“अधिकांश कलाकृतियों में सन्देश रहता है। लेकिन ये सन्देश सम्प्रेषित करने के अन्य तरीकों से भिन्न होते हैं, क्योंकि इनके द्वारा संप्रेषित सन्देश चित्ताकर्षक आवरण के अन्दर होते हैं। कहने की आवश्यकता नहीं है कि जिस तरह किसी दवा के ऊपर चीनी का लेप चढ़ा होता है, उसी तरह आकृतियों से सन्देश चिपके होते हैं जिन्हें अलग नहीं किया जा सकता है। कलाकृति बिना किसी जानकारी के भी हमें प्रभावित करती है क्योंकि, …छवियों से लगाव मनुष्य का नैसर्गिक गुण है।”
कला लेखक व चिन्तक सच्चिदानन्द सिन्हा की पुस्तक ‘अरूप और आकार’ के इस उद्धरण के आलोक में यह सवाल किसी के भी मन में आ सकता है कि जहां आकृतियों की अनुपस्थिति है, क्या वहां भी यही कुछ लागू होता है। देखा जाए तो यहाँ सवाल यह भी उठता है कि क्या आकृति विहीन कुछ हो भी सकता है? क्योंकि रंग और रेखाओं से जो कुछ भी हम बनाते हैं, उसमें ढूंढने पर आकृति निकल ही आती है। पिछले दिनों एक बातचीत में कलाकार मित्र शांतनु मित्रा बता रहे थे, कि कैसे उनके स्कूली दिनों में जदूनाथ बनर्जी घर की दीवार पर किसी ग्लास या मग से पानी फेंक देते थे। और फिर कहते थे कि अब इस भीगे हुए हिस्से में परिचित आकृतियों को चिन्हित करो। विदित हो कि जदूनाथ बनर्जी कला महाविद्यालय, पटना में प्राध्यापक हुआ करते थे। तो बिम्मी खान की हालिया एकल प्रदर्शनी में कलाकृतियों से गुजरते हुए यह आपको तय करना है कि आप क्या देखना चाहते हैं ? या आपको क्या दिख रहा है, क्योंकि हो सकता है कि यहाँ आपको चिर-परिचित ज्यामितीय आकृतियां भी दिख जाएँ। या हो सकता है कि आपको यहाँ किसी अपरिचित सी लिपि के होने का अहसास भी हो जाए।
अब इस तरह से हम यह कह सकते हैं कि ऐसे चित्र जहां हमारी चिर-परिचित आकृतियां नहीं होती हैं, उन्हें हम अमूर्त या अब्स्ट्रैक्ट कह सकते हैं या मान लेते हैं। बहरहाल भारतीय समकालीन कला की बात करें तो आज ऐसे कला लेखकों व कलाकारों की कमी नहीं है, जो अब्स्ट्रैक्ट या अमूर्त कला को समाप्तप्राय मान बैठे हैं। किन्तु दूसरी तरफ आज भी ऐसे अनेक कलाकार हैं जो अपनी कलात्मक अभिव्यक्ति के लिए अमूर्तन को अपनाए हुए हैं। पिछले दिनों नई दिल्ली के त्रिवेणी कला संगम स्थित श्रीधराणी दीर्घा में कलाकार बिम्मी की एकल चित्र प्रदर्शनी आयोजित हुई। इस प्रदर्शनी का शीर्षक था “म्यूट एक्सप्रेशंस” यानि मूक भाव। बिम्मी की कलाकृतियों को व्याख्यायित करते हुए वरिष्ठ कवि, कलाकार एवं कला समीक्षक प्रयाग शुक्ल की यह कविता यहां काबिले- गौर है-
सीढ़ियां
(विम्मी के चित्र देखकर)
सीढ़ियाँ हो सकती हैं,
ऐन हवा के बीच –
झुलतीं चढ़तीं- उतरतीं खुद-बखुद-
जादू रेखाओं का!
रंग सिमटे हैं अपने में,
समेटे कुछ –
उत्सुक हम ताकते उनकी ओर,
गठरी हो जैसे बस,
खुलने को कोई!!
हौले से बुलाते रंग-
भूरे बादामी सलेटी स्याह,
राह हो जैसे किसी की ताकते!
कुछ हैं जो हैं गुमसुम,
अधिक, कम!
सुनो! सुनो! रहो, खड़े कुछ देर।
देखो तो, देखो तो,
इनका सुंदर सुघर कहना। अपने में बहना !!
मौन एक प्रार्थना उजास भरी,
उसी के साथ, उसी के साथ,
रहना !!
-प्रयाग शुक्ल
सच मानें तो विम्मी के चित्रों को देखने का वास्तविक आनंद आप तभी पा सकते हैं, जब आप थोड़ा रूककर और जरा ठहरकर आप निहारते हैं। क्योंकि यहां रंगों की अत्यंत सौम्य सी उपस्थिति है। चित्र रचना के अकादमिक पक्ष की बात करें तो शुरूआत से ही कला की कक्षाओं में हमें जो बताया जाता है, वह यह कि लाइट, मिडिल और डार्क टोन का प्रयोग हमें करना चाहिए। इस प्रारंभिक अभ्यास के क्रम में हाई लाइट का ख्याल भी रखकर चलना होता है। अब अगर इस नजरिये से देखें तो विम्मी के चित्रों में डार्क टोन व हाई लाइट पूरी तरह अनुपस्थित है। अगर देखा जाए तो सामान्य तौर पर कला महाविद्यालयों की औपचारिक शिक्षा से अवगत कलाकार, अक्सर अपने पाठ्यक्रम के इस पाठ से विलग नहीं हो पाते हैं। क्योंकि कला का यह व्याकरण उनके चेतन ही नहीं अवचेतन में भी पैबस्त हो चुका होता है। किन्तु अपनी कलाकृतियों में विम्मी ऐसा अगर कर पा रही हैं तो शायद इसकी एक बड़ी वजह उस परंपरागत पाठ्यक्रम से अनभिज्ञता ही यहां एक बड़ा कारण हो। दरअसल विम्मी की कलाकृतियों में किसी उमड़ती- घुमड़ती, हहराती नदी के बजाए किसी अन्त:सलिला सरीखा प्रवाह है। वह अन्त:सलिला जो चुपचाप हमारे-आपके अंतर में बस रही होती है। या कहें तो यहां ये रंग और रेखाएं किसी शीतल-मंद समीर की तरह बह रही होती हैं। रंगों का कंट्रास्ट या तीव्रता यहां पूरी तरह अनुपस्थित है। कुछ इसी का परिणाम है कि इन चित्रों को आप चुपचाप घंटों निहार सकते हैं, बिना किसी उद्वेग या उतावलेपन के। क्योंकि अक्सर हमें किसी प्रदर्शनी में ऐसी कलाकृतियां भी दिख ही जातीं हैं, जो अपने तीक्ष्ण रंग प्रभावों की वजह से आपको बहुत जल्दी विलग करने लगती है। या कहें कि अपने सामने से हटने को बाध्य कर देती हैं।
शायद इसी बात को इस प्रदर्शनी के क्यूरेटर ज्योतिर्मय भट्टाचार्य कुछ यूं कहते हैंं- बिम्मी की यात्रा एक स्वनिर्मित पथ है, इसलिए यह पाठ्यक्रम की बाधाओं से बाहर निकल कर अपनी मौलिकता में निहित है। मैं चित्र बनाती हूं यह कहना जितना आसान है, अपनी कलाकृतियों के माध्यम से दर्शक से जुड़ना उतना ही मुश्किल भी है। किन्तु बिम्मी अपने शीर्षकहीन कलाकृतियों के माध्यम से चुपचाप अपने दर्शकों से बातें कर रही हैं, तमाम कोलाहल के बीच भी।