मूर्तिशिल्पी अमरेश कुमार की पुनरावलोकन प्रदर्शनी भाग-2
बिहार के चर्चित मूर्तिकार एवं बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में मूर्तिशिल्प के प्राध्यापक अमरेश कुमार की पुनरावलोकन प्रदर्शनी बिहार म्युजियम में 9 मार्च से 31 मार्च तक आयोजित की गई थी। इस पुनरावलोकन प्रदर्शनी का शीर्षक था ‘मोक्ष’। प्रदर्शनी की विस्तृत समीक्षा का दूसरा भाग प्रस्तुत है वरिष्ठ कला समीक्षक अनीश अंकुर की कलम से…….
Anish Ankur
घाट :
93/90/135 इंच के त्रिआयामी आकार में लकड़ी, तांबे की चादर, लोहा और फाइबर से बनी कृति है ‘घाट’। शीर्षक से जाहिर है बनारस के ‘घाट’ को अपने नजरिए से देखने का प्रयास किया गया है। इसे भी इसी वर्ष बनाया गया है। कलाकृति मुख्यतया दो हिस्से में बंटी नजर आती है। बनारस की घाटों पर सर्वत्र दिखाई पड़नी वाली छतरी को मोल्ड-कास्ट कर गोलाकार रखा गया है। ये छतरियां अमूमन बांस की बनी होती है। छतरी को ऊपर से तांबे की चादर का आवरण इस प्रकार प्रदान किया गया है कि छतरी के बांस का टेक्सचर साफ-साफ दिखे। बांस के साथ तांबे का उपयोग इसे धार्मिक और पौराणिक संकेत प्रदान करता है। छतरी को लम्बवत स्टैंड के सहारे खड़ा किया गया है। छतरी के सामने के हिस्से की सीढ़ीनुमा दो आकृतियों को डायग्नल रखकर कोण बनाते हुए संयोजित किया गया है। कोण की दोनों भुजाएं जहाँ मिलती हैं वहां संकरी गली के दर्शाया गया है।
‘घाट’ देखते हुए प्रेक्षक को यह प्रतीत हो सकता है कि सीढियां अंततः घाट पर जाकर छतरियों तक पहुंचना चाहती हैं। यह मूर्तिशिल्प अमरेश कुमार ने इस प्रकार बनाया है कि एक गति का सा अहसास होता रहे । सीढ़ियों को ऊपर उठते हुए देखने से भी गति का प्रभाव पैदा होता है। कुछ ऐसा मानो कोई व्यक्ति सीढियां चढ़ते हुए घाट के किनारे की बनी छतरी में कोई धार्मिक कृत्य संपन्न करने की ओर अग्रसर हो।
जलकुण्ड:
‘जलकुंड’ अमरेश कुमार का दो दशक पुराना काम है। दो वर्तुलाकार पत्थर को संयोजित कर उसके अन्दर कुण्ड को इस तरह से उत्कीर्ण किया गया है कि दर्शक की नज़रें सीढियों से होते हुए कुण्ड तक स्वभाविक रूप से जा सके। इसका आकार 15/15/25 इंच है। इस काम को उनके परवर्ती कृतियों से मिलाकर देखने पर एक फर्क समझ में आता है। बाद के कामों में अधिक स्पर्श संवेदना दिखती है।
पदचिन्ह :
‘पदचिन्ह’ नौ वर्तुलाकार आधारों का एक ऐसा समूह है जिसे आयताकार स्पेस में समान दूरी पर रखा गया है। इसकी बीच वाली संरचना के आलावा बाकी अन्य के ऊपर गोलाकार प्रस्तर शिल्प संयोजित हैं। प्रत्येक पत्थर का कुछ हिस्सा जहाँ विशेष चमक वाला है, वहीँ सभी में सीढ़ीनुमा संरचना है। यह रचना भी 2003 की है और सबों का आकार 13/95/95 इंच का है। इसे भी बाकी मूर्तिशिल्पों की तरह चुनार के बलुआ पत्थर से बनाया गया है। नौ कलाकृतियों के समूह के माध्यम से अमरेश कुमार ने पुरखों का प्राचीन पैरों के निशान की खोज को अपना विषय बनाया है। पुरखों के विस्मृत से चिन्ह देखने वाले के अंदर पुरातात्विक धरोहरों को देखने का सा अहसास कराते हैं।
पूर्णिमा :
2024 में लकड़ी और बलुआ पत्थर से निर्मित ‘ पूर्णिमा’ का आकार 68/36/12 है। लकड़ी के लंबे फ्रेम में पत्थर से बनी घाटनुमा आकृति तीन अलग- अलग हिस्सों में पैबस्त किया हुआ है। तीनों हिस्से एक दूसरे के ऊपर उर्ध्वाकार में रखे गए हैं। बीच वाले भाग में लगायी गयी धातु की गोल आकृति चन्द्रमा को इंगित करती है। वहीं पत्थरों की संरचना से चन्द्रमा की रौशनी में झिलमिलाती गंगा की लहरों का आभास देखने वाले को होता है । इस आकृति में भी बनारस के उनके अनुभव प्रकट हुए हैं । लकड़ी और पत्थर के टेक्सचर साथ चंद्रमा को रखकर अमरेश कुमार ने दर्शकों की कल्पना को हल्का कुरेदा है।
मोक्षद्वार :
इस पुनरावलोकन प्रदर्शनी में, दर्शकों का सर्वाधिक ध्यान आकृष्ट खींचने वाली कृति है ‘मोक्षद्वार’। इसे भी पत्थर और लकड़ी की सहायता से बनाया गया है। काष्ठ से निर्मित दरवाजे के चौखट के उपरी हिस्से को पादुकाओं से आच्छादित किया गया है। इन पादुकाओं के तल्ले पर बनारसी साड़ी के कपड़ों को चिपकाया गया है। बनारस का हिंदू धर्म और मिथक में विशेष स्थान रहा है। मरने पर मोक्ष प्राप्ति हेतु बनारस की इच्छा रखा करता है। ‘मोक्षद्वार’ इसी अध्यात्मिक आकांक्षा को अभिव्यक्त करता प्रतीत होता है। अपनी दुनियावी वस्तुओं को, जिसे पादुका से संकेतित किया गया है, दरवाजे पर छोड़कर मोक्ष प्राप्ति के लिए अंदर प्रवेश कर जाना है। यह कृति निवृत्ति की भावना पर बल देता है जिसके अनुसार इस जगत के दैनिंदिन सरोकारों के बदले किसी और दुनिया की चिंता में लगे रहने वालों को प्राथमिकता दी जाती है। रंगीन पादुकाएं दुनिया के रंगीनियों को प्रकट करती है जिससे त्याग करना मोक्ष का ध्येय माना जाता है। यानी मोक्षद्वार वह है जहां आप अपनी रंगीन दुनिया को पीछे छोड़ आगे बढ़ते हैं।
नास्टैल्जिया :
अमरेश कुमार की इस प्रदर्शनी में उनके द्वारा निर्मित यह सबसे पुरानी कृति है। 1995 में काष्ठ और बलुआ पत्थर से बने नास्टैल्जिया साइज 77/142/142 इंच है। पत्थरों के समूह से निर्मित अलग-अलग आकृतियाँ ग्रामीण जीवन के इस दौर की याद दिलाती है जब घर मिट्टी के बने हुआ करते थे। गांव के सामूहिक जीवन को, पेड़-पौधों से भरे माहौल को दर्शाने के लिए एक लकड़ी के पेड़ का उपयोग किया गया है।
‘नास्टैल्जिया’ यह बताती है कि गांव की दुनिया अब महज स्मृति में वास करती है। गांवों का संसार अब काफी बदल चुका है। इस परिघटना को अमरेश कुमार ने आज से लगभग तीन दशक पहले ही पकड़ लिया था तब शायद थोड़ा बहुत ग्राम्य जीवन बचा भी था। अमरेश कुमार ने उस प्रक्रिया को इस कृति में उतारा है जिसमें मिट्टी वाले घर अब सिर्फ हमारी यादों में बसे हैं। सभी अलग- अलग कृतियों का संयोजन अर्द्धचंद्राकार ढंग से इस प्रकार किया गया है जिससे एक समाज का अहसास देखने वाले को हो सके।
अर्घ्य :
धातू और बलुआ पत्थर से 2007 में बनी ‘अर्घ्य’ नामक कृति लोटे के आकार वाली है। लोटा को इस तरह रखा गया है मानो अर्घ्य प्रदान किया जा रहा हो। इस कलाकृति का आकार है 64/38/38। अर्घ्य प्रदान करते हुए इसे आयताकार पत्थर पर संयोजित किया गया है। पत्थर का रंग मानो जल का अहसास कराता प्रतीत होता है। लोटे के अंदर नदी के प्रवाह को अवस्थित करने की कोशिश की गई है। लोटे के अन्दर से बनारस की सीढ़ीनुमा घाट की छवि दर्शाई गई है। कांस्य से निर्मित लोटा हमारी सभ्यता की शुरुआती दौर का प्रतिनिधित्व करता है। वहीँ अल्युमुनियम के माध्यम से जल की जिस तरलता को व्यक्त किया गया है, वह हमारी प्रवाहमान परंपरा को अभिव्यक्त करता है। नदियों से आच्छादित भारत की विरासत में लोटा, जल और अपने आराध्य को जल देने की परिपाटी बेहद पुरानी रही है। अमरेश कुमार ने इस अवधारणा को इस कृति में आकार देने की कोशिश की गई। बहता जल मूर्तिकार को खास तौर पर आकृष्ट करता है।
अर्पण :
‘अर्पण ‘ 2015 में विभिन्न आकार के बने एक खास पकवान को पेपरमेसी में बनाया गया है। पूर्वांचल क्षेत्र में प्रचलित इस पकवान को ठेकुआ या टिकरी कहा जाता है। प्रदर्शनी में पेपरमैसी से बना यह एकमात्र काम है। पूर्वांचल में छठ व्रत के मौके पर यह लगभग सभी घरों में बड़े शौक से बनाया जाता है। कई जगह बेटी की विदाई के समय भी इसे भेजने की परिपाटी है। इसे आटा, गुड़ या चीनी के मेल से बनाया जाता है। ढेर सारे ठेकुआ ( टिकरी) से बने इस संयोजन में अमरेश कुमार ने एक बड़े आकार के ठेकुआ को केंद्र में रखकर उसके इर्द-गिर्द छोटे-छोटे साइज वाले टिकरी को संयोजित किया है। छोटे-बड़े आकारों वाले ठेकुआ को धागे के सहारे लटकाया गया है। कत्थई रंग के ठेकुआ से बना यह पूरा दृश्य संयोजन यह पूरा एक विशेष चाक्षुष प्रभाव छोड़ता है। बिहार और पूर्वी प्रदेश से जुड़ा यह पकवान वैसे तो सभी वर्गों में पसंद किया जाता है । यह एक मल्टी क्लास डिश माना जाता है जो बिहार की खाने-पीने के सांस्कृतिक पहचान से भी जुड़ गया है।
अपनी तमाम अच्छाइयों के बावजूद अमरेश कुमार की इस पुनरावलोकन प्रदर्शनी की एक प्रमुख कमजोरी यह है कि उनके पुराने काम लगभग नदारथ है। एक पुनरावलोकन प्रदर्शनी से यह उम्मीद की जाती है कि कलाकार की विकास यात्रा से प्रेक्षक को परिचित होने का मौका मिल सकेगा। प्रदर्शनी में अधिकांश कृतियां इसी वर्ष की बनायी गयी प्रतीत होती हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि प्रदर्शनी की घोषणा के बाद कलाकार ने तैयारी शुरू की है। कुछ काम अवश्य थोड़े पुराने हैं पर सन् 2000 के पूर्व का बहुत कम काम इस प्रदर्शनी का हिस्सा है। एक दो को छोड़कर पहले के काम लगभग नहीं है। जो कुछ पुराने काम हैं भी उनमें ज्यादातर ‘गर्भगृह’ श्रृंखला के हैं। इस शीर्षक से 2024 में बनी उनकी कृतियों में उनके पुराने कार्यों का ही विस्तार दिखता हैं। प्रदर्शनी में जो एक ही किस्म की पारंपरिक छवियां और प्रचलित बिंबों हावी नजर आते हैं उसमें बदलाव आता यदि प्रारंभिक कृतियां भी शामिल रहतीं। दर्शक कलाकार के विविध संसार से गुजर पाता । कलाकार को खुद भी इस पुनरावलोकन प्रदर्शनी को लेकर थोड़ा संजीदा होना चाहिए था और सचेत रूप से अपने पहले के कामों को शामिल करना चाहिए था। इससे प्रेक्षक को कलाकार के रचना संसार से समग्रता में समझने में सहूलियत होती।
अमरेश कुमार का जो सृजन संसार है उसमें आधुनिक थोड़े कम हैं या कहें लगभग नहीं के बराबर हैं। ग्रामीण जीवन, उसके सरोकार, उसकी संस्कृति उसके छूटते चले जाने का मोह उनके यहां छाया हुआ है। जो व्यतीत हो चुकी दुनिया है वह नौस्टेलजिया बन कर मूर्तिकार को हांट करता सा प्रतीत होता है।
वरिष्ठ मूर्तिकार नागजी पटेल ने कहीं पर कहा है कि हमलोगों के वक्त में छवियां बहुत मौजूद थीं, इमेजेज का सीमित संसार था। जबकि आज एक कलाकार के समक्ष उसके पास विविध और व्यापक छवियां हैं। अमरेश कुमार बहुत सीमित छवियों से काम चलाते हैं। अर्बन लाइफ उनके यहां लगभग एक सिरे से गायब हैं। अर्बन की आपाधापी में रूरल की स्मृति उन्हें परेशान करता है। बार-बार हर बनाई छवि में वह धीरे से चली आती है।
अमरेश कुमार पत्थर में स्पर्शबोध बेहद उन्नत है। इससे वे संवेदना जगाते प्रतीत होते हैं। साथ ही पत्थर के अंदर स्पेस का बढ़िया सेंस का अंदाजा ‘गर्भगृह’ में उनके प्रयोगों से देखा जा सकता है। पत्थर के स्वभाव को, उसके अंदर की कोमलता, उसकी कठोरता को अमरेश कुमार बखूबी समझते हैं। साथ ही उसके अंदर से अपनी मनचाही मूर्ति को निकाल लेने की जो तकनीकी दक्षता है वह प्रेक्षक को कायल बनाती है। हां विषय वस्तु के स्तर पर एक प्रेक्षक को बहुत विविधता नहीं मिल पाती। बोकारो से लेकर बनारस तक की उनकी यात्रा और उनके अनुभव इनकी रचना प्रक्रिया का अभिन्न हिस्सा हैं। उनकी प्रदर्शनी से गुजरते हुए प्रेक्षक को ऐसा महसूस होता है कि वह अपने पीछे छूट गई संसार में फिर से विचरण करना चाहते हैं।
सभी फोटो : रंजीत कुमार
One Reply to “मोक्ष : पीछे छूट चुके संसार का मोह”
बिहार म्यूजियम में मैंने पहली बार सर का काम इतना बेहतर किये हैं और सर का जब अपने भाषण में हर बात का तथ्यों दे रहे थे तब मुझे लगा कि इतने संघर्ष में भी सर इतना बड़ा काम कर रहे हैं आप गर्व हैं सर मैं आपके दर्शन किये मुझे बहुत गर्व है। ये ही मेरे लिए काफी है। ☺
बिहार म्यूजियम में मैंने पहली बार सर का काम इतना बेहतर किये हैं और सर का जब अपने भाषण में हर बात का तथ्यों दे रहे थे तब मुझे लगा कि इतने संघर्ष में भी सर इतना बड़ा काम कर रहे हैं आप गर्व हैं सर मैं आपके दर्शन किये मुझे बहुत गर्व है। ये ही मेरे लिए काफी है। ☺