हमारे गांधी : प्रचलित छवियों में नए अर्थ तलाशने की कोशिश

मौजूदा कला लेखन की बात करें तो जो थोड़े से नाम इस विधा में नियमित तौर पर सक्रिय हैं उनमें से एक महत्वपूर्ण नाम हैं अनीश अंकुर। उनकी सदैव कोशिश रहती है बिहार से बाहर के कला जगत को बिहार की कला गतिविधियों से रूबरू कराते रहा जाए। पुनश्च, पटना और रजा फाउंडेशन, नई दिल्ली के संयुक्त तत्वाधान में पटना के नृत्य कला मंदिर के ‘बहुद्देशीय सांस्कृतिक परिसर’ में महात्मा गांधी पर केंद्रित प्रदर्शनी का आयोजन किया गया था। 27 से 31 अक्तुबर तक चली इस प्रदर्शनी में, समकालीन वरिष्ठ व युवा कलाकारों की कृतियां, शामिल थीं। आलेखन डॉट इन के विशेष अनुरोध पर प्रस्तुत है इस वैचारिक प्रदर्शनी पर अनीश अंकुर की यह समीक्षात्मक रपट….

अनीश अंकुर
  • बिहार के समकालीन कलाकारों की पांच दिवसीय प्रदर्शनी

पुनश्च, पटना और रजा फाउंडेशन, नई दिल्ली के संयुक्त तत्वाधान में पटना के नृत्य कला मंदिर के ‘बहुद्देशीय सांस्कृतिक परिसर’ में महात्मा गांधी पर केंद्रित प्रदर्शनी का आयोजन किया गया। 27 से 31 अक्तुबर तक चली इस प्रदर्शनी में, समकालीन वरिष्ठ व युवा कलाकारों की कृतियां, शामिल थीं । प्रदर्शनी में सहयोग कोशिश चैरिटेबल ट्रस्ट और कला व शिल्प महाविद्यालय ने दिया। इस प्रदर्शनी का नाम दिलचस्प रखा गया ‘ हमारे गांधी ‘। जैसा कि नाम से जाहिर है कला प्रदर्शनी बीसवीं सदी के महानतम शख्सियतों में से एक महात्मा गांधी पर केंद्रित रहा।

महात्मा गांधी हमेशा से न सिर्फ भारत बल्कि दुनिया भर के कलाकारों को आकर्षित करते रहे हैं। हाल ही में बिहार म्यूजियम में चीन के एक मूर्तिकार द्वारा महात्मा गांधी की लाठी लिए हुए प्रचलित मुद्रा को पकड़ती मूर्ति ने पटना के कलाप्रेमियों का ध्यान खींचा था। ‘हमारे गांधी ‘ प्रदर्शनी में शामिल चित्रकारों व मूर्तिकारों ने गांधी को खुद जिस रूप में समझा है, जाना है उसे आकार देने की कोशिश की है। कइयों के लिए गांधी की प्रचलित छवि ही प्रेरणा का स्रोत बनी है तो कुछ ने गांधी के विचार से प्रेरित होकर कुछ नया रचने का प्रयास किया तो किसी के लिए महात्मा गांधी एक अवधारणा की तरह हैं जिन्हें समकालीन विश्व में जरूरी हस्तक्षेप के संभावना की तरह भी देखा गया। ‘हमारे गांधी ‘ प्रदर्शनी ऐसी तमाम रचनात्मक प्रयासों का गवाह बनी। गांधी के इतने विविध आयाम उभर कर आए साथ ही कलात्मक स्तर पर नए किस्म के प्रयोगों को भी अपने में समेटे था यह प्रदर्शनी। युवा कलाकारों ने गांधी को जिस नए परिप्रेक्ष्य में समझने की कोशिश की है वह गांधी हत्या करने वालों के खिलाफ एक वक्तव्य के तरह है। यह प्रदर्शनी महात्मा गांधी के व्यक्तित्व व कृतित्व को दफन करने पर आमादा एक सत्ता संरक्षित शक्तियों के तमाम प्रयासों के विरुद्ध एक प्रतिरोध की तरह भी है।

इस प्रदर्शनी ने पटना के कलाप्रेमियों का ध्यान आकृष्ट किया और खासी संख्या में लोग प्रदर्शनी देखने आते रहे। प्रदर्शनी की विशेषता प्रख्यात चित्रकार सैय्यद हैदर रजा के चित्रों के कुछ प्रिंट्स का इसमें शामिल किया जाना रहा। प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट्स ग्रुप के प्रमुख कलाकार रजा के पांच छह कृतियां इस प्रदर्शनी में शामिल थी।

रजा के चित्रों को देखते हुए प्रेक्षक अपने भीतर भावों के तीव्रता को महसूस करता है। चटख रंगों का इस्तेमाल रजा के चित्रों की विशिष्टता है। बिंदु,ज्यामितीय आकार और लाइनों के प्रयोग के कारण रजा के चित्र अलग से पहचाने जाते हैं। ज्यादातर चित्र एक्रीलिक में बनाए गए हैं। अधिकांश चित्र अमूर्त हैं। गाढ़े रंगों का संयोजन इस प्रकार किया गया है कि उससे उत्पन्न हृदय के अंदर के आवेगों और उसकी धड़कन को मानों सुना जा सकता हो। अंदर की वेदना, तकलीफ, असहायता, आक्रोश और अकेलापन को रजा ने रंगों के सचेत संयोजन द्वारा प्रकट कर दिया है। इसी कारण चित्रों के पास से गुजरते समय प्रेक्षक ठिठक सा जाता है। लाल, पीला, काला और कत्थई रंग रजा ने इन पेंटिंग्स में सबसे अधिक चित्रित किया है। साथ ही कहीं -कहीं हरा रंग भी इन चित्रों में उपयोग में लाया गया है। बिंदु या गोला के लिए मुख्यतः काला रंग निर्धारित किया हुआ है। बिंदु बार – बार रजा के चित्रों में आते हैं जैसे शास्त्रीय संगीत का गायक एक ही वाक्य को बार -बार गाता है ताकि आवाज में एक असर पैदा किया जा सके। रजा भी कुछ -कुछ वैसे ही बिंदु भी है। रजा ज्यामितीय आकारों का उपयोग करते हैं जिसे अपनी पसंद के रंगों से भरा जाता है। रजा हमें भावों की तीव्रता का अहसास कराते हैं बेचैनी, जद्दोजहद और छटपटाहट को उनके रंगों और रेखाओं में महसूस किया जा सकता है। यदि रजा के चित्रों के शीर्षक, बनाने का साल, साइज और माध्यम को भी चित्रों के साथ साथ रखा जाता, जैसा कि बाकी चित्रों के लिए किया गया है, तो कलाप्रेमियों के लिए सहूलियत रहती।

राकेश कुमुद के काम का शीर्षक है ‘ व्येहर वर्ल्ड इज विदाउट बॉडर्स ‘। 36/48 इंच की यह कृति मिक्सड मीडिया में बनाया गया है। राकेश कुमुद ने इस चित्र में महादेशों के भौगोलिक नक्शों को अंकित कर कुछ इस प्रकार रचा है मानों सभ्यता के विकास में इनके योगदान को पहचाना जा सके। इन नक्शों के अंदर विचरण करते मनुष्यों की छवि कुछ-कुछ हमें फिलीस्तीन की याद दिला देते हैं। छवि के साथ साथ पुरातात्विक खुदाई में मिले सभ्यतागत चिन्हों को इन नक्शों के बरक्स कुछ इस प्रकार रखा है मानों चित्र हमें कई शताब्दियों की यात्रा कराते प्रतीत होते हैं। इन सब बातों के लिए राकेश कुमुद ने रंगों का चयन सतर्कता के साथ किया है। कैनवास की पृष्ठभूमि में कत्थई रंग का इस्तेमाल और महादेशों के नक्शों के लिए हल्के काले रंग जबकि प्राचीन चिन्हों के लिए विभिन्न रंगों का चुनाव किया गया है। राकेश कुमुद का चित्र महात्मा गांधी की छवि के बजाए उन्हें एक आइडिया के रूप तब्दील कर इस प्रकार पेंट किया है जो उसे बड़े कालखंड में तो समेटता ही है उसे एक समकालीन संदर्भ भी प्रदान करता है।

रंजन कुमार की कृति ‘ पीसफुल पाराडौक्स ‘ एक्रीलिक में चित्रित किया गया है। जैसा की शीर्षक बताता है रंजन ने दो विपरीत अंतर्विरोधी तत्वों को समायोजित करने का प्रयास किया है। एक और शांति का प्रतीक कबूतर है तो उसके विपरीत एक भीमकाय आक्रामक जानवर है । आसुरी प्रवृत्ति वाली यह आकृति आपस में एक दूसरे से संलग्न कबूतर के जोड़े की ओर नजर गड़ाए है। रंजन ने शांति के रंग माने जाने वाले नीले रंग से कैनवास को पेंट किया है जबकि जानवर के लिए काला, कत्थई, हल्का पीला जैसे रंगों को उपयोग में लाया है। इससे कबूतर के जोड़े के अहिंसक प्रतीक और हिंसक जानवर का कंट्रास्ट अच्छी तरह उभर कर आया है। चित्र दो हिस्सों में विभक्त है। दूसरे हिस्से में हरी पृष्ठभूमि पर हल्के गुलाबी रंग से मस्तिष्क और उससे लगते हरे डंठल वाले सफेद गुलाब को चित्रित किया है। यहां भी मस्तिष्क के अंदर के शोर और गुलाब के जरिए द्वंद्व तलाशने की कोशिश की गई है। चित्र का दाहिना हिस्सा चित्रकार के विचार को अधिक बेहतर ढंग से प्रकट करता है।

पटना आर्ट कॉलेज के प्राचार्य अजय पांडे का अमूर्त चित्र इस प्रदर्शनी में अलग से ध्यान आकृष्ट करता है। मिक्सड मीडिया में बनाए गए इस चित्र का शीर्षक रखा गया है। ” विकेंद्रीकरण ” । अजय पांडे ने इस चित्र में सौर्यमंडल को केंद्र में रखा है साथ ही कई अन्य सूर्य भी चित्रित किए हैं मानो चित्रकार कहना चाह रहा हो की सूर्य भी कई होने चाहिए, उसका भी विकेंद्रीकरण होना चाहिए। अजय पांडे ने गांधी के विकेंद्रीकरण के विचार को अपने ढंग से सृजनात्मक आकार प्रदान करने का प्रयास किया है। हाथ से काम करने पर बल प्रदान करने के महात्मा गांधी के विचार को मूर्त रूप देने के लिए हैंडमेड पेपर का उपयोग किया गया है। साथ ही प्रकृति से सामंजस्य कायम करने की उनकी अवधारणा को मूर्त रूप देने के लिए प्राकृतिक रंगों का इस्तेमाल किया गया। इंक, लालता, हल्दी का उपयोग नीले, लाल व पीले रंग के लिए किया गया। 20/28 इंच में बने इस चित्र का रंग संयोजन और उसका प्रभाव आकर्षित करता है। नीला, गुलाबी, लाल के साथ साथ पीले रंग का इंप्रेशन चित्र में एक गहराई उत्पन्न करता है। चित्र में कोई केंद्र नहीं है बल्कि नीचे, ऊपर, दाईं ओर और हल्का बीच में गोलाकार स्पॉट्स बनाए गए हैं। अजय पांडे ने कैनवास को यूनिवर्स में तब्दील कर दिया है। यह चित्र एक नया चाक्षुष प्रभाव निर्मित करती है।

अमित कुमार ने एक्रीलिक पर बनाए अपने चित्र ‘ विचारों की लाठी ‘ में गांधी को लाठी पकड़े मुद्रा में चित्रित किया है। पर अमित कुमार ने गांधी के वक्त के समाचारपत्रों की कटिंग जैसे प्रमुख हेडलाइंस तथा गांधी से जुड़े महत्वपूर्ण सूचनाओं को आधार बनाकर कुछ इस प्रकार पेंट किया है की देखने वाले को यह चित्र गांधी के कालखंड में लेकर चला जाता है। प्रेक्षक को यह अहसास होता है कि चित्र पर उन अखबारों को काटकर चिपकाया गया है पर गौर से देखेने पर पता चलता है की चित्रकार ने उसे परिश्रमपूर्वक पेंट किया है। अमित कुमार ने कैनवास के बैकग्राउंड को भी कूंट के डब्बे की तरह चित्रित किया है पर यह भी ब्रश का कमाल था। यह चित्र प्रदर्शनी में आकृष्ट करती है।

इसी प्रकार रंजीत कुमार ने 48/48 इंच के साइज में एक्रीलिक पर चारकोल से रेखांकन किया है। इस चित्र में रंजीत ने महात्मा गांधी की नमक कानून तोड़ने के समय की झुकी हुई चिर परिचित भंगिमा को पकड़ने की कोशिश की है। रंजीत कुमार के रेखांकन में, स्ट्रोक्स में हाथ सधता नजर आता है। गांधी की आकृति के सभी नाजुक उतार- चढ़ाव पर चित्रकार ने ध्यान दिया है। झुकी हुई गांधी के ऊपर कबूतर और बच्चों की छवियां उकेरी गई हैं। चित्र के कंपोजीशन में भी सामंजस्य बिठाने की कोशिश की गई है। ‘हमारे गांधी’ प्रदर्शनी में चारकोल से काम का अच्छा उदाहरण है रंजीत कुमार की कृति।

मुकेश कुमार ने अपनी कृति का शीर्षक दिया है ‘नीली दरारें ‘। 48/36 इंच लेनी चित्र को कैनवास पर एक्रीलिक से बनाया गया है। मुकेश कुमार का यह चित्र युवा कलाकारों की श्रेणी में अपनी रंग परियोजना के कारण अलग से दिख जाती है। मुकेश के कैनवास पर रंगों के भरमार है नीला, लाल, पीला, हरा, नारंगी, बैंगनी सहित कई मिले जुले रंगों का उपयोग किया है। इन रंगों के कई – कई आयाम भी चित्रकार ने उभारने का प्रयास किया है। रंगों व रेखाओं के उपयोग से देखने वाले को कई किस्म के भावों को उद्वेलित करता है। चित्र में वर्गाकार आकृतियों के अलग – अलग रंग भर कर अपने अमूर्त से लगने वाले भावों को प्रकट करनेने कोशिश की है। यह चित्र अपने रंग संयोजन के कारण देखने वाले को भाते हैं।

अर्चना सिन्हा का गांधी पर केंद्रित इंस्टॉलेशन प्रदर्शनी में आम लोगों को आकर्षित करता रहा। अर्चना सिन्हा ने मिट्टी, धोती, लाठी की सहायता से एक अनूठी कृति कोनिया प्रकार रचा है जो देखने वाले को गांधी की याद दिलाता है। धोती को मिट्टी में धंसे लाठियों पर फैला दिया गया है। साथ ही कलाई की मुट्ठी से एक लाठी को हाथ से पकड़े दर्शाया गया है। धोती का एक सिरा लाठी पकड़े कलाई के दूसरे सिरे से जुड़ा है। गांधी की छवि को यहां अर्चना सिन्हा ने क्षैतिज आकार में परिकल्पित किया है। यही इस कृति को अनुठापन प्रदान करता है। धोती पहने गांधी की अर्चना सिन्हा की यह कृति ऐसा संसार रचती है जो आपको महात्मा गांधी से जुड़े प्रचलित जीवन मूल्यों से जोड़ता है। अपने लोगों विशेषकर सबसे गरीब लोगों से जुड़े रहने के गांधी के संदेश के लिए अर्चना सिन्हा ने मिट्टी का चुनाव किया। गांधी की घुटने तक पहनी धोती और हाथ में लाठी के प्रतीक को इस कृति का हिस्सा बनाकर अर्चना सिन्हा ने इस इंस्टॉलेशन को यादगार बना दिया।

प्रमोद कुमार ने ‘ हमारे गांधी’ को अभिव्यक्त करने के लिए सिंगल वीडियो चैनल को अपना माध्यम बनाया है। सिंगल वीडियो चैनल में कई छोटे- छोटे वीडियो स्क्रीन पर नजर आते हैं। वीडियो में एक युवा कलाकार अपने कैनवास पर कुछ बनाता रहता है। संभवतः उसके सामने कोई तस्वीर है जिसे देखकर उसकी अनुकृति वे कैनवास पर उतार रहे हैं। इसी छवि को बार- बार दुहराया गया है। तस्वीर बनाते इसी मुद्रा को वीडियो में कैदकर प्रमोद कुमार ने उसे सबको एक कोलाजनुमा वीडियो बनाकर तैयार किया है। प्रेक्षक को एक साथ कई चित्रकार किसी का पोट्रेट बनाते दिखते हैं। कुल 24 वीडियो का कोलाज बनाया गया। छह वीडियो के चार कॉलम बनाया थे। वे सभी वीडियो चित्रकार को सामने पर थोड़े डायाग्नल एंगल से बनाए गए हैं। इन सभी को एक साथ रख देने से एक अलग किस्म के कला भाषा लेती आकार नजर आती है। प्रमोद कुमार का काम देखते हुए एक भिन्न किस्म का कला आस्वाद मिलता है। इस नई तकनीक या शैली को मिमेसिस कहा जाता है। प्रमोद कुमार ने इस कृति का एक भारी- भरकम सा नाम दिया है ‘द रिस्क और मिमेसिस इमोशन इन पॉलिटिकल रियलियम ‘ ।

रमाकांत भगत की 24/30 इंच की कृति का शीर्षक है ‘अनेस्ट ‘। कैनवास पर रमाकांत ने गांधी के पांवों की छवि को पीले रंग से, शांति के प्रतीक कबूतर के खून में सने पंख था काई के रंग की पृष्ठभूमि में चित्रित किया है। चित्र देखने से चित्रकार की यह भावना प्रकट होती है की गांधी का शांतिकामी रास्ता किस प्रकार रक्त से आप्लावित है। अहिंसा की उनकी प्रतिबद्धता का प्रतिकार हिंसा से किया गया। इसी विचार को प्रकट करने की कोशिश नजर आती है। हरी पृष्ठभूमि में पांव का पीला छाप तो सामान्य सी बात लगती है पर पंख का एक खून के धब्बे वाला हिस्सा उसे उन चुनौतियों की ओर इशारा करता प्रतीत होता है जो गांधी के मुश्किल राह पर चलने वाले को झेलना पड़ता है। रामकांत को अपने विचारों को कलात्मक स्वरूप प्रदान करने के लिए रंगों के और रचनात्मक उपयोग पर ध्यान देने की आवश्यकता है।

पिंटू प्रसाद के फाइबर ग्लास में बनाई गई कृति का नाम है ‘निर्मला ‘ । 29/46 इंच में बने इस त्रिआयामी रचना में महात्मा गांधी के साथ तीन बकरियां हैं। दो बकरी साथ चलती नजर आती है जबकि बकरी के सफेद बच्चे को गांधी ने वात्सल्य पूर्वक अपनी दाईं बांह में हौले से पकड़ा हुआ है जबकि बाएं हाथ में उनकी लाठी है। इस कृति में एक गति है तीनों बकरियां एक सामंजस्य में है। कृति का सबसे प्रभावी हिस्सा बन पड़ा है जिसमें सफेद बकरी का बच्चा गांधी के हाथ में अठखेलियां करता दिखता है। पूरा कैनवास कत्थई रंग में है वहीं छोटी बकरी के लिए सफेद रंग का सृजनात्मक उपयोग इस कृति को बेहद जीवंत बना देता है। ‘निर्मला ‘ में पिंटू प्रसाद ने जीवन जैसे भर दिया है। गांधी की मुद्रा, उनका चश्मा, लाठी, बकरी का उनके कंधों से सटा होना ये सब कुछ जैसे उस लम्हे को कैद कर लिया गया है। कृति की विशिष्टता उसका सजीव होना है। जैसे नंगी आंखों से उस दृश्य को देखा जा रहा हो।

दीप मनोहर के ने लोहे से महात्मा गांधी के चप्पल को गढ़ा है। गांधी के रबर के चप्पल को बेहद मग्न और लगन के साथ दीप मनोहर ने गढ़ा है। इसका शीर्षक उन्होंने दिया है ‘दासता से मुक्ति’। दीप मनोहर ने गांधी के चप्पल को इस प्रकार निर्मित किया है कि उसका तलवा उखड़ा हुआ है, फीता एक जगह हल्का टूटा हुआ है। चप्पल के तल पर आम लोगों की गतिमान प्रतिकृति को गढ़ा गया है। देखने वाले को यह आभास होता है मानो भले चप्पल जीर्ण- शीर्ण अवस्था में हो पर गांधी और उनके साथ चलने वाले हजारों लोगों के हुजूम के जज़्बे में कोई कमी नहीं आई है। चप्पल के कंटीले किनारे उन कंटकाकीर्ण रास्तों के ओर इशारा करती प्रतीत होती है जो गांधी के साथ जुड़ी हुई है।

दीप मनोहर ने एक नए लोहे जैसे कठोर व निष्ठुर माध्यम में इस गांधी की छवि को इस सजीव ढंग से रुपायित किया है कि इसे देखने वाले ठहरकर और गौर से देखने पर मजबूर हो जाते हैं। इस किस्म का कमाल दो वजहों से संभव हो पाता है एक अपने जिस बात को हम कहना चाहते हैं इसमें अनूठापन क्या है इसके साथ ही जिस सामग्री को अपनी अभिव्यक्ति के लिए उपयोग ला रहे हैं उसकी संभावनाओं से हम कितना परिचित हैं। दीप मनोहर ने गांधी की धोती, लाठी, चश्मा या इस जैसी प्रचलित इमेज के बदले उनके चप्पल को अपने काम के लिए चुना। गांधी द्वारा अंतिम आदमी के प्रति उनकी भावनाओं का भी यह प्रकटीकरण है। ‘हमारे गांधी’ प्रदर्शनी में दीप मनोहर का काम एक उपलब्धि की तरह है।

मनोज कुमार बच्चन के 36/48 इंच के शीर्षकविहीन कृति में गांधी के चेहरे की कई छवियों को बनाया गया है। गांधी की सत्य, अहिंसा जैसे मूल्यों से इतर उनकी कुछ दूसरी छवियां निर्मित करने की कोशिश की गई है। गांधी बैठने की अपनी जानी पहचानी मुद्रा में दूरबीन में देख रहे हैं। उनकी एक आंख ध्यान से दूरबीन से बादलों के परे कुछ देखने का प्रयास का रही है। मनोज बच्चन ने बादल चित्रित किया है पर उसे देखने के लिए नजर ऊपर के बजाए नीचे देखते हुए दिखाया है। कैनवास पर बादल के नीचे गांधी को रंगीन चस्में पहने कई छवियां हैं। और कुछ कुछ रैंबो टाइप छवि चित्रित की गई है। मनोज बच्चन ने कैनवास का रंग के अनुकूल बाकी छवियों के लिए रंगों का चयन किया है। चित्र का उपरी भाग गांधी के विज्ञान के प्रति उनके दृष्टिकोण को दर्शाता प्रतीत होता है पर निचले वाले हिस्से से उसके ठीक उलट समकालीन रंग देने का प्रयास किया गया प्रतीत होता है। इससे चित्र के दोनों हिस्सों में विरोधाभासी भाव आते हैं। दोनों के सामंजस्य बैठने में एक असंगति सी लगती है।

मनीष कुमार सिन्हा का इंस्टॉलेशन ‘ नील ‘ प्रदर्शनी के बीचों बीच इस प्रकार है की हॉल में प्रवेश करने वाले की पहली नजर वहीं चली जाती है। मनीष कुमार सिन्हा ने जमीन पर अंडाकार साइज में गोइठा को सजाया है। उस गोइठा पर नीले रंग से पैरों के निशान चित्रित किए हैं। पैरों के निशान डायगनल रखे गए हैं जिससे गति का अहसास होता है। ये निशान गांधी के पंजों के निशान हैं। बाएं और दाएं एक – एक पंजों की छाप लिए हुए यह इंस्टॉलेशन अंत में दोनों पैरों के निशान को लाता है। अंत में जहां पैरों के दोनों निशान एक साथ आते हैं वे इस तरह बनाए गए हैं जो गांधी के चलने की भंगिमा को ध्यान रखकर बनाया गया है। यदि इंस्टॉलेशन को एक छोर से देखा जाए तो मिट्टी रूपी गोइठा (कंडा) पैरों की छाप लिए हुए आगे बढ़ती है और अंत में देखने वाले को यह अहसास होता है की यह छाप तो गांधी के पैरों से मिलते- जुलते हैं। गांधी भारत की खुरदरी, ऊबड़ खाबड़ मुश्किल रास्तों पर किस तरह आगे बढ़े और जिन राहों पर वे आगे गए वहां उनके पंजों के निशान भारत के शेष है यह कृति इसे सामने लाने की कोशिश करती प्रतीत होती है। मात्र दो सामग्री नील और गोइठा का उपयोग कर मनीष कुमार सिन्हा ने यह इमेज सृजित किया है।

रामू कुमार गांधी पर अपने काम के लिए चर्चित रहे हैं। रामू कई सालों से गांधी को मूर्तियों में ढालते रहे हैं। पटना सहित बिहार के कई संस्थानों में रामू द्वारा निर्मित मूर्तियां प्रदर्शित की गई हैं। रामू ने गांधी की इतनी मूर्तियां बनाई हैं कि उनका कलात्मक व्यक्तित्व अब गांधी के साथ जाना जाने लगा है। हमारे गांधी ‘ के लिए प्रदर्शनी स्थल पर प्रवेश करते ही गांधी की बैठी हुई चिर परिचित पर जीवंत मुद्रा से प्रेक्षक का साक्षात्कार होता है । गांधी के बूढ़ी देह और उनकी त्वचा के छोटे छोटे ब्योरों को पकड़ने की कोशिश करते हैं। धीरे- धीरे रामू की गांधी से सबंधित कृतियों में सफाई आती जा रही हैं, वे और सजीव नजर आती है। प्रदर्शनी में ब्राउन्ज में गांधी की आकृति को उन्होंने ‘ थॉट सेलर’ के रूप में ढ़ाला है। महात्मा गांधी की मुखाकृति के साथ उनके माथे को खुला रख गांधीवाद के प्रतीक स्वरूप उनके तीन बंदरों को रखा गया है। यह मूर्ति गांधी के चिंतन के आयाम को सामने लाता है। रामू के कार्यों में सामग्री के साथ लगाव व बरताव के सहजता व स्वाभाविकता नजर आती है।

प्रदर्शनी का शीर्षक मेरे गांधी नहीं अपितु ‘हमारे गांधी ‘ है। याने हमें उस गांधी को चित्रित करना है जो हमारे यानी भारत या मानवता की सामूहिक चेतना का हिस्सा बन चुके हैं । यह चेतना कलाकारों के मनो- मस्तिष्क में किस प्रकार हिस्सा बन पाई है। यह प्रदर्शनी इसे सामने लाने का प्रयास करती है।

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