“Fragile Terrains : प्रकृति, स्मृति और मानव की छाप”

मनुष्य सभ्यता की यात्रा जितनी प्रगति की दास्तान है, उतनी ही विस्थापन की भी कथा है। आज विकास के नाम पर हम जो कुछ गढ़ रहे हैं, वही धीरे-धीरे हमारे अस्तित्व पर प्रश्नचिह्न अंकित कर रहा है। जंगलों की हरी साँसें मशीनों के शोर में घुल रही हैं, नदियों की लहरें औद्योगिक धूल में थम रही हैं, और शहरों का फैलाव स्मृति, संस्कृति तथा संवेदना की मिट्टी को सूखा रहा है।

इन्हीं विसंगतियों और विडंबनाओं के बीच “Fragile Terrains” एक कलात्मक प्रतिरोध के रूप में उभरती है — यह केवल एक प्रदर्शनी नहीं, बल्कि एक चिंतन-यात्रा है, जो दर्शक को बाहरी दृश्य जगत से भीतर के अनुभवों की ओर ले जाती है। यह यात्रा वहाँ पहुँचाती है, जहाँ मनुष्य, प्रकृति और स्मृति एक-दूसरे में घुल-मिलकर भी अपनी स्वतंत्रता को बनाए रखते हैं।

इस प्रदर्शनी की सातों आवाज़ें — सात युवा कलाकार — अपने माध्यमों के विविध आयामों में एक साझा संवाद रचते हैं। यह संवाद है उस धरती के निशानों का, जिन्हें मनुष्य ने समय और संवेदना की मिट्टी में उकेरा है। उनके कार्य यह प्रश्न उठाते हैं कि क्या विकास का अर्थ केवल निर्माण है, या विनाश भी उसका अविभाज्य हिस्सा बन गया है?

यह प्रदर्शनी कला, पर्यावरण और चेतना के त्रिकोणीय धरातल पर रची गई एक संवेदनात्मक संरचना है। इसमें न कोई घोषणात्मक आग्रह है, न शोरगुल — केवल एक गहरी प्रतिध्वनि है जो दर्शक के भीतर उतरती है। कलाकारों की दृष्टियाँ भिन्न हैं, पर उनकी अंतर्धारा एक है — मानव और प्रकृति के बीच बदलते रिश्तों का आत्मालोचन।

कला का जीवंत भूगोल :

संदीप किंडो की “गृहप्रवेश” हाथियों के विस्थापन की मौन त्रासदी को दिखाती है। उनके लिथोग्राफ हमें छत्तीसगढ़ के जंगलों की उस दुनिया में ले जाते हैं जहाँ कोयला खदानों ने वन्यजीवन की प्राचीन पगडंडियों को तोड़ दिया है। उनके कार्य विकास और अस्तित्व के बीच झूलते प्रश्नों को स्याही की भाषा में दर्ज करते हैं।

रामू मारडू की “Urban Fantasy–II” शहरी फैलाव का चित्र नहीं, उसका व्यंग्य है। उनके कैनवास पर बकरियों के साथ उगते कंक्रीट के ढाँचे यह बतलाते हैं कि जीवित रहना अब केवल जैविक नहीं, बल्कि शहरी अनुकूलन की कला बन गया है।

अर्चना सिन्हा की वुडकट रचनाएँ ग्रामीण स्त्री-जीवन की संवेदना को बारीकी से उकेरती हैं — मिट्टी से जुड़ी वह शक्ति जो हर श्रम में कविता खोज लेती है। उनके पात्र मौन हैं, पर उनमें जीवन की गूंज स्पष्ट सुनाई देती है।

संदेश खूले की रचनाओं में “प्लस” चिन्ह एक दार्शनिक प्रतीक बन जाता है — संतुलन, आशा और अनंत सृजन का। उनके ज्यामितीय रूप कला और आध्यात्मिकता के बीच सेतु बनाते हैं — यह स्त्री-ऊर्जा, धैर्य और सृजनशीलता की दृश्य व्याख्या है।

पूर्वी शुक्ला की अमूर्त दीवारें समय की परतों को अपने भीतर समेटे हैं। वे दीवारें केवल सीमाएँ नहीं, बल्कि स्मृति के अभिलेख हैं — उन पर जमी हुई दरारें समय की धड़कनों की तरह बोलती हैं।

आशीष बोस की मूर्तियाँ ‘सुनने’ की नैतिकता पर केंद्रित हैं। एक सामान्य वस्तु में कान का आकार जोड़कर वे उसे संवेदनशील संवाद का प्रतीक बना देते हैं। उनका प्रश्न सीधा है — “क्या हम सुनने की ज़िम्मेदारी निभा रहे हैं या केवल सुनने का अभिनय कर रहे हैं?”

कौशलेश कुमार की श्वेत-श्याम रचनाएँ मानवीय सभ्यता की यात्रा को यांत्रिकता के दर्पण में दिखाती हैं। उनके कार्यों में बहती रेखाएँ और ठोस ज्यामिति मिलकर यह दृश्य रचती हैं कि कैसे प्रकृति के जैविक स्वरूप को उद्योगों की गति ने कठोर बना दिया है। उनकी कलाकृतियाँ सभ्यता के विकास में छिपे पतन की सौंदर्यपूर्ण चेतावनी हैं।

संवेदना का साझा बिंदु :

इन सातों कलाकारों की कृतियाँ मिलकर एक दृश्य-गान रचती हैं, जहाँ जंगल, शहर, दीवारें और आकृतियाँ – सब अपने अस्तित्व की लड़ाई में जीवित हैं। प्रदर्शनी इस तथ्य को पुनः रेखांकित करती है कि कला केवल सौंदर्य की खोज नहीं, बल्कि समय की आत्मा को पढ़ने का माध्यम भी है।

“Fragile Terrains” हमें यह एहसास कराती है कि हर स्मृति, हर छाप, हर रचना इस धरती की साझा कहानी का हिस्सा है। यह प्रदर्शन केवल चित्रों का संकलन नहीं, बल्कि हमारी चेतना का मानचित्र है — एक ऐसा दृश्य संवाद जहाँ प्रकृति, मनुष्य और समय के संबंध नए अर्थ ग्रहण करते हैं।

यह प्रदर्शनी हमारे समय के उस असंतुलन की गूंज है, जहाँ विकास की चमक के पीछे पर्यावरण की पीड़ा छिपी है। यहाँ कला, संवेदना का वह माध्यम बन जाती है जो मौन में भी संवाद करती है, स्थिरता में भी गति रचती है।

  • स्थान : स्टेट आर्ट गैलरी, हैदराबाद
  • 10–14 अक्टूबर 2025 | 11 AM – 7 PM
  •  In Continuum: ITHAKAA, ललित कला अकादमी, नई दिल्ली — जनवरी 2025

✍️ कैटलॉग भूमिका : मनीष पुष्कले — वरिष्ठ चित्रकार एवं कला-चिंतक

“Fragile Terrains” हमें आमंत्रित करती है सोचने, देखने और पुनः अनुभव करने के लिए —
कि क्या हम सचमुच सृजन कर रहे हैं, या अपने ही अस्तित्व की जमीन खोद रहे हैं।
यह प्रदर्शनी कला नहीं, चेतना का दस्तावेज़ है —जहाँ हर रेखा, हर छाया, हर स्मृति — धरती की पीड़ा का बिंब बनकर हमारे भीतर उतरती है।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *