कोविड की छाया में कला आयोजन !

बात बीते हुए साल की कला गतिविधियों की करें तो कमोबेश यह साल भी कोविड की भेंट चढ़ गया। अलबत्ता साल के अंतिम तीन-चार महीनों में कला गतिविधियों की कुछ सुगबुगाहट जरूर दिखी। भारत सरकार के स्तर पर देश के कई हिस्सों में राष्ट्रीय आधुनिक कला दीर्घा, नयी दिल्ली की पहल पर आज़ादी का अमृत महोत्सव मनाया गया। जिसके तहत कला कार्यशालाएं इत्यादि के आयोजन हुए। भोपाल स्थित रवीन्द्रनाथ टैगोर यूनिवर्सिटी ने अपने “विश्व रंग” कार्यक्रम के तहत कला, साहित्य एवं रंगमंच से जुड़े कार्यक्रमों का भव्य आयोजन किया। दूसरी तरफ निजी कला दीर्घाओं में एक बार फिर से कुछ रौनक दिखने लगी। किन्तु एक बार फिर इस कोविड के नए स्वरुप ओमीक्रॉन की आशंका हमारे सर पर है, आने वाले दिनों में यह क्या रंग दिखाता है कुछ कहा नहीं जा सकता है।

बहरहाल साल के अंतिम महीने यानी दिसंबर में संस्कारधानी कहलाने वाले मध्य प्रदेश के जबलपुर में 17/18 एवं 19 दिसम्बर 2021 को इत्यादि आर्ट फाउण्डेशन द्वारा आयोजित तीन दिवसीय छठवें जबलपुर आर्ट लिटरेचर एण्ड म्यूजिक फेस्टिवल का समापन हुआ। कला संगीत, साहित्य, रंगकर्म एवं सामाजिक तथा सांस्कृतिक विषयों के एक साथ संवाद की अवधारणा पर आधारित इस तीन दिवसीय फेस्टिवल में राष्ट्रीय चित्रकला प्रदर्शनी एवं राष्ट्रीय चित्रकला शिविर आयोजित किया गया जिसमें देशभर के 16 स्थापित युवा चित्रकारों ने शिरकत की। इसके तहत कोलकाता के संजय सामंत / रूपाली सामंत एवं प्रियंका चोधरी ने राष्ट्रीय सेरेमिक शिविर का संचालन किया। वहीँ जानीमानी नारीवादी कार्यकर्ता कमला भसीन को समर्पित अपने तरह के गंभीर विषय पर संवाद करने वाले फेस्टिवल में “कमला की चाह समानता की राह” विषय पर आयोजित संवाद गोष्ठी में सुरेश तोमर ( भोपाल), कृतिशर्मा (दिल्ली) जेल अधीक्षक नरसिंहपुर शेफाली तिवारी ने हिस्सा लिया। वहीँ “एलजीबीटी  समुदाय मुख्य धारा में” विषय पर संगोष्ठी में एनडीटीवी के एग्जिक्यूटिव संपादक प्रियदर्शन, दैनिक भास्कर जबलपुर के संपादक अजीत सिंह, अधिवक्ता अमित सिंह एवं मुंबई से आई देश की पहली महिला ट्रांसजेंडर फोटो जर्नलिस्ट जोया थोमस लोबों ने हिस्सा लिया । उल्लेखनीय बात यह भी रही कि इस आयोजन में म.प्र. शासन के पर्यटन विभाग की सहभागिता तो रही ही अपेक्षित सहयोग भी मिला।

इस अवसर पर आयोजित जोया के छायाचित्रों की प्रदर्शनी चर्चा का विषय रही। इस आयोजन में कविता पाठ का एक सत्र था जिसमें कानपुर के वीरू सोनकर, सीतापुर की प्रिया वर्मा,ग्वालियर के अमित उपमन्यु एवं जबलपुर के अरुण यादव ने कविता पाठ किया। कहानी सत्र में वीरू सोनकर कानपुर, राजेन्द्र दानी एवं पंकज स्वामी, जबलपुर ने अपनी कहानी का पाठ किया। इसके तहत वक्तव्य डॉ भारती का रहा। फेस्टिवल में चित्रकार विनय अंबर के बनाये कविता पोस्टरों की प्रदर्शनी आकर्षण का केन्द्र रही। संगीत संध्या में हुल्लास पुरोहित जयपुर का शास्त्रीय गायन, मुंबई के राणाप्रताप सेंगर एवं आशीष रावत की दास्ताने – चौबोली ( किस्सागोई ) एवं अन्तिम दिन पद्म श्री भारती बंधु रायपुर का कबीर गायन हुआ।


इस आयोजन में इत्यादि आर्ट फाउण्डेशन के संस्थापक चित्रकार संस्कृति कर्मी विनय अंबर , अध्यक्ष रंगकर्मी समर सेन, उपाध्यक्ष डॉ. भारती , सचिव चित्रकार सुप्रिया अंबर , सहसचिव छायाकार पंकज पारे एवं कोषाध्यक्ष प्रदेश के जाने माने चिकित्सक डाँ शैलेन्द्र सिंह राजपूत के साथ शासकीय जबलपुर कला महाविद्यालय के छात्रों की ऊर्जावान टोली में शामिल 50 युवाओं ने इस अनूठे फेस्टिवल को सफल बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका थी। इसके कला संवाद सत्र में जाने माने साहित्य एवं कला आलोचक ज्योतिष जोशी, कला समीक्षक एवं नाटककार रवीन्द्र त्रिपाठी एवं चित्रकार विनय अंबर ने “भारत में आधुनिक कला एवं भ्रम” विषय पर अपने विचार रखे। इस अवसर पर वेव पत्रिका “समालोचन” के संस्थापक संपादक अरुण देव को उनके द्वारा नये माध्यम में कला साहित्य सिनेमा के क्षेत्र में दिये गए उत्कृष्ट अवदान के लिए प्रथम “इत्यादि सम्मान “ प्रदान किया गया।

अपने एक आलेख में रवीन्द्र त्रिपाठी इस कार्यक्रम को कुछ यूं बयां करते हैं –

“जबलपुर में पिछले पांच बरसों से कलाकार दम्पति विनय अम्बर और सुप्रिया अम्बर की पहल से शुरू हुआ ‘जबलपुर लिटरेचर और म्यूजिक फेस्टिवल’ कई वजहों से नायाब समारोह है। एक तो इस कारण कि इसमें रूपांकर कला ,साहित्य और संगीत का मेल होता है। रूपांकर कलाओं में पेंटिंग, मूर्तिशिल्प, सेरामिक जैसी कई विधाएँ होती हैं, और संगीत में लोक संगीत से लेकर शास्त्रीय और उप- शास्त्रीय संगीत। कभी-कभार रणमंच का भी प्रतिनिधित्व होता है। कुछ साहित्येत्तर विषय भी होते हैं जैसे एलजीबीटी जैसे मुद्दों पर भी चर्चा होती है । दूसरी खास बात यह है कि कला से जुड़े कई मिथक भी यहाँ ध्वस्त होते हैं। जैसे इसी बार लोक संगीत के बारे में मिथक टुटा कि इसमें नवाचार नहीं होते और पुरानी चीज़ों की ही बार-बार पुनरावृति होती है। लेकिन बुंदेली लोक गायक जगदीश धर्मक के बुंदेली में गाए कबीर के कुछ पद नवाचार थे परंपरा के हिस्से नहीं । बुंदेली में कबीर गायन की कोई वैसी परंपरा नहीं है जैसी भोजपुरी या मालवी में रही है।  लेकिन धर्मक ने ‘जस ‘ शैली में गाते हुए कबीर के ऐसे पद पेश किये जो अति परिचित होते हुए भी आस्वाद में अनूठे थे । सहज ही निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि लोक परंपरा का गायन भी अपनी परंपरा से बाहर जाकर अपने को पुनराविष्कृत करता है। हो सकता है कि आगे चलकर बुंदेली या दूसरी लोक भाषाओँ में इस प्रयोग से प्रेरित होकर कुछ नया आए। सिर्फ कबीर को लेकर नहीं, बल्कि अन्य विषयों से संबंधित भी।”

दरअसल देखा जाए तो आज हमारे यहाँ इस बात की ज्यादा आवश्यकता है कि कला आयोजन के केंद्र बन चुके महानगरों से निकलकर, ऐसे आयोजन देश के विभिन्न हिस्सों में हों। हमारी आधुनिक कला तो पहले से ही महानगर केंद्रित रही है, लेकिन आज़ादी के बाद से तो हमने अपनी लोक कलाओं को भी महानगर केंद्रित बना दिया है। स्थानीय स्तर पर संरक्षण की कमी एवं बदलते जीवन-शैली की देन है कि हम अपनी लोक परम्पराओं से विमुख होते चले जा रहे हैं। तो मेरी नज़र में तो इस कलाकार दम्पति की इस पहल का अनुकरण होना ही चाहिए, और ऐसे अनेक समारोह देश के प्रत्येक शहर, गाँव व कस्बों की पहचान बनकर आने चाहिए।

आवरण: सुप्रिया श्रीवास्तव की कृति

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