सिर्फ उनके लेखों और विचारों से जानते थे। उनसे व्यक्तिगत तौर पर भी सुपरिचित होने का सुअवसर बना। जिन कवियों की कविताएं हमें प्रभावित करती थीं, उन्हें मंच से सुनना और भी सुखद था। रोजाना संध्या में आयोजित संगीत कार्यक्रम और साथ में बच्चों के नाट्य प्रदर्शनों ने भी इस कार्यक्रम को समृद्धि प्रदान की। इसके अलावा देश के विभिन्न हिस्सों से आए कलाकार साथियों को एकसाथ चित्र रचते हुए देखने और उनसे संवाद का अवसर भी आयोजन का एक महत्वपूर्ण पक्ष था। कला एवं साहित्य से जुड़ी पुस्तकों के स्टाल से कुछ ऐसी पुस्तकों की खरीद का अवसर भी बना जिसके लिए बहुधा हमें किसी पुस्तक मेले का इंतज़ार करना पड़ता है।
किन्तु मेरे लिए सबसे सुखद था वरिष्ठ कलाकार रघुबीर अंबर जी का सान्निध्य और आशीर्वाद। मेरे लिए यह बात लगभग कल्पना से भी परे था कि कोई व्यक्ति अपनी कला की पढाई के दौरान कुछ संकल्प लेता है। और उसके बाद करीब तीन से चार दशकों तक एक इंजीनियर के नाते कला गतिविधियों से लगभग दूर रहते हैं। और फिर सेवानिवृति के बाद उस संकल्प को पूरा करने में जुट जाते हैं। फलत: हमारे सामने आता है महाकवि कालिदास की अमर रचना मेघदूत का हिन्दी छंदबद्ध पद्यानुवाद तेइस चित्रों सहित। ‘मेघदूतम्’ शीर्षक यह पुस्तक इस आयोजन की एक ऐसी महत्वपूर्ण उपलब्धि है जिस पर गर्व होना स्वाभाविक है।
व्याख्यान सत्र का सञ्चालन करते शिवम् दुबे
इन सब उपलब्धियों के साथ अगर इस आयोजन से जुड़े वालंटियर समूह की चर्चा न हो तो सबकुछ अधूरा रह जाएगा। व्यक्तिगत तौर पर मेरा यह पहला अनुभव था कि जिस किसी चीज की आवश्यकता आप महसूस करें, तुरंत उपलब्ध हो जाए। एक उदाहरण से आप इसे समझ सकते हैं, 28 दिसम्बर की सुबह आयोजकों की तरफ से भेड़ाघाट जाने के लिए बस की व्यवस्था की गई थी। यह सेवा राज्य पर्यटन विभाग द्वारा उपलब्ध कराई गई थी। इस भ्रमण के लिए विशेष तौर पर भोपाल से इस विभाग के एक वरिष्ठ अधिकारी आए थे। किन्तु कई कलाकार साथी उस दिन इस भ्रमण में शामिल नहीं हो पाए। अलबत्ता दूसर-तीसरेे दिन कई मित्रों ने जब वहां जाने की इच्छा जताई, तो आयोजकों द्वारा तुरंत उपलब्ध कराया गया। कला आयोजनों में मुझे एक कमी हमेशा खलती रही कि हम कला और पुरातत्व में समन्वय स्थापित नहीं कर पाते हैं। मेरे लिए यहां यह सुखद आश्चर्य था जब आयोजन स्थल पर पहुंचते ही डॉ. शिवाकान्त वाजपेयी, निदेशक, भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण एवं उनके सहकर्मी शिवम दूबे से मुलाकात होती है। पता चला कि शिवाकान्त जी जहां एक परिचर्चा के वक्ता हैं और शिवम दूबे के जिम्मे एक सत्र का संचालन भी है। हालांकि कार्यक्रम में जाने से दो दिन पहले ही भाई शिवम दूबे का उलाहना भरा स्वर मेरे मोबाइल पर गूंज चुका था कि- आप क्या समझे कि आप जबलपुर आएंगे और मुझे खबर नहीं होगी।
बहरहाल बातें तो बहुत सी हैं किन्तु अभी बस इतना ही कि विनय और सुप्रिया के साथ-साथ उनके तमाम मित्रों और युवा वालंटियरों की  टीम को आभार सहित हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं। स्थानीय कला महविद्यालय के इन युवा छात्र-छात्राओं के दल ने वालंटियर के तौर पर जो अभुतपूर्व समर्पण और कर्तव्य परायणता दिखाई, वह बेमिसाल तो है ही। आने वाले सुनहरे भविष्य की सुंदर-सुखद तस्वीर भी है। मंगलकामनाएं अगले आयोजन के लिए अभी से ही…
-सुमन कुमार सिंह

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