लगभग सात दशक की अपनी कला यात्रा में बादल जी ने जिस सृजन संसार को सिरजा, उससे रूबरू होना किसी भी कला प्रेमी के लिए सुखद अहसास है। उनका यह रचना संसार वैविध्य पूर्ण तो है ही, निरंतर प्रवाहमान भी बना रहा है। ग्राम्य जीवन की छटा बिखेरते आकृतिमूलक चित्रों से लेकर अमूर्त चित्र भाषा की अबूझ पहेलियाँ भी उनके सृजन का आधार रही हैं। उनके कैनवास जहाँ चटख रंगों की आभा से ओतप्रोत हैं, तो वहीँ कुछ अन्य चित्रों में सहज और सौम्य रंगों का प्रवाह भी मौजूद है। इतना ही नहीं उनके चित्रों में अगर स्त्री सौंदर्य निरूपित हुआ है तो सामाजिक विद्रूपताओं और विरोधाभासों पर चोट से किसी तरह का परहेज भी यहाँ नहीं है। बल्कि देखा जाए तो दृढ़ता से उसका प्रतिकार यहाँ स्पष्ट दृष्टिगत है। उनके चित्रों में अगर बंगाल की पुनर्जागरण शैली की झलक है तो ज्यामितीय रूपाकारों का संयोजन भी। यथार्थवादी रचनाएँ हैं तो आकृतियों का डिस्टॉरसन यानी विरूपण भी। उनके यहाँ एक तरफ समकालीन कला मुहावरों का प्रयोग दीखता है तो वहीँ लोक कलाओं वाली सहजता और अनगढ़ता भी मौजूद है। उन्होंने अगर तैल रंगों से दर्जनों व्यक्ति चित्र बनाये तो छापा चित्रण सा अहसास लिए अमूर्त चित्र रचनाएँ भी की। मिटटी से खेलते हुए मूर्तियां बनायीं तो काष्ठ उत्कीर्णन में भी हाथ आजमाया। बांस की बेढब जड़ों में छुपे सौंदर्य बोध को पहचान कर उजागर किया तो बेकार समझे जाने वाले पत्र-पत्रिकाओं के पन्नों का कोलाज बनाकर उसे कैनवास की तरह बरता भी। अपने आरंभिक दिनों की कलाकृतियों में उन्होंने मछुआरिन, नाई, हलवाहा, शृंगाररत युवती और माता -शिशु की आकृतियां उकेरी तो बाद के वर्षों में गुजरात के दंगे से उपजे दर्द को भी उनके चित्रों में अभिव्यक्ति मिली।
बात चित्रण शैली की करें तो उनके शुरुआती चित्रों में बंगाल शैली की प्रमुखता है, देखा जाये तो उस दौर के अकादमिक शिक्षा में वाश, टेम्परा और जलरंग दृश्य चित्रण को प्रमुखता दी जाती थी। अलबत्ता पोर्ट्रेट एवं लाइफ स्टडी के मामले में कला शिक्षण की ब्रिटिश परंपरा का निर्वाह किया जाता था। यहाँ यह जानना आवश्यक होगा कि ब्रिटिश औपनिवेशिक काल में अपने देश में कला शिक्षा की जो शुरुआत हुयी, उसका रोल मॉडल रॉयल कॉलेज ऑफ़ आर्ट का पाठ्यक्रम ही था। किन्तु बीसवीं सदी की शुरुआत में बंगाल स्कूल के अस्तित्व में आने के बाद, कला विद्यालयों में पूरब की कला के नाम पर वाश एवं टेम्परा जैसी शैलियों को जगह मिली। कला विद्यालय पटना की स्थापना के शुरुआती वर्षों की शिक्षण पद्धति का जो विवरण आज उपलब्ध है। उसके आधार पर तो यही स्पष्ट होता है कि शिक्षक के तौर पर बटेश्वर नाथ श्रीवास्तव के जुड़ने के बाद; बंगाल की वाश शैली और यूरोप की आधुनिक कला शैली दोनों का समावेश यहाँ की कला शिक्षा में हुआ। विदित हो कि श्रीवास्तव जी लखनऊ कला महाविद्यालय के छात्र रह चुके थे, जो उन दिनों वाश शैली का एक महत्वपूर्ण केंद्र बन चूका था। वहीँ अपनी विदेश यात्रा से वापसी के बाद बटेश्वर बाबू अपने छात्रों को पश्चिमी कला मुहावरों को अपनाने के भी लिए प्रेरित करने लगे थे। कुछ इसी का परिणाम है कि बादल जी के समकालीन चंद कलाकारों की कृतियों में पूरब और पश्चिम की चित्रण शैली का समावेश है। यह अलग बात है कि नए प्रयोगों को लेकर जो उत्साह बादल जी में दिखता है, वह उनकी पीढ़ी के अन्य कलाकारों में लगभग दुर्लभ ही है।
इसके बाद की उनकी कलाकृतियों को हम विवेचना की दृष्टि से मुख्यतः तीन भागों में रख सकते हैं। जिनमें एक है ज्यामितीय रूपाकारों के संयोजन वाली कृतियां तो वहीँ दूसरे प्रकार में मानवीय आकृतियों के विरूपण (डिस्टॉरसन) वाली कृतियों को रखना श्रेयस्कर होगा। वहीँ तीसरी श्रेणी उन कलाकृतियों की रखी जा सकती हैं जो विशुद्ध अमूर्त की श्रेणी में आती है।
अब ज्यामितीय रूपाकारों के संयोजन वाली कृतियों की बात करें तो यहाँ पॉल क्ली, जॉन मीरो व वस्सिली कान्दिस्की के रूपाकारों साथ- साथ कोशी अंचल की लोक कलाओं में व्यवहृत ज्यामितीय प्रतीक भी समाविष्ट हैं। कुछ यही अहसास उनके डिस्टॉरशन वाली कृतियों में है, एक चेहरे के ऊपर दूसरा चेहरा तो कभी एक ही चेहरे में छुपा दूसरा चेहरा भी सामने आता है। तो होता यह है कि जब आप पहली बार इस तरह की किसी कलाकृति को देखते हैं तो वहां आपको एक या दो चेहरे नज़र आएं किन्तु थोड़ी देर बाद आपको उन चेहरों से झांकता कोई तीसरा चेहरा या अन्य रूपाकृति भी नज़र आने लग सकता है। इसे आप चाहें तो आज की शब्दावली में पजल या पहेली कह सकते हैं, किन्तु सौंदर्य शास्त्र की दृष्टि से यहाँ नित नूतन वाला सौंदर्य बोध नज़र आता है। दरअसल किसी कलाकृति का यह नित नूतन वाला भाव ही उस कलाकृति को अर्थपूर्ण गुणवत्ता प्रदान करता है, जो शायद कलाकार का अभीष्ट भी रहा होगा। वैसे तो हम जानते हैं कि हमारी कला परम्परा में अगर एक तरफ नागरी कला है तो वहीँ दूसरी तरफ है लोक कला।
नागरी कला से हमारा आशय उस कला परम्परा से है जो नगरों में पनपी और पली। दूसरे शब्दों में कहें तो यह राजसत्ता व धार्मिक सत्ता के संरक्षण में विकसित होती चली गयी। कतिपय इन्हीं कारणों से हमारी यह नागरी कला ज्यादातर कथाओं व मिथकों का रूपायन है। जिसका परिणाम यह हुआ कि आज भी हमारा सामान्य जनमानस चित्रों या कलाकृतियों में उससे जुड़ी कहानियां ढूंढने लगता है। तो चित्रों को देखने की इसी परंपरा की देन है कि अक्सर दर्शक, कलाकार से यह पूछ बैठते हैं कि आपने क्या बनाया है? या इस कलाकृति में आप कहना क्या चाहते हैं ? क्योंकि उनको लगता है कि बिना किसी कथा या गाथा के चित्रों का महत्व कम हो जाता है, जबकि यह ऐसी गलत परंपरा है जिसमें सारा जोर चित्रों की व्याख्या पर चला जाता है। और रंग, रूपाकार व चित्र-संयोजन जैसे कला के मूल तत्व उपेक्षित रह जाते हैं। ऐसे में यह सवाल उठ सकता है कि आखिर होना क्या चाहिए? तो मेरी समझ से उचित तो यही है कि हमें रंग-रेखाओं में छुपे सौंदर्य बोध को महसूसने या समझने की दृष्टि विकसित करनी होगी। जिसकी पहली जरुरत तो यही होगी कि चित्रों में किसी कथानक की तलाश या आकृतियों की वैयक्तिक पहचान से इतर हटकर, चाक्षुष तृप्ति या संतुष्टि की आदत डालनी होगी। अभिप्राय यह कि अगर कोई कलाकृति या चित्र अगर हमारे आँखों को प्रीतिकर लग रहा है तो उसे अंगीकार करना होगा। वहीँ अगर कलाकृति में व्यक्त कोई भाव हमारे मन मस्तिष्क को उद्वेलित कर रहा है, तो उस पर चिंतन-मनन करना होगा। मसलन अगर किसी चित्र में किसी युवती की सुंदरता को दर्शाया गया है, तो हमारी प्राथमिकता यहाँ उस सौंदर्य के निरूपण में कलाकार की दक्षता को स्वीकारने या अस्वीकारने की होनी चाहिए। आशय यह कि अगर कलाकार ने अपेक्षित दक्षता से उसे चित्रित किया है तो वह सराहनीय होना चाहिए, और अगर इसमें कलाकार कहीं चूक सा गया हो तो मानना चाहिए कि अभी उस कलाकार की साधना में कुछ कमी सी रह गयी है।
बात कलाकृतियों में चित्रित वैयक्तिक पहचान वाली आकृतियों की करें तो इसकी एक श्रेणी तो वह है जिसे हम व्यक्ति चित्रण कहते हैं। जिसके तहत किसी व्यक्ति विशेष के पोर्ट्रेट को हम रखते हैं, तो वहीँ इस श्रेणी में कुछ ऐसी आकृतियां भी आती हैं जिसे हम किसी चरित्र विशेष से जोड़कर ही देखने के आदि हैं। मसलन राधा-कृष्ण, राम लक्ष्मण सीता या राम दरबार अथवा महाभारत जैसे ग्रंथों में वर्णित चरित्र। तो श्री बादल के जिन चित्रों में स्त्री-पुरुष या युवक-युवतियों का निरूपण है, वह इस तरह के किसी वैयक्तिक पहचान से इतर हैं। यानी आप अपनी समझ से उसे चिन्हित कर सकते हैं।
उनके विशुद्ध अमूर्त कलाकृतियों की बात करें तो ऐसी रचनाओं में रंगों का संयोजन और छाया-प्रकाश का संतुलन बादल की निरूपण दक्षता को भली-भांति सामने लाता है। वह अपेक्षित दक्षता जो वर्षों के अभ्यास या साधना से ही संभव है, और यही यहाँ दिखता भी है। अलबत्ता उनके कुछ चित्रों में उनका वह खिलंदड़ापन भी मुखरित हुआ है, बचपन में जिसकी वजह से किसी ने उन्हें टोका था कि क्या बादल की तरह इधर-उधर भटकते रहते हो। इस ताने ने उस बाल मन को कुछ इतना प्रभावित किया कि युवा आनन्दी प्रसाद ने अपने नाम के साथ उस ‘बादल’ को जो जोड़ा; वह ताउम्र की पहचान बन गयी। आज तो हालत यह है कि आनन्दी प्रसाद कहने से लोग शायद ही पहचान पाएं, किन्तु ‘बादल जी’ कहते ही बिहार वासियों के सामने उनका वही चेहरा होगा – श्वेत केशराशि वाले उम्र से बुजुर्ग किन्तु उत्साह और जज्बे से युवा वाला। बिहार म्यूजियम द्वारा आयोजित उनकी इस पुनरावलोकन (रेट्रोस्पेक्टिव) प्रदर्शनी के माध्यम से कला जगत उनकी इस सुदीर्घ कला यात्रा से वाकिफ तो होगी ही युवा और नवोदित कलाकारों को निरंतर सृजनशील रहने की प्रेरणा भी मिलेगी। ऐसा मेरा विश्वास है।
– सुमन कुमार सिंह