एक निरंतर यात्रा जो विविध अनुभवों को मूर्तरूप देती है…..

श्रीधरानी आर्ट गैलरी, त्रिवेणी कला संगम, नयी दिल्ली में 21 से 30 अगस्त तक के लिए “पुनः परिचित” शीर्षक से अनिल गायकवाड़ की एकल प्रदर्शनी होने जा रही है। इस प्रदर्शनी में प्रदर्शित होनेवाली कलाकृतियों एवं अनिल की कला यात्रा पर प्रस्तुत है यह आलेख़….

अनिल गायकवाड़ हमारे समय के एक सुपरिचित कलाकार हैं। जिनकी कलाकृतियों नियमित तौर पर प्रदर्शनियों के माध्यम से दर्शकों के समक्ष आती रहती हैं। अनिल की रचना शैली की बात करें तो इसे हम अमूर्तन के तौर पर चिन्हित कर सकते हैं। देखा जाए तो हमारे यहाँ अक्सर बिना जाने -समझे अमूर्तन को अबूझ पहेली घोषित कर दिया जाता है। जबकि सच्चाई तो यह है कि अमूर्त कलाकृतियां अपने आप में सहज बोधगम्यता के मध्य एक खास तरह की रहस्यात्मकता से आवृत रहती हैं। मेरी समझ से मूर्त और अमूर्त का सबसे बड़ा फर्क तो यही है कि मूर्त कलाकृतियों को देखते समय आप उनमें चित्रित आकृतियों या रूपाकारों से पहले से ही लगभग परिचित होते हैं, जबकि अमूर्तन की स्थितियों में ऐसा नहीं ही होता है। अलबत्ता अमूर्त शैली की कलाकृतियों में हमारा सामना परिचित रूपाकारों के बजाए लगभग अपरिचित रूपाकार और रंगानुभूति से होता है। माना जाता है कि रूप का ज्ञान जहां प्रयास के फलस्वरूप हासिल होती है, वहीं रंगानुभूति दृष्टिपटलीय नाड़ियों की संवेदनशीलता से आती हैं। रूप को किसी पुस्तक की भांति आसानी से पढ़ा जा सकता है, जबकि रंग का केवल अनुभव किया जा सकता है। इसलिए कहा गया है कि रंग की हमारी अनुभूति इन्द्रियजन्य होती है, जबकि रूप की बुद्धिजन्य। वस्तुत: रूप में हम बहुधा अपने परिचित आकारों या चिन्हों को तलाशते हैं, ऐसे में जब किसी कलाकृति में हमें ऐसा नहीं दिखता तब हम अपनी सुविधा के लिए उसे अमूर्त मान लेते हैं।

दरअसल सच तो यह है कि किसी भी कलाकृति का जन्म कलाकार द्वारा अर्जित अनुभव की कोख से ही होता है। अक्सर जिसे हम कलाकार की कल्पना कहते हैं या मान लेते हैं वह दरअसल कलाकार द्वारा संचित अनुभव या दृश्यों की प्रतिकृति या पुनर्प्रस्तुति ही होती है। कला रचना की प्रक्रिया में होता यह है कि कलाकार अपने संचित अनुभवों में से किसी महत्वपूर्ण अनुभव को चुन लेता है और उसके बाद जब वह सृजन की दैविक क्षमता से दीप्त होकर सृजनरत होता है तो अपनी अवधारणाओं को कलाकृति का रूप देता है। हालांकि इस क्रम में ऐसा भी हो सकता है कि उस कलाकार का सृजन कई बार उसके अनुभव के सदृश्य ही अभिव्यक्त हो पाता हो अथवाा नहीं भी। क्योंकि निरंतर सृजनरत रहने की एक आवश्यकता यह भी रहती है कि प्रत्येक रचना के बाद कलाकार को यह अहसास रहे कि वह जो कहना चाहता है या चाह रहा था बह पूरी तरह अभिव्यक्त नहीं हो पाया है। अपनी अभिव्यक्ति का यही अधूरापन वाला अहसास उसे एक और फिर एक और रचने को बाध्य किए रहता है। अनिल की कलाकृतियां मुझे हमेशा इसी एक और, एक और वाले जिद या जुनून की देन लगती है।

इनकी चित्र-श्रृंखलाओं को अगर आप गौर से देखें तो लगता है कि किसी धारावाहिक की अगली कड़ी के मानिन्द पिछली कलाकृति का कोई सिरा उनकी अगली कलाकृति से जुड़ता चला जाता है। इन चित्रों को देखकर लगता है कि अपने बहुरूपी अनुभवों में से चुन-चुनकर अनिल गायकवाड़ ने ऐसी कृतियों का सृजन किया है जो दर्शक या प्रेक्षक को अपने चमत्कारिक नवीनता से ओतप्रोत करती है। चित्रों की रचना के क्रम में अनिल रंगों के प्रवाह को कुछ इस तरह से नियंत्रित करते हैं, जो सायास सा अहसास दिलाते हैं। जबकि यह उनकी अतिरिक्त दक्षता की देन है कि रंगों का आकस्मिक बहाव भी यहां सुचिंतित व सुनियोजित से लगने लगते हैं। इसे सहज शब्दों में कहा जा सकता है कि अनिल अपनी कलाकृतियों में किसी अल्हड़ नदी के बहाव को अपने अनुरूप या मनोनुकूल बनाकर पेश कर देते हैं।

किसी चित्र या कलाकृति को देखने के क्रम में अक्सर ऐसा होता है कि हम उसकी तुलना प्रकृति में व्याप्त रंगों और रूपाकारों से करने लगते हैं। जबकि सच्चाई तो यह है कि कलाकृति का सौंदर्य प्रकृति में सन्निहित उसकी मूल प्रति से बहुधा भिन्न ही रहा करता है। अब होता यह है कि किसी दर्शक के पास जहां प्रकृति को जैसा है जहां है, को स्वीकारने के अलावा अन्य कोई विकल्प नहीं होता । वहीं किसी कलाकार की कलाकृति को निरखते-परखते वक्त दर्शक उसे स्वीकारने या खारिज करने के लिए स्वतंत्र होता है। क्योंकि किसी कलाकृति को वह तभी स्वीकार करेगा या करता है जब वह उस दर्शक की सौंदर्य क्षुधा को तृप्त कर सके। इसीलिए जब कोई कलाकार अपनी प्रदर्शनी के माध्यम से दर्शकों से रूबरू होता है, तब उसके सामने दर्शकों या कलाप्रेमियों की सौन्दर्य क्षुधा को तृप्त करने की चुनौती तो होती ही है। जाहिर है यहां यह चुनौती अब अनिल गायकवाड़ के समक्ष भी है, ऐसे में मुझे पूरी उम्मीद है कि अनिल की कलाकृतियां हर बार की तरह इस बार भी सुधि कलाप्रेमियों को आकर्षित और प्रभावित करेंगी ही।

अनिल गायकवाड़ की कलाकृतियों का जो पक्ष विशेष उल्लेखनीय है, वह है उनका रंग संयोजन। लाल, हरा, पीला, नीला, धूसर, सफ़ेद एवं काला, कहने को सभी रंग यहाँ हैं, किन्तु अपने चटखपने के बजाय एक खास तरह की सौम्यता के साथ। अनिल अपने चित्रों की बुनावट के लिए ज्यामितीय प्रतीकों एवं आकारों को खूब अपनाते हैं। किन्तु इस क्रम में संयोजन की मौलिकता और अपने बिंदास अंदाज़ को वे बखूबी बरकरार रखते हैं।

“शैडो बिकम्स रियलिटी” श्रृंखला के अपने चित्रों में अनिल कहीं-कहीं रंगों के स्वच्छंद प्रवाह को जहाँ बचाए रखते हैं, वहीँ कैनवास के किसी बड़े हिस्से में सपाट धरातल का भी इस्तेमाल करते हैं। जाहिर है इस प्रक्रिया से कैनवास पर रंगों और आकारों का वह आरोह-अवरोह दृष्टिगत होता है, जो उनके चित्रों को एक सुखद सांगीतिक लयबद्धता से सराबोर कर देती है। मुझे भरोसा है कि अनिल गायकवाड़ की यह प्रदर्शनी उनके चाहनेवालों को तो आकर्षित- प्रभावित करेंगी ही, उन नए दर्शकों को भी सुखद चाक्षुष अनुभूतियों से अवश्य ओतप्रोत करेंगी; जो पहली बार इस कलाकार की कलाकृतियों से रूबरू होंगे। प्रदर्शनी की सफलता के लिए हार्दिक बधाई एवं अनंत शुभकामनायें…

-सुमन कुमार सिंह
कलाकार/कला लेखक

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