बिहार म्यूजियम बिनाले 2025, पटना में आयोजित, 7 अगस्त 2025 से 31 दिसंबर 2025 तक चलने वाला एक प्रमुख कला-सांस्कृतिक समारोह है। इस तीसरे संस्करण का विषय है “Global South: Sharing Histories”, जिसमें एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका से संग्रहालयों, कलाकारों व संस्थाओं ने भाग लिया है। इस आयोजन का उद्देश्य संग्रहालयों की भूमिका को पुनः परिभाषित करना है और वैश्विक दक्षिण के देशों के ऐतिहासिक, कलात्मक व सामाजिक संवाद को बढ़ावा देना है। प्रतिभागी देशों में मेक्सिको, ईथियोपिया, पेरू, कजाकिस्तान, इंडोनेशिया और श्रीलंका शामिल हैं। इस Biennale ने पटना को एक अंतरराष्ट्रीय सांस्कृतिक महफ़िल का रूप दिया है, जहाँ आधुनिक कला, परंपरागत हस्त-कलाएँ और संग्रहालय संवाद एक साथ पटल पर आती हैं। इस आलेख में कला समीक्षक अनीश अंकुर बयां कर रहे हैं, इंडोनेशिया की भागीदारी को I -संपादक
अनीश अंकुर
इंडोनेशिया – भारत: महासागर पार गूंजती प्रतिध्वनियाँ-1
तीसरी दुनिया के देश विश्व रंगमंच पर लगातार दावेदारी पेश कर रहे हैँ। अमूमन इंग्लैण्ड – अमेरिका के दबदबे वाले कला संसार में विकासशील (जिसे ग्लोबल साउथ भी कहा जाता है) कहे जाने वाले देशों की दावेदारी निरंतर बढ़ती जा रही है। तीसरे बिहार म्युजियम बिनाले (जिसे इस बार ‘ग्लोबल साउथ: शेयर्ड हिस्ट्री’ का नाम दिया गया है) में इसे महसूस भी किया जा सकता है।
दक्षिण-पूर्व एशिया के प्रमुख देश इंडोनशिया की प्रदर्शनी ने पटना के कलाप्रेमियों के साथ-साथ आम दर्शकों का भी खूब ध्यान आकृष्ट किया है। भारत और इंडोनेशिया के बीच पिछले दो हजार सालों से गहरे सांस्कृतिक और ऐतिहासिक रिश्ते रहे हैं। यह रिश्ता हमारी भाषा, परंपरा और इतिहास में साफ दिखाई देता है। भारत और इंडोनेशिया के बीच संबंध केवल पिछले 75 वर्षों के औपचारिक राजनैतिक संबंधों तक सीमित नही है बल्कि यह एक ऐसा गहरा और समृद्ध बंधन है जो दो सहस्राब्दियों से इतिहास, संस्कृति और मूल्यों की नींव पर टिका हुआ है।
इंडोनेशिया की इस प्रदर्शनी को संभव बनाने में नई दिल्ली स्थित इंडोनेशिया के भारतीय दूतावास तथा इंडोनेशिया के संस्कृति मंत्रालय ने अपनी भूमिका निभायी।
इंडोनेशिया द्वीपों वाला दुनिया का सबसे बड़ा देश है। लगभग 17,000 से भी ज्यादा द्वीप हैं इंडोनेशिया में। भारत और इंडोनेशिया समुद्र के रास्ते सीधे पड़ोसी हैं। भारत का अंडमान और निकोबार द्वीप समूह, इंडोनेशिया के आचे प्रांत के सबांग द्वीप से सिर्फ 160 किलोमीटर दूर है।
भारत और इंडोनेशिया के रिश्ते समय के साथ लगातार मजबूत हुए हैं। दोनों उपनिवेशवाद के खिलाफ एक साथ लड़े। 1955 में साम्राज्यवाद के खिलाफ तीसरी दुनिया के नवस्वाधीन देशों का ऐतिहासिक बांगडूंग सम्मलेन आज भी ग्लोबल साउथ के लिए प्रेरणास्रोत बना हुआ है। तब इन्डोनेशिया के राष्ट्रपति सुकर्णाो और भारत के प्रधानमंत्री नेहरू ने मिलकर गुटनिरपेक्ष आंदोलन की नींव रखी थी। उस जज्बे की समकालीन दुनिया में प्रासंगिकता आज भी बनी हुई है।
भारत और इंडोनेशिया के गहरे रिश्ते को समझाने के लिए प्रदर्शनी का विषय ‘सभ्यताओं का संगम’ रखा गया है। यह लंबे समय से चले आ रहे संबंधों और समृद्धि का उत्सव है। ये रिश्ते समुद्री व्यापार मार्गों, मंदिरों की वास्तुकला, इंडोनेशियाई भाषा में संस्कृत शब्दों के प्रयोग तथा रामायण-महाभारत की सतत विरासतों से मजबूत हुए हैं।
इंडोनेशिया – भारतः सभ्यताओं का संगम
हिंद महासागर ने दोनो देशों को व्यापार, परम्पराओं और सांस्कृतिक आदान-प्रदान के ज़रिए जोड़े रखा है। रामायण और महाभारत जैसी कहानियों ने भी इस संबंध को मज़बूत किया है। इस तरह, लोगों के आवागमन, अनुभव और मेल से एक गहरा सांस्कृतिक रिश्ता तैयार हुआ है। जैसा कि भारत में इन्डोनेशिया की राजदूत सुश्री इना कृष्णमूर्ति ने बताया ‘‘हमें उम्मीद है कि यह प्रदर्शनी अतीत की समझ को गहरा करेगी, और दोनो देशो के बीच वर्तमान और भविष्य मे अधिक सहयोग को प्रेरित करेगी।’’
इंडोनेशिया की यह प्रदर्शनी हिन्दू धर्म के मिथकों और गाथाओं से भरी पड़ी है। वहां के कलाकारों ने रामायण और महाभारत के पात्रों और प्रसंगों को ध्यान में रखकर कलाकृतियों का निर्माण किया है। इसके साथ ही इंडोनेशिया के वस्त्रों आदि को भी प्रदर्शित किया गया है। प्रदर्शनी में रामायण के प्रमुख पात्र राम, हनुमान, सीता के साथ-साथ महाभारत में पांचों पांडवों को देखा जा सकता है। इंडोनेशिया में राम, सीता और अर्जुन जैसे महाकाव्य के पात्रों की कहानियाँ सिर्फ याद नहीं किये जाते अपितु सांस्कृतिक जीवन का भी अविभाज्य हिस्सा हैं।
रामायण-महाभारत के आख्यान नृत्य, चित्रकला और कपड़ों के ज़रिए रोजमर्रा की जिंदगी में रची-बसी हैं। पवित्र ग्रंथों की कहानियाँ आज भी जीवित हैं- नृत्य की हर चाल, वस्त्र की हर बुनावट और रूप की हर अभिव्यक्ति में। वे वायांग कुलिट की छाया कठपुतलियों की चमक में, बाटिक की डिज़ाइनों में और हाथ से बनाए गए तोपेंग मुखौटों की अभिव्यक्ति में दिखती हैं।
इंडोनेशिया में भक्ति केवल मंदिरों तक सीमित नहीं है अपितु वहां की दैनिक जीवन की लय में अंतर्निहित है। सम्पूर्ण द्वीप और संस्कृति के भाव, रीति और रिश्तों में पवित्रता झलकती है। एक नर्तकी जब फूल बिखेरती है या एक पुजारी जब पवित्र जल (तीर्थ) थामे होता है-हर क्रिया भक्ति से भरी होती है।
इंडोनेशिया में महाकाव्यः जीवित परंपराएँ
लोरो ब्लोन्यो : सद्भाव और घरेलू आशीर्वाद के प्रतीक
जावा के योग्यकार्ता प्रांत में बनी एक प्रसिद्ध मूर्ति है ‘लोरो ब्लोन्यो’। ‘लोरो ब्लोन्यो’ का मतलब होता है ‘सुशोभित युगल’। वर-वधू की आकृतियां जावा की पारंपरिक मूर्तियाँ हैं। इस मूर्ति को नक्काशीदार सेंगोन की लकड़ी (अल्विजिया चिर्नेसिस) से बनाया गया है। कमर के उपर लगभग वस्त्रहीन पर कमर के नीचे हरे व गुलाबी रंग के वस्त्र पहने इस युगल की मूर्ति मनभावन बन पड़ी है। युवक के माथे पर पारंपरिक टोपी है।
ये मूर्तियाँ घर में सुख-शांति, प्रजनन क्षमता, और अच्छे जीवन की कामना का प्रतीक मानी जाती हैं। इनकी प्रेरणा पुराने समय के शाही दरबार योग्यकार्ता और सुरकार्ता से ली गई है। ये मूर्तियां चावल की देवी माने जाने वाली देवी श्री और उनके पति सादीनी से प्रेरित हैं जिन्हें जीवन और समृद्धि का रक्षक माना जाता है। शांत और सुडौल नजर आने वाली इस मूर्ति पर हिंदू और बौद्ध परंपराओं में बने उन दिव्य जोड़ों की याद दिलाते हैं जो संतुलन और ब्राह्मंडीय एकता के प्रतीक माने जाते हैं। सजावट की वस्तु के बजाए इन्हें परिवार की आध्यात्मिक रक्षा करने वाला माना जाता है। ऐसी मान्यता है कि इन्हें घर में रखने से समृद्धि, स्थिरता और एक पवित्र ऊर्जा बनी रहती है।
पेंडेट नृत्यांगना : भक्ति में गरिमा
सन 1970 के दशक में इंडोनेशिया के बाली प्रांत की बनी आबनूस की लकड़ी (डायीस्मायरोम मैलेविका) को तराश कर बनाई गई कृति है ‘पेडेट नृत्यांगना’। कत्थई रंग की लकड़ी की यह मूर्ति ‘पेंडेट’ नृत्य करती हुई एक बालिनी नृत्यांगना की है। यह मूल रूप से देवताओं को अर्पित की जाने वाली एक भेंट थी। नृत्यांगना दोनों हाथों में फूल लिए है और उसके भावों में गरिमा, श्रद्धा और शांति दिखाई देती है।
कभी केवल मंदिरों में किये जाने वाले इस नृत्य को आज अभिवादन नृत्य के रूप में देखा जाता है, जिसमें दर्शकों का स्वागत किया जाता है और आत्माओं को प्रदर्शन का आनंद लेने के लिए आमंत्रित किया जाता है। आज भी इसकी जड़ें उन हिंदू परंपराओं में दिखाई देती हैं जी भारत से हजार साल पहले इंडोनेशिया पहुंची थी। मूर्ति की शांत मुद्रा और संतुलित नृत्य भंगिमाएँ जो बारीक नक्काशी में दिखती हैं। यह मूर्ति न सिर्फ इंडोनेशिया की गहरी आध्यात्मिक विरासत का सम्मान करती है, बल्कि भारत और इंडोनेशिया के बीच सदियों से चली आ रही सांस्कृतिक संबंधों को भी सम्मान देती है।
पवित्र जल के साथ बालिनी पुजारी: एक आनुष्ठानिक संरक्षक
इंडोनेशिया के बाली प्रांत में नक्काशीदार महोगनी लकड़ी (स्वेटेनिया महोगनी) से 1978 में बनी है यह कृति। यह लकड़ी की मूर्ति एक बालिन पुजारी (पेमांगकू) को दिखाती है जो अपने हाथ में तीर्थ जल का पात्र पकड़े हुए इस जल का इस्तेमाल रोजमर्रा और विशेष धार्मिक अनुष्ठानों में शरीर और मन को शुद्ध करने के लिए करती है। हालांकि प्रदर्शित मूर्ति में एक दरार सी नजर आती है जो संभव है आने-ले जाने के दौरान टूटने से हो गयी हो। मूर्ति के चेहरे पर एक शांति नजर आती है I
इंडोनेशियाई मान्यता के अनुसार पेमांगकू एक आध्यात्मिक मार्गदर्शक होता है जो इंसानों और अदृश्य शक्तियों के बीच सेतू का काम करता है और पवित्र अनुष्ठानों के जरिए संतुलन बनाए रखता है। सुंदर ढ़ंग से बनी यह मूर्ति बाली की जीवंत हिंदू परंपराओं को दर्शाती है जो भारत के प्रचीन दर्शन से प्रभावित है।
यह मूर्ति भक्ति, अनुशासन, और ब्रह्मांडीय संतुलन जैसे उन बातों की झलक देती है जो भारत और इंडानेशिया की सांस्कृतिक विरासत को आपस में जोड़ती है।
गरूड़ पर विराजमान विष्णु: बालीनी परंपरा में शक्ति और संतुलन का प्रतीक
गरूड़ विष्णु केंकाना: पवित्र रक्षक और दिव्य वाहन
बाली परंपरा में भगवान विष्णु जो गरूड़ पर विराजमान हैं, ब्रह्मांड के संतुलन, रक्षा और कर्तव्य के प्रतीक माने जाते हैं। यह कथा भारत के प्राचीन महाकाव्यों पर आधारित है और सांस्कृतिक आदान-प्रदान के जरिए समुद्र पार कर बाली पहुँचे जहाँ इसे धार्मिक कला के रूप में नया जीवन मिला। यह लकड़ी की मूर्ति गरूड़ विष्णु की प्रसिद्ध केंकाना प्रतिमा की झलक प्रस्तुत करती है जिसमें आध्यात्मिक भाव और बारीक कला का सुंदर मेल है।
यह नक्काशीदार मूर्ति आबनूस की लकड़ी (डायोस्पायरोस सेलेविका) से निर्मित है। गरूड़ से संबंधित कथा को चित्रित करती यह कृति रामायण के एक नाजुक प्रसंग को सामने लाती है। गरूड़ के चेहरे से उस हिंसक भिड़ंत का अंदाजा हो जाता जिससे गरूड़ को गुजरना पड़ा था। मूर्ति को एकशन के दरम्यान बनाया गया है ताकि प्रेक्षक उस कथा से भी वाकिफ हो सके। गरूड़ के पंख, उसके फैलाव उसपर बैठे विष्णु सबको बेहद बारीकी से बनाया गया है। मूर्ति प्रभावी बन पड़ी है I
इंडोनेशियाई समाज के लिए गरूड़ सिर्फ एक पौराणिक वाहन नहीं बल्कि शक्ति और स्वतंत्रता का प्रतीक भी है- जिसे इंडोनेशिया के राष्ट्रीय चिन्ह में भी देखा जा सकता है। यह मूर्ति भारत और इंडोनेशिया के बीच उस गहरे रिश्ते की मिसाल है जहां भारतीय कथाओं की जड़ें और बालीनी शैली मिलकर समर्पण और अस्मिता को साझा करती हैं।
बाटिक में राम और सीता: मोम और रंगों में बसी एक कहानी
1996 में बनी यह कृति सूती कपड़े पर हाथ से बनाया गया बाटिक गर्म मोम और प्राकृतिक रंगों का उपयोग कर के एक लकड़ी के फ्रेम में जुड़ा हुआ है।
यह बाटिक कला इंडोनशिया के छाया नाटक वेयांग कुलित की शैली में राम और सीता को दिखाता है। इसे गर्म मोम और प्राकृतिक रंगों से बनाया गया है, जिसमें पारंपरिक बाटिक कला की बारीकी और गहराई दिखाई देती है। राम धर्म ( सही रास्ते ) के प्रतीक हैं और सीता निष्ठा, गरिमा और शक्ति की। रामायण की यह कहानी जो पीढ़ियों से सुनाई जा रही है, प्यार, न्याय और पारिवारिक सम्मान जैसे मूल्यों को दर्शाती है। बाटिक में इन कहानियों को केवल याद नहीं किया जाता -इन्हें पहना जाता है, आगे बढ़ाया जाता है और जीवन में अपनाया जाता है।
2009 में यूनेस्को ने इंडोनेशियाई बाटिक को विश्व की महत्वपूर्ण सांस्कृतिक विरासत के रूप में मान्यता दी थी।
राम और हनुमान : नेतृत्व व निष्ठा के प्रतीक
इसी साल नक्काशीदार और पेंट की गयी लकड़ी, कपड़ा, कांच के मोती, सिंथेटिक फाइबर और वाटिक वस्त्र की मदद से बनी आकर्षक कठपुतली है ‘राम और हनुमान’। वैयांग गोलोक की ये दो मूर्ति रामायण के दो सबसे प्रमुख पात्र- राम और हनुमान- को प्रदर्शित करती है जैसा कि पश्चिम जावा की रॉड कठपुतली कला में इसे दर्शाया जाता है। राम यहां धीर –गंभीर नेतृत्व और धर्म का पालन करने वाले एक आदर्श राजा के प्रतीक हैं जबकि हनुमान निडर भक्ति और साहस के प्रतीक हैं। बारीक नक्काशी और कई परतों वाली कपड़े विरोधाभास व सामंजस्य दोनों को अभिव्यक्त करते हैं। जैसे एक तरफ नेतृत्व है तो दूसरी ओर सेवा भाव। मंच पर जब उन्हें प्रस्तुत किया जाता है तो वे सिर्फ नाटक के पात्र ही नहीं होते बल्कि नैतिक मार्गदर्शक की भूमिका निभाते हैं। उनका स्वरूप और साथ प्रस्तुत संगीत कथाओं को जीवंत कर देती है।
बाली प्रांत में 1990 में बनी कृति कमासन कला: बालिनी परंपरा में रामायण की झलक
सूती कपड़े, प्राकृतिक रंगद्रव्य और बांस के फ्रेम से बनी यह चित्रकला बाली के कमासन गांव की पारंपरिक शैली में कपड़े पर बनाई गयी है जो वहां की सबसे पुरानी शास्त्रीय कला परंपरा से जुड़ी है। इसे प्राकृतिक रंगों और विशेष ब्रश से तैयार किया गया है। यह चित्र रामायण के दृश्यों को दर्शाता है – एक ऐसा महाकाव्य जिसे बाली की संस्कृति और आस्था ने अपनाया और अपनी शैली में नया रूप दिया है।
राम, सीता हनुमान और रामायण जैसे पात्र चित्र में बहाव और संतुलन के साथ उभरते हैं जो निष्ठा, संघर्ष और ब्रह्मांडीय संतुलन जैसे जीवन मूल्यों को दर्शाते हैं। पारंपरिक रूप से ये चित्र मंदिरों और महलों के मंडपों की दीवारों पर लगाए जाते थे, जहां वे केवल सजावट नहीं बल्कि धार्मिक शिक्षा का माध्यम भी होते थे। कमासन चित्रकला एक धर्मग्रंथ की तरह जो पवित्र कथाओं की सुंदरता, अनुशासन और भक्ति को संजो कर रखने का एक तरीका है।
वेयांग क्लिटिक तिकड़ी : लकड़ी की आकृतियों में रामायण की जीवंत गूंज/ प्रतिध्वनि
इंडोनेशिया के मध्यजावा प्रांत में 2023 में किसी अज्ञात कलाकार द्वारा बनी कृति में लकड़ी, बांस की छड़ें, रंगद्रव्य और राल का उपयोग किया गया है। जावानीस परंपरा में बनी ये तीन लकड़ी की आकृतियाँ-राम, सीता और हनुमान-रामायण के प्यारे व लोकप्रिय पात्रों को दर्शाते हैं। एक ऐसा महाकाव्य जो इंडोनेशिया के स्थानीय दर्शन, जीवन और प्रदर्शन कला में गहराई से रचा-बसा है। वेयांग कुलित की छाया कठपुतलियों से अलग, वेयांग क्लिटिक में कठपुतलियाँ सपाट होती हैं और उन्हें सामने से पूरी रोशनी में दिखाया जाता है, जिससे उनके नक्काशीदार आकार और रंग-बिरंगे चित्र स्पष्ट नजर आते हैं।
इन पात्रों की कहानियाँ वेयांग क्लिटिक प्रदर्शन के दौरान गैमेलन संगीत की मधुर लय में प्रस्तुत की जाती हैं, जिससे ये केवल मनोरंजन नहीं, बल्कि नैतिक शिक्षाओं का माध्यम बन जाती हैं। ये मूर्तियाँ उन शाश्वत मूल्यों को अपने भीतर समेटे हुए हैं, जो प्रेम, न्याय और कर्तव्य के लिए एक जीवंत मार्गदर्शन प्रदान करती हैं। वेयांग क्लिटिक रामायण को केवल एक कहानी नहीं, बल्कि जीने का एक तरीका बना देता है।
पांडव और द्रौपदी : पवित्र भाईचारे की झलक
पश्चिम जावा प्रांत के बांडुंग में बनी कृति को बनाने का साल 2025 अंकित है। इसे बनाने में प्रयुक्त सामग्रियों में है नक्काशीदार और पेंट की गयी लकड़ी, कपड़ा (बाटिक, ब्रोकेड, मखमल), धातू के मोती और लकड़ी का बेस।
यह वेयांग गोलेक कठपुतली समूह जिसमें भीम, द्रौपदी, युधिष्ठिर, अर्जुन, नकुल और सहदेव शामिल हैं- महाभारत की कहानी पर आधारित है जैसा कि यह सुंदानी रॉड कठपुतली नाट्य शैली में दिखाया जाता है। ये कठपुतलियाँ हाथ से बनाई गई हैं और सुंदर कपड़ों से सजाई गई हैं। हर पात्र किसी एक विशेष गुण का प्रतीक है- जैसे शक्ति, ज्ञान, निष्ठा या गरिमा। वैयांग गोलेक सिर्फ मनोरंजन नहीं, बल्कि यह आत्मा से जुड़ी कहानी कहने की एक कला है। इसमें संगीत, संवाद और गहरे नैतिक संदेश शामिल होते हैं। ये कठपुतलियाँ भारतीय महाकाव्य और सुंदानी लोककला के बीच एक सेतु का काम करती हैं और सदियों से अच्छे गुणों और आपसी भाईचारे को बढ़ावा देती हैं। यहाँ ये पात्र सिर्फ कहानियों के नहीं, बल्कि आदशों के प्रतीक माने जाते हैं जो लकड़ी, कपड़े और उनके हाव-भाव के माध्यम से जीवंत हो उठते हैं।
यह इंडोनेशियाई प्रदर्शनी पटनावासियों के लिए एक सुःखद अनुभूति की तरह था। रामायण-महाभारत के किस्सों, कहानियों पर बनी अधिकांश कृतियों से जुड़े आख्यान से परिचित रहने के कारण उन्हें अच्छा लग रहा है। परन्तु यदि कोई गैर भारतीय इस प्रदर्शनी को देखेगा तो चित्रों व मूर्तियों से संबंधित कथाओं से परिचित न होने के बावजूद कृतियों की कलात्मक उपलब्धियों के कारण उसे पसंद करेगा।