मानव सभ्यता के इतिहास की बात करें तो अपने प्रारंभिक दिनों में मनुष्य ने प्रकृति को आराध्य के तौर पर अपनाया। कतिपय इन्हीं कारणों से संसार के प्रत्येक हिस्से में निवास करनेवाले मनुष्यों ने चाँद, सूरज, अग्नि, वायु और जल से लेकर पर्वत, नदियों और जंगलों को भी देवता या आराध्य के तौर पर पूजा। यहाँ तक कि अपने आपको इन आराध्यों में से किसी न किसी की संतान के तौर पर स्वीकारा भी। भारतीय सभ्यता की बात करें तो इन प्राकृतिक प्रतीकों या देवताओं के साथ-साथ यक्ष प्रजाति के जिस अर्ध-देवता की परिकल्पना हमने की, उसे मुख्य रूप से प्रकृति का संरक्षक ही माना। शायद यही कारण है कि जैन, बौद्ध और ब्राह्मण धर्म (सनातन धर्म) यानी सबने इस अर्ध-देवता यानी यक्ष को लगभग सामान रूप से आदरणीय व पूजनीय माना। आज भी अपने समाज में यक्ष-गान से लेकर यक्ष- पूजा जैसे प्रचलन प्रकृति और मानव के दोस्ताना संबंधों की गवाही दे रहे हैं। किन्तु मानव सभ्यता के तथाकथित विकास के नाम पर हमने जो कुछ नए चलन अपनाये, उसने कब और कैसे मानव जाति को प्रकृति-पूजक के बजाए प्रकृति और पर्यावरण का दुश्मन बना दिया। वैसे कहीं न कहीं हम सभी इस बदलाव के साक्षी के साथ-साथ भागीदार भी हैं। प्रकृति और पर्यावरण के दोहन के दुष्परिणाम अब खुलकर सामने आने भी लगे हैं।
ऐसे में जिस बात की सर्वाधिक आवश्यकता बनती है, वह है, इस संघर्ष या मुठभेड़ की जगह प्रकृति और पर्यावरण संरक्षण के प्रति अपेक्षित संवेदनशीलता को अपनाने की। क्योंकि अगर हम अपने इतिहास पर नज़र डालें तो प्राचीन मिस्र, यूनान या मेसोपोटामिया की सभ्यता से लेकर सिंधु घाटी और माया सभ्यता के समाप्त या विलुप्त होने के पीछे प्रकृति में आये बदलाव की भूमिका को याद रखना ही होगा। बहरहाल आज की स्थितियों पर नज़र डालें तो एक तरफ जहाँ प्रकृति और पर्यावरण से मनुष्य और मशीन का यह मुठभेड़ अपने चरम की तरफ जाता दिख रहा है, वहीँ पर्यावरणविदों से लेकर कलाकारों, लेखकों एवं अन्य सृजनधर्मियों द्वारा इससे जुडी चिंताएं भी सार्वजनिक की जा रहीं हैं। बहसों, भाषणों से लेकर विरोध प्रदर्शनों के सिलसिले से लेकर समाज के प्रत्येक वर्ग को सचेत करने के तमाम प्रयास भी सामने आ रहे हैं। कुछ इन्हीं चिंताओं को सामने लाने का एक सामूहिक प्रयास हमें दीखता है “फ्लाइट्स ऑफ़ मटेरिअलिटी” यानी भौतिकता की उड़ान शीर्षक इस समूह प्रदर्शनी में। जिसे दिल्ली स्थित इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में गैलरी इस्पेस द्वारा आयोजित किया गया है। 22 अक्टूबर से शुरू हुयी यह प्रदर्शनी 30 अक्टूबर तक जारी रहेगी। इसके प्रतिभागी कलाकार हैं जी. आर. ईरन्ना, एस.जी. अरुण कुमार, कार्ल अंताओ, शाम्भवी सिंह एवं पुनीत कौशिक। प्रदर्शनी की भूमिका एवं उद्देश्यों पर प्रकाश डालते हुए सेरामिक कलाकार क्रिस्टीना माइकल का आलेख कुछ यूं है-
एंथ्रोपोसिन के मूर्तिकला रूपक
“वर्तमान भूवैज्ञानिक युग, एंथ्रोपोसीन, नाटकीय रूप से दिखाता है कि कैसे हम, व्यक्तिगत और सामूहिक रूप से, अपनी दुनिया पर एक मानवीय छाप छोड़ रहे हैं। हम ग्रहों के अब तक के इतिहास में एक अभूतपूर्व क्षण में पहुंच गए हैं। जहाँ मानव अब पृथ्वी की प्रणालियों को संयुक्त रूप से सभी प्राकृतिक शक्तियों से अधिक बदलने में सक्षम हो गया है। यह नए और पारंपरिक त्रि-आयामी माध्यम , जो हमारे मानवीय हस्तक्षेप के दृश्यों को कैप्चर करता है, दोनों का उपयोग करते हुए, आकर्षक दृश्य कलात्मक अनुभवों के समूह की गैलरी इस्पेस की समूह प्रदर्शनी के माध्यम से चलने वाला सूत्र है। और जो हमारे युग की जटिलता और महत्व को अभिव्यक्त करता है।
यह मूर्तिकला समूह प्रदर्शनी कला और पर्यावरण से संबंधित मुद्दों और उन अंतर-अनुशासनात्मक संवादों को एक मंच पर लाता है। जो इस ग्रह पर मानव प्रभाव और इसके दूरगामी प्रभावों की वजह से उभर रहे हैं। प्रस्तुत कलाकृतियां उपरोक्त अभिव्यक्त विचारों को अपनी प्रदर्शनी के माध्यम से प्रदर्शित करती हैं,जिन्हें वैक्टर, सरोकार और दृष्टिकोण की मदद से जाना, पढ़ा और समझा जा सकता है। शक्तिशाली और अलग-अलग तरीकों से सामग्री के साथ शादी के रूप में तत्वमीमांसा अवधारणाओं और ठोस वास्तविकता दोनों में एंथ्रोपोसीन का सबूत है।
यहाँ वस्तु-उन्मुख तात्विकी को दृश्य माध्यमों से रचा गया है, दर्शक इस प्रदर्शनी में वस्तु के तत्व ज्ञान की तलाश करता है – मुख्य रूप से एक संवेदनात्मक अनुभव के रूप में, मूर्तिकला की संरचना, जीवन शक्ति, भौतिकता, स्वायत्तता, आश्चर्य और स्थायित्व पर अपना ध्यान केंद्रित कर पाता है। लोहे, कांसे, लकड़ी, कपड़े और मिश्रित वस्तुओं जैसी मौलिक सामग्रियों का उपयोग करते हुए, कलाकार अपनी चिंताओं को प्रकट करते हुए, यह सवाल सामने लेट हैं कि-” हम जानबूझकर या अनजाने में कौन सी दुनिया बना रहे हैं और तेजी से क्षय होते वर्तमान में रहते हुए हम कौन सी दुनिया को समाप्त कर रहे हैं। आज यह सब कुछ एक ऐसी अवधारणा बन गयी है जो न केवल हमारे समय की पहचान के लिए प्रेरित करती है, बल्कि संभावित भविष्य के सर्वनाशकारी संघर्ष के प्रति आगाह भी करती है।”
क्रिस्टीना माइकल
(सेरामिक कलाकार)
एंथ्रोपोसिन : औद्योगिक क्रांति के बाद, मनुष्य ने मशीनों के साथ मिलकर प्रकृति का शोषण शुरू कर दिया, यह सोचकर कि वह सब कुछ का स्वामी है।
बहरहाल यहाँ संलग्न हैं कलाकार शाम्भवी सिंह के प्रदर्शित मूर्तिशिल्प की तस्वीरें। विदित हो कि कॉलेज ऑफ़ आर्ट्स, पटना एवं दिल्ली कला महाविद्यालय की पूर्व छात्रा रहीं शाम्भवी सिंह समकालीन कला जगत की सुपरिचित कलाकार हैं। जिन्होंने पिछले तीन-चार दशकों में एक चित्रकार, छापा कलाकार और संथापन कलाकार के तौर पर अपनी अंतर्राष्ट्रीय पहचान बनायीं है। पटना जैसे शहर में पली बढ़ी शाम्भवी सिंह मूलतः अपनी पुश्तैनी ग्रामीण पहचान से अपने को कभी अलग नहीं कर पायीं। संभवतः यही वे कारक हैं जो दशकों से महानगरीय जीवन जीते हुए भी शाम्भवी सिंह के अंतस में उनकी ग्रामीण बाला वाली छवि को यथावत रखे हुए हैं। जो अभिव्यक्त होती हैं उनकी उन कलाकृतियों में जिन्हें ” रीपर्स मेलोडी” यानी कटाई का गीत व “भूमि” शीर्षक एकल प्रदर्शनी में देखा जा चूका है।
-सुमन कुमार सिंह