देश भर में आयोजित होनेवाले नवरात्र उत्सव का एक मुख्य आकर्षण होते हैं पारम्परिक वाद्य वादक भी। कुल्लू के दशहरे की बात करें तो यहाँ इस अवसर पर मंगल वाद्य बजाने वाले बजंतरी कहे जाते हैं। किन्तु बात बंगाल की करें तो यहाँ के मुख्य आकर्षण होते हैं ढाक वादक। जिन्हें यहाँ ढाकी कहा जाता है, ये वे पारंपरिक ड्रमर हैं जो हिंदू त्योहारों के दौरान ढाक (ड्रम) बजाते हैं। ये बंगाल की दुर्गा पूजा से जुड़े पांच दिवसीय वार्षिक उत्सव का एक अभिन्न हिस्सा समझे जाते हैं, लेकिन तकनीक के बढ़ते दखल ने अब इनके सामने भी अस्तित्व का संकट खड़ा कर दिया है। अब कई पूजा पंडाल पारम्परिक ढाकियों की सेवा लेने के बजाय रिकार्डेड सीडी और कैसेट का प्रयोग करने लगे हैं।

ये ढाकी ज्यादातर सार्वजनिक पूजा के पंडालों में अपनी कला का प्रदर्शन करते हैं, जो विश्वकर्मा पूजा से शुरू होकर काली पूजा तक जारी रहता है, लेकिन दुर्गा पूजा के दौरान इनकी भूमिका कुछ ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाती है। यहाँ तक कि कहा जा सकता है कि ढाकों की थाप के बिना दुर्गा पूजा के किसी छोटे से छोटे पंडाल की कल्पना, कम से बंगाल में तो अकल्पनीय है। हर अस्थायी तंबू में भी एक ढाक होता है। ढाक बजाने की इस पारम्परिक कला को अब मरणासन्न पेशा कहा जा रहा है, यह दुखद है लेकिन सच है। ऐसे में कुछ ढाकी पुराने संपर्कों को बरक़रार रखते हुए इस पेशे से अपनी जीविका चला ले रहे हैं, किन्तु कुछ ऐसे भी हैं जो इस गिरावट का सामना कर रहे हैं और कुछ तो अपने इस पारंपरिक पेशे से दूर हो चुके हैं। बांकुरा जिले के एक गाँव अमरुल के सत्तर ढाकी परिवारों का उदाहरण लें। ढाकी के पूर्वज बिष्णुपुर के मल्ल राजाओं के नाम पर थे। महल में देवताओं के लिए दैनिक पूजा का आयोजन किया जाता था और ढाकी इसमें महत्वपूर्ण भूमिका निभाते थे। समय बदल गया है, तो अब स्थिति यह है कि पांच दिनों तक ढाक खेलने के लिए उन्हें जो रकम ऑफर किया जाता है वह है मात्र आठ सौ रूपये । यानी मनरेगा की दर से भी काफी कम।

अब बात अगर बंगाल के बाहर के बंगाली समुदायों के दुर्गापूजा पंडालों की करें तो दिल्ली हो या कोई और महानगर; यहाँ अभी भी बंगाल से ही ढाकी बुलाये जाते हैं। एक अनुमान के मुताबिक दिल्ली में लगभग 400 जगहों पर दुर्गा पूजा का आयोजन किया जाता है। कई पुराने और स्थापित पूजा-पंडालों के अपनी निश्चित ढाकी होते हैं, लेकिन अन्य पूजा से ठीक पहले दिल्ली आने वाले फ्रीलांसरों की सेवा लेते हैं । इनमें से करीब 100 ढाकी मालदा और मेदिनीपुर से दिल्ली की यात्रा करते हैं। उनमें से सभी को काम मिल पाए यह सुनिश्चित नहीं रहता, ऐसे में कुछ ऐसे भी होते हैं जिन्हें खाली हाथ लौटना पड़ता है।

इस तरह से देखें तो दुर्गा पूजा इन ढाकियों के लिए कुछ पैसे कमाने का समय है। आम तौर पर ये ढाकी भूमिहीन किसान होते हैं और जब उनके पास खाली समय होता है तो वे अपने गांवों में ढाक बजाते हैं। दिल्ली में एक ढाकी की कीमत कोलकाता की तुलना में थोड़ी अधिक है। यहाँ इनको करीब रु. 3,000 से 4,000 की रकम प्रति ढाकी मिल जाती है। वैसे दिल्ली मुंबई जैसे महानगर ही नहीं पटना जैसे शहरों में भी दुर्गा पूजा के अवसर पर ढाकी बुलाये जाते हैं । पटना के पूजा पंडालों के इस अद्भुत परंपरा को अपने कैमरे की निगाह से देखा है वरिष्ठ कलाकार/ छायाकार शांतनु मित्रा ने। शांतनु चूँकि मूलतः कलाकार हैं इसलिए यहाँ इनकी कोशिश रही है कि इन छायाचित्रों में छुपी कलात्मकता को सामने लाया जाये। अगर फोटोग्राफी के तकनिकी पक्ष की बात करें तो कैमरे के शटर स्पीड को धीमा करने से इस तरह का परिणाम सामने आता है। शांतनु ने भी कुछ इसी तकनीक को यहाँ आजमाया है। दुर्गा पूजा के पावन अवसर पर आलेखन डॉट इन के पाठकों के लिए प्रस्तुत हैं उनके (शांतनु) द्वारा भेजे गए कुछ चित्र।
