‘ग्लोबल साऊथ : शेयर्ड हिस्ट्रीज’-3

“भारत : इंडोनेशिया — महासागर पार प्रतिध्वनियाँ”, बिहार संग्रहालय बिनाले 2025 का एक विशिष्ट खंड है, जो भारत और इंडोनेशिया की प्राचीन समुद्री, सांस्कृतिक और कलात्मक संपर्क परंपराओं को उजागर करता है। यह प्रदर्शनी साझा मिथकों, मूर्तिकला, बौद्ध प्रभाव और समुद्री व्यापार की स्मृतियों को समकालीन दृष्टि से पुनर्पाठित करती है। वरिष्ठ कला समीक्षक अनीश अंकुर प्रस्तुत कर रहे हैं इस प्रदर्शनी की आँखों देखी –संपादक

अनीश अंकुर
  • भारत : इंडोनेशिया : महासागर पार प्रतिध्वनियां -2 

इंडोनेशिया की संस्कृति सदियों से समुद्र के रास्ते हवा, व्यापार और आस्था के साथ फैली है। तीर्थयात्रियों, व्यापारियों और नाविकों के साथ पवित्र कथाएँ और कलाएं इन द्वीपों मे फैलीं। सुमात्रा का शाही बाटिक और सोंगकेट, जावा का चीनी प्रेरित तटीय बाटिककृहर वस्त्र इतिहास के मेलजोल को दर्शाता है।

भारतीय, इस्लामी और चीनी प्रभाव इन कपड़ों में सिर्फ सजावट नहीं बल्कि पहचान, विश्वास और सामाजिक स्थिति की कहानियाँ बुनते है। बुगिस कारीगरों की बनी पिनिसी नौकाएँ द्वीपों और विचारों को जोड़ती थी और श्रीविजय-नालंदा जैसे संग्रह हमें भारत और इंडोनेशिया के बीच आध्यात्मिक संबंध दिखाते हैं।

ये सभी उदाहरण दिखाते है कि कैसे विश्वास और शिल्प समुद्र के रास्ते एक संस्कृति से दूसरी तक पहुँचे और एक साझा विरासत रचते चले गए। आस्था का नौकायन, विरासत का ताना-बाना अर्थ से बुना हुआ और समुद्र द्वारा ले जाया गया I

पालेमबांग के सुनहरे धागे : सोंगकेट की परंपरा 

दक्षिण सुमात्रा प्रांत में रेशम, कपास और घात्विक सोने के धागे से बनी इसी कृति को 2025 में ही बनाया गया है। रेशम और कपास में सोने के धागों से बुना यह सोंगकेट वस्त्र कभी शाही दरबारों और पवित्र अवसरों का हिस्सा था। इसकी परंपरा श्रीविजय काल से जुड़ी है जिसने इंडोनेशिया को भारत से जोड़े रखा है। कमल और आकाशीय आकृतियाँ न केवल सौंदर्य, बल्कि आध्यात्मिकता और सांस्कृतिक मेल का प्रतीक हैं। सोंगकेट एक कपड़ा भर नहीं यह पीढ़ियों से चली आ रही है तथा पहचान, आस्था और कला की विरासत है।

पिनिसी : इंडोनेशिया की समुद्री सभ्यता की विरासत

इंडोनेशिया के दक्षिण सुलावेसी प्रांत के कलाकार द्वारा नक्काशीदार महोगनी लकड़ी (स्विएटेनिया महोगनी) का उपयोग कर हस्तनिर्मित कृति बनाई गयी है। दक्षिण सुलावेसी के बुगिस और मकासर लोगों द्वारा हस्तनिर्मित पिनिसी स्कूनर, समुद्री कौशल की सदियों की विरासत का प्रतिनिधित्व करता है। बिना कीलों के बने ये जहाज इंडोनेशिया, भारत और व्यापक हिंद महासागर की दुनिया में मसाले, कहानियाँ और विश्वास प्रणालियों को लेकर यात्रा करते थे। 14 वीं शताब्दी से, पिनिसी जहाजों ने दूर-दराज के तटों को जोड़े रखा है। 2017 में, यूनेस्को ने पिनिसी नाव निर्माण को अमूर्त सांस्कृतिक विरासत के रूप में मान्यता दी, जिसने इंडोनेशिया की समुद्री विरासत को बनाए रखने में इसकी भूमिका की पुष्टि की।

लघु महिमा : प्रम्बनन और त्रिदेव की भावना

योग्यकार्ता प्रांत में बनी इस कृति को बनाने में इस्तेमाल की गयी सामग्री है स्टर्लिंग सिल्वर (फिलिग्री तकनीक)। यह बारीकी से बनी छोटी कलाकृति, जावा के प्रसिद्ध प्रम्बनन मंदिर को दर्शाती है, जो हिंदू देवी-देवताओं ब्रह्मा (सृष्टिकर्ता), विष्णु (पालनकर्ता) और शिव (विनाशक) को समर्पित है। 9वीं शताब्दी में बने इस मंदिर की ऊँची मीनारें और दीवारों पर उकेरी गई कहानियाँ इसकी भव्यता और आध्यात्मिकता को दर्शाती हैं। इस कलाकृति में पवित्रता को चाँदी के महीन तारों से एक यादगार रूप दिया गया है तथा यह उन पौराणिक कथाओं और पवित्र मंदिरों की झलक देती है जो भारत और इंडोनेशिया की साझा विरासत को जोड़ती है।

स्तूप के रूप: बोरोबुदुर की प्रतिध्वनि

मध्य जावा प्रांत में कलाकार दुस डुक डुक द्वारा 2023 में बनी मूर्ति है बोरोबुदुर की प्रतिध्वनि। यह मूर्ति इंडोनेशिया के मध्य जावा में स्थित नवीं शताब्दी के प्रसिद्ध बौद्ध मंदिर बोरोबुदुर के स्तूपों से प्रेरित है। इसका जालीदार आकार मंदिर की छत पर बने गुंबदों जैसा है जो प्रकाश और हवा को अंदर आने देते हैं। जैसे बीरोबुदुर ध्यान और आत्मज्ञान का स्थान है वैसे ही यह छोटी मूर्ति संतुलन और सोच के लिए आमंत्रित करती है। भले ही यह आकार में छोटा हो लेकिन वह बोरोबुदुर की शाश्वत सुंदरता और शांति को एक साथ समेटे हुए है। इस कृति में प्रयुक्त सामग्री है पुनर्चक्रित कागज मिश्रित रेजिन फिनिश ।

बाटिक जाम्बी: लाल रंग में रचा सौंदर्य

एक अज्ञात कलाकार द्वारा बनाई गयी यह कलाकृति मध्य सुमात्रा के जाम्बी प्रांत में 2019 में निर्मित है। गहरे लाल रंग  और फूलों की आकृतियों से सजा बाटिक जाम्बी मलय संस्कृति और इस्लामी सौंदर्य को दर्शाता है। यह ज्यामितीय संतुलन और अमूर्त रूपों पर आधारित होता है।

मेम छपाई (वैक्स-रेजिस्ट) तकनीक से बना यह कपड़ा जाम्बी की दरबारी परंपरा और मुआरो जाम्बी मंदिरों की आध्यात्मिक विरासत से जुड़ा है जो भारत से संपर्क का प्रचीन प्रमाण है।

गुनगुन: वेयांग का पवित्र पर्वत

योग्यकर्ता प्रांत में लकड़ी के आधार पर ढली हुई धातु की 2023 में बनी है यह कृति। वेयांग कठपुतली थियेटर में हर कहानी गुनंगुन से शुरू होती है और उसी पर खत्म होती है। यह पवित्र पर्वत मेय की तरह दिखता है और पूरे ब्रह्याँड का प्रतीक होता जहां व्यवस्था, अराजकता और संतुलन एक साथ मौजूद होते हैं। इसमें पेड़, अग्नि, दरवाजे और आकाशीय प्रतीकों  की आकृतियां होती है जो गहरे अर्थों से भरी होती है। गनुंगन एक पर्दे की तरह भी होता है जो दर्शक को यह संकेत देता है कि जीवन की कहानी अब शुरू होने जा रही है।

पवित्र चेहरे : मिथकों और आस्था से जुड़े मुखौटे

2019 में बनी यह कलाकृति धातु से बने दो आनुष्ठानिक मुखौटे दर्शाती  है, जिन पर जावा और बाली की पारंपरिक कलाओं से प्रेरित खूबसूरत मुकुट बने हैं। ये मुखौटे मंदिरों में होने वाले नृत्यों (तोपेंग नृत्य) और धार्मिक नाटकों के पात्रों की तरह दिखाई देते हैं। इनके माथे पर बना तीसरा नेत्र आंतरिक ज्ञान और दिव्यता का प्रतीक माना जाता है। हालांकि ये मुखौटे धातु से बनाए गए हैं फिर भी इनका डिजायन पारंपरिक लकड़ी के मुखौटों को सम्मान देता है जिन्हें पूर्वजों की आत्माओं से जुड़ा माना जाता है। पुरूष और स्त्री मुखौटे की यह जोड़ी सृष्टि के संतुलन का प्रतीक है जो पौराणिक कहानियों, स्मृतियों और रूपों को श्रद्धा और सम्मान के साथ एक सूत्र में बांधती है। इस कृति को लकड़ी के डिस्प्ले फ्रेम में ऐक्रेलिक सामने लगा हुआ है और ढ़ली हुई और उत्कीर्ण धातु मिश्र है।

पवित्र वक्र: बाली की केरिस और पूर्वजों की आत्मा

बाली की केरिस तलवार को डिस्प्ले किया गया है। इस तलवार की धार में नौ सुंदर वक्र (घुमाव) है। यह आध्यात्मिक शक्ति और पूर्वजों के प्रति श्रद्धा का प्रतीक मानी जाती है। केरिस बाली का पारंपरिक कटार है। इस मूठ पर बटार गुरू की आकृति बनी है जो शाही मुद्रा में बैठे हैं और इसकी म्यान फूलों की सुंदर नक्काशी से सजाई गयी है। इस केरिस को पारंपरिक तरीके से एक पांडे (धार्मिक लोहार) द्वारा खास अनुष्ठानों के साथ बनाया गया है। यह सिर्फ एक हथियार ही नहीं बल्कि संरक्षा, पहचान और अदृश्य  दुनिया से जुड़ाव का प्रतीक है। 2005 में, यूनेस्को ने बाली और जावा की केरिस को अमूर्त सांस्कृतिक विरासत की उत्कृष्ट कृति के रूप में मान्यता दी थी।

पवित्र तलवारें : केरिस आत्मा, परंपरा और अंदर की दिशा  की पहचान

मध्य जावा के एक अज्ञात पारंपरिक लोहार द्वारा 2010 में निर्मित इस तलवार में पामोर स्टील ब्लेड और लकड़ी का हिल्ट और पीतल का म्यान है। जावा की ये केरिस तलवारें केवल हथियार नहीं है अपितु आत्मा, भावना और इरादे की पहचान हैं। सीधी धार वाली केरिस की तलवार स्थिरता, बुद्धि और पूर्वजों की उपस्थिति का प्रतीक माना जाता है।  घुमावदार धार वाली केरिस को व्यक्तिगत विकास और सुंदर महत्वाकांक्षा का प्रतीक माना जाता है।

इन तलवारों पर बने ‘पोमार’ नामक घुमावदार डिजायन केवल सजावट नहीं बल्कि इनमें ऊर्जा, स्वभाव और मौन मार्गदर्शन होता है। जब इन तलवारों को शरीर के पास रखा जाता है तो ये रक्षक और सलाहकार दोनों बन जाते हैं। केरिस आत्मविश्वास का प्रतीक बनती है और हमारे भीतर की दृढ़ता को दिखाती है साथ ही यह एक अदृश्य धागे की तरह पीढ़ी-दर-पीढ़ी हमें जोड़े रखती है।

नालंदा ताम्रपत्र: प्राचीन ज्ञान और सभ्यताओं का एक प्रमाण

860 ईस्वी में बना यह ताम्रपत्र बताता है कि कैसे सुमात्रा के राजा बालपुत्रदेव ने नालंदा में एक बौद्ध मठ की स्थापना की और बंगाल के पाल शासक से इसके लिए भूमि पाई। यह भारत और श्रीविजय साम्राज्य के बीच गहरे सांस्कृतिक और आध्यात्मिक संबंधों को दिखाता है जब ज्ञान और भक्ति, दोनों समुद्र पार साझा किए जाते थे।

मुआरा जाम्बी : बौद्ध ज्ञान और तीर्थ का संगम

मुआरा जाम्बी, जो मध्य सुमात्रा में 12 वर्ग किलोमीटर से भी ज़्यादा क्षेत्र में फैला है, पुराने समय में एक प्रमुख बौद्ध शिक्षा और तीर्थ स्थल था। यह जगह इंडोनेशिया को भारत खासकर नालंदा विश्वविद्यालय से जोड़ती थी। यहाँ बने मंदिर, स्तूप और विशेष रूप से शिकदातून परिसर इसकी धार्मिक और स्थापत्य विरासत को दिखाते हैं। इसका निर्माण पुराने समय की ब्रह्मांड से जुड़ी मान्यताओं के अनुसार किया गया है, जो यह दर्शाता है कि सुमात्रा भी एशिया के पवित्र स्थलों में एक महत्वपूर्ण स्थान रखता था।

गुनंगुन की नई कल्पना : परंपरा, संक्रमण और स्थिरता

योग्यकार्ता प्रांत के कलाकार दुस डुक डुक द्वारा 2023 में  रिसाइकल्ड पेपरबोर्ड, लकड़ी का कंपोजिट, सिंथेटिक पिगमेंट की सहायता से बनी है यह कृति। यह आज के गुनंगन वेयांग थियेटर के पवित्र पर्वत की पुनर्कल्पना करता है जिसे पर्यावरणीय और सांस्कृतिक नवीनीकरण के प्रतीक के रूप देखा जाता है। पारंपरिक रूप से दृश्यों  के बीच संक्रमण को चिन्हित करता रहा है पर अब यह विरासत, परिवर्तन और लचीलेपन की बात करता है। टिकाऊ सामग्रियों द्वारा तैयार यह कृति प्रधान प्रतीकों-ः मेरू पर्वत, जीवन का वृक्ष और संरक्षक आत्मायें- को बरकरार रखती है। जलवायु संकट के युग में, गुनंगुन अतीत के ज्ञान और भविष्य की देखभाल के बीच संतुलन के लिए आह्वान बन जाता है।

समधर्मी प्रतीक: बादल और मुर्गे की बाटिक

इंडोनेशिया के पश्चिम जावा और उत्तरी जावा ( पेसिसिर ) में  कपास, प्राकृतिक और सिंथेटिक रंग से बनी कृति अज्ञात कलाकार द्वारा बनाई गयी है। दो बाटिक कपड़े हैं जिसमें एक पर सिरेबान के चर्चित मेधा मेंडुंग ( बादल ), जबकि दूसरे पर पेरानकन शैली के मुर्गे और फूल इंडोनेशिया की विविध सांस्कृतिक विरासत को दर्शाता  हैं। इनमें चीनी, भारतीय, इस्लामी जवानीस प्रभाव एक साथ बने हुए हैं।

मेधा मेडुंग (बादल) ज्ञान और जीवन की क्षणिकता का संकेत देते हैं। जबकि मुर्गा सर्तकता और हर दिन की नई शुरूआत का प्रतीक है। ये कपड़े सिर्फ सजावट नहीं बल्कि व्यापार, आस्था और आपसी मेलजोल की जीवंत कहानियां हैं जो इंडानेशिया की समधर्मी आत्मा की साक्षी है।

परंपरा के मुखौटे: जावानीस- सुंदानी तोपेंग और भारतीय महरकाव्य की छाया

हाथ से तराशी गयी लकड़ी, प्राकृतिक और सिंथेटिक रंगद्रव्य (पिगमेंट) की सहायता से बनी कृति पश्चिमी जावा में 2025 की बनी हुई है। पश्चिमी जावा के वे रंग-बिरंगे तोपेंग मुखौटे पारंपरिक नृत्य-नाटकों में इस्तेमाल होते हैं, जहां कलाकार बिना कुछ बोले सिर्फ दैहिक भाव-भंगिमाओं से कहानियां संप्रेषित करते हैं। ये मुखौटे अक्सर राजा और रानी जैसे किरदारों को दिखाते हैं और उनके जरिए ज्ञान, शांति, सुंदरता और संतुलन जैसे गुणों को दर्शाया जाता है। इन मुखौटों पर बनी पक्षी वाली पगड़ी और ज्यामितीय डिजायन स्थानीय कला को हिंदू-बौद्ध प्रतीकों से मिलाते हैं जिनकी जड़ें महाभारत और रामायण जैसी कहानियों से मिलती है।

पहले ये मुखौटे राजमहलों और पूजा अनुष्ठानों में उपयोग में किये जाते हैं। ये तापेंग सिर्फ सजावट या नाटक के लिए नहीं उपयोग में नहीं लाये होते बल्कि इनमें नैतिक शिक्षा और आध्यात्मिक सरोकार को अभिव्यक्त करने के चाक्षुष उपकरण होते हैं।

वेयांग कुलित में पांडवों की छायाकठपुतली धर्म और दर्शन का नाट्य

इंडोनेशिया के योग्यकर्ता प्रांत में 2023 की बनी कृति मिश्रित धातु की बनी मूर्ति है जिसे लकड़ी के आधार पर हाथ से काटी गयी है। धातु की यह मूर्ति महाभारत के पांडव भाइयों को दर्शाती है जैसा कि इंडोनशिया की पवित्र छाया कठपुतली कला – वेयांगकुलित- में दिखाई जाती है। प्रत्येक पात्र एक विशिष्ट गुण को दर्शाता  है : कोई न्याय का प्रतीक है, कोई निष्ठा, कोई साहस तो कोई ज्ञान का। ये सभी मिलकर धर्म और अधर्म के बीच हमेशा से चले आ रहे शाश्वत संघर्ष की कहानी है। जावा परंपरा में, वेयांग सिर्फ एक नाटक नहीं अपितु एक पवित्र  रीति हुआ करती है। इसमें संगीत, संचालन और दर्शन  मिलकर छायाचित्रों के माध्यम से जीवन की गहरी बातें साझा करती है। इसके केंद्र में  गुनंगुन- एक ब्रह्मांडीय द्वार हुआ करता है जो इस दुनिया और परलोक के बीच की राह को दिखाने की बात करता है।

यूनेस्को ने वेयांग कुलित को अमूर्त सांस्कृतिक विरासत के रूप में मान्यता दी है। यह महाभारत की एक जीवंत प्रस्तुति है, जिसे छाया के रूप में पीढ़ियों से मनोरंजन गहरे नैतिक संदेशो के साथ दुहराया जा रहा है।

इस प्रदर्शनी में एक आकर्षक कृति काले रंग के पकड़े पर विभिन्न रंगों वाले इंडोनेशिया का नक्शा है। जैसा कि प्रारंभ में ही इस बात का जिक्र किया गया है कि इंडोनेशिया सैकड़ों द्वीपों वाला देश है। कपड़ों से बनी नक्शे वाली यह कृति इतनी मनभावन पड़ी है कि बार-बार देखने को जी चाहता है। काले रंग की पृष्ठभूमि पर अलग-अलग द्वीपों के लिए भिन्न-भिन्न रंग का उपयोग किया गया है। फैले हुए इंडोनेशिया के लिए लैंडस्केप में इस नक़्शे को बनाया गया है। रंगों की इतनी विविधता है जो आँखों को सुकून पहुँचाती है।

इंडोनेशिया की प्रदर्शनी ने पटना के दर्शकों को खूब आकर्षित किया था। इसकी सबसे बड़ी वजह थी कि भारत के लोग जिन धार्मिक छवियों व बिंबों से परिचित रहा करते हैं वही छवियां इस प्रदर्शनी में भी छायी थीं। रामायण व महाभारत ने कैसे इंडोनेशिया के नाटक, संगीत व चित्रकला पर प्रभाव डाला इसका अहसास प्रेक्षक को सहजता से हो जाता है। इन महाकाव्यों के परिचित्र पात्र कैसे दूसरे विदेशी देश की धार्मिक व सांस्कृतिक परंपरा में समाहित हो चुके हैं इसे यह प्रदर्शनी सामने लाती है। वैसे पात्रों के चेहरे, वेशभूषा और भाव थोड़े इंडोनेशियाई विशिष्टता लिए हुए थीं। जैसे पांडवों और राम-सीता-हनुमान आदि के नैन-नक्श हल्के भिन्न से नजर आते हैं।

इस प्रदर्शनी को ठीक ही नाम दिया गया था ‘इंडोनेशिया-महाभारत: महासागर पार प्रतिध्वनियां’। भारत के महाकाव्यों की प्रतिध्वनियों को इंडोनेशिया में देखा जा सकता है। इस प्रदर्शनी में जो बात खटकने वाली वह यह थी कि दोनों देशों  की धार्मिक कथाओं व गाथाओं के बीच अतीत में किस प्रकार का साम्य रहा है उसे साझा सूत्रों को तो तलाश करने की कोशिश  की गई है पर भारत की आजादी के बाद दोनों देशो  ने कैसे साम्राज्यवादविरोधी आंदोलन को आवेग प्रदान किया, किस प्रकार नेहरू ने सुकर्णों के साथ मिलकर ब्रिटिश व अमेरिकी प्रभावों का मुकाबले करने वाली की कैसी रणनीति (गुटनिरपेक्ष आंदोलन) बनाई इसकी चाक्षुष छवियां या अभिव्यक्ति देखने को नहीं मिली। नई वैश्विक  चुनौतियों का मुकाबले कैसे दोनों देशो की जनता व सरकारें मिलकर कर रही हैं इस ओर लगभग ध्यान नहीं दिया गया।

जैसा कि हम सब जानते हैं पूर्व में चित्रकला के व्यापक महत्व को सबसे अधिक शासकवर्ग ने समझा है। चित्रकला में धर्म से जुड़े आख्यानों को आमलोगों के मध्य फैलाया जाता है शासक वर्ग का प्रभाव स्थायी बना रह सके। चित्रकला एक ऐसा विश्वजनिन माध्यम है जिसके लिए किसी संदर्भ या कथा की आवश्यकता नहीं होती। चित्र में जब भी कोई कथा का प्रवेश होता तो यह सवाल स्वाभाविक ही उठ सकता है कि वे किसके लिए कही जा रही हैं ? क्या राजाओं के लिए या आमलोगों के लिए ? कौन उस कथा का लाभ उठाता है ? धर्म हमेशा से शासक वर्ग के विचाराधारात्मक अस्त्र का हथियार रहा। धर्म से जुड़ी कथायें दरअसल शासक वर्ग के उसी एजेंडे को पूरा करने का काम करती हैं।

इंडोनेशिया की प्रदर्शनी  चित्रकला के उसी शासकवर्गीय पहलू को सामने लाती है। दो देशों की जनता के संबंधों के मध्य रिश्तों में एकांगीपन नजर आता है। बहरहाल इन सीमाओं के बावजूद रंग-बिरंगे चित्रों व परिधानो से भरे इस प्रदर्शनी को देखना एक अलग अनुभव से गुजरना है।

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