होमटाउन एनाटोमी : सुनहरे व सन्ताप से भरे अतीत की तलाश

  • युवा कलाकार नरेश कुमार की एकल प्रदर्शनी

अनीश अंकुर मूलतः संस्कृतिकर्मी हैं, किन्तु अपनी राजनैतिक व सामाजिक अभिव्यक्ति के लिए भी जाने-पहचाने जाते हैं। उनके नियमित लेखन में राजनीति से लेकर समाज, कला, नाटक और इतिहास के लिए भी भरपूर गुंजाइश रहती है । बिहार के मौजूदा कला लेखन की बात करें तो जो थोड़े से नाम इस विधा में देखने को मिलते हैं उनमें से एक महत्वपूर्ण नाम अनीश अंकुर जी का भी है। उनकी कोशिश रहती है बिहार से बाहर के कला जगत को बिहार की कला गतिविधियों से रूबरू कराना। इसी कड़ी में प्रस्तुत है युवा कलाकार नरेश कुमार की एकल प्रदर्शनी पर एक समीक्षात्मक रिपोर्ट …..

Anish Ankur

पटना आर्ट कालेज के छात्र (2003-08) रहे नरेश कुमार ने हाल में अपनी एकल प्रदर्शनी का आयोजन किया। गांधी संग्रहालय, पटना में 5 अक्टुबर से 1 नवम्बर तक चले इस प्रदर्शनी का नाम रखा गया ‘होमटाउन एनोटोमी’ (Hometown Anotomy )। लगभग 25 दिनों तक चली इस एकल प्रदर्शनी में प्रतिदिन पटना के सुधी कलाप्रेमी आते रहे।

कोरोना काल के पश्चात पटना में शुरू हुई इस प्रदर्शनी पर कोरोना की स्पष्ट छाप देखी व महसूस की जा सकती है। नरेश कुमार पटना आर्ट कॉलेज के कुछ उन चुनिंदा छात्रों में रहे थे जिन्होंने कला के साथ साथ दूसरी विधाओं से खासकर रंगमंच से भी अपना सरोकार व संवाद बना रखा था। बाद में उन्होंने आगरा से मास्टर डिग्री हासिल की,और फिर कला के अन्तराष्ट्रीय केंद्र माने जाने वाले शहर पेरिस में फेलोशिप के तहत जाकर प्रशिक्षण प्राप्त किया। पिछले सात-आठ सालों के दौरान उन्होंने कई प्रदर्शनियों, कार्यशालाओं, रेसिडेंसियों में शामिल रहने के साथ-साथ कई पुरस्कार भी हासिल किये हैं। इसके अतिरिक्त दुनिया भर की गैलरियों व कला केंद्रों में भ्रमण के दौरान नरेश अपने खुद के अंदर की रचनात्मक अभिव्यक्ति को व्यक्त करने साथ ही कलाभाषा को ढूंढने व पाने की जद्दोजहद व तलाश में लगे रहे हैं। ‘होमटाउन एनोटोमी’ उसी तलाश की सृजनात्मक जद्दोजहद का नाम है।

वैसे तो इस प्रदर्शनी के टाइटल ‘ होमटाउन एनोटोमी’ का शाब्दिक अर्थ होगा अपने ‘शहर की चीरफाड़’ । दूसरे शब्दों में कहें कि जिस शहर को एक अर्सा वक्त पूर्व कलाकार ने छोड़ दिया था अब उसे पुनः समझने का प्रयास कर रहा है। दुनिया भर के कुछ देशों में घूमने, वहां की कला गतिविधियों में परिचित होने के पश्चात अब अपना ही शहर कैसा लगता है? क्या अपने शहर की जो छवि हमारे अंदर मौजूद थी वही अब भी कायम है? उसमें एक वक्त, एक अंतराल ने किस तरह का प्रभाव डाला है ? जीवन, कला, व संसार के अर्जित अनुभव अपने ही देखे हुए, जाने हुए समाज को फिर से एक वस्तुगत दूरी (ऑब्जेक्टिव डिस्टेंस) के साथ देखने पर कैसा लगता है? ‘होमटाउन एनोटोमी’ इसी दिशा में एक प्रयास नजर आता है।

कोरोना त्रासदी ने नरेश कुमार को पुनः अपने शहर में वापस आने पर मजबूर किया। जिस बड़े पैमाने पर मौतें हुई, जो भयावह मंजर देश ने झेला, कोई ऐसा परिवार नहीं जिसने अपने आस-पास मृत्यु की आहट निकट से न सुनी हो। इन सबने कलाकार के मनोमस्तिष्क को गहरे तक प्रभावित किया हुआ प्रतीत होता है।

इस दौरान मृतक के दाह संस्कार भी परिवार के समक्ष एक चुनौती की परिघटना से हम सभी वाकिफ हैं। पटना की सड़कों पर ठेला तथा रिक्शे पर रख शवों को उसकी अंतिम क्रिया के लिए ले जाने का दृश्य एक आम छवि बन चुकी थी। नरेश कुमार ने इस परिचित से इमेज को अपनी प्रदर्शनी के सबसे प्रथम कार्य के रूप में प्रदर्शित किया है । गांधी संग्रहालय के अंदर एक ठेले पर शीशे की एक आकृति रखी हुई है। शीशे के आरपार देखने वाले को मनुष्य की छवि साफ दृष्टिगोचर होती है। ठेले पर शीशे का आकार ठीक वैसा ही है जैसे कफ़न या ताबूत में लपेटा शव होता है। ठेले पर शवनुमा शीशे की यह कलाकृति देखने वाले के मन में बस कुछ महीनों पहले गुजरे उस हाहाकार की याद दिलाती है जिससे पूरा समाज गुजरकर आया है। तीन स्थिर व ठोस वस्तु शव, शीशा, ठेला ये तीनों मिलकर देखने वाले के अंदर विचलित करने वाले भाव पैदा करते हैं। थोड़ा और आगे बढ़ने पर ठेले के बजाए शवनुमा शीशे की आकृति वर्टिकल स्पेस में रिक्शे पर इंस्टॉल की गई है।ठेले पर जहां शीशा हौरिजेंटल स्पेस ( क्षैतिज अवस्था में ) जबकि रिक्शे पर वर्टिकल स्पेस ( खड़ा कर लम्बवत अवस्था में रखा गया) में। शीशे को शव के स्थान पर रखकर नरेश ने कुछ इस प्रकार प्रस्तुत किया है कि दर्शक पर उसका गहरे प्रभाव पड़े बिना नहीं रहता।

शीशा नरेश कुमार की कई कृतियों का हिस्सा है। ‘एथनोग्राफी’ श्रृंखला की उनकी कृतियों में जिसमें सीमेंट, बालू व ईंट की सहायता से उन्होंने ऐसी मनुष्याकृति बनाई है जिसके सहारे शीशे की लंबी पतली पट्टी कोरोना त्रासदी को थोड़े भिन्न ढ़ंग से प्रकट करती प्रतीत होती है। इसमें बच्चे के छोटे जूते, यानी इसी किस्म की कुछ अन्य सामग्री इस कलाकृति को मानवीय संस्पर्श प्रदान करते हैं। इस ढ़ंग से, वर्टिकल तरीके से रखे गए कामों को नरेश कुमार ने कुछ इस प्रकार इंस्टॉल किया हुआ है मानो सुदूर अतीत का अहसास करा रहा हो। अतीत नरेश कुमार के रचनासंसार का एक अविभाज्य हिस्सा है। ‘होमटाउन एनाटोमी ‘ अपने ही शहर के अतीत को फिर से खंगालने का नाम है।

‘एथनोग्राफी’ वाली कृतियों में ध्यान खींचने वाला एक काम है जिसे अखबार के पुराने कतरनों को मानव आकृति में काटकर और पेंसिल, वाटरकलर और नील की सहायता से बनाया गया है। नील का नीला रंग, अखबारों से झांकते लोगों से संबंधित बातें एक समकालीनता का प्रभाव से छोड़ता प्रतीत होता है। नील का उपयोग नरेश ने कई कृतियों में किया है।

‘होमटाउन’ सीरीज में नरेश ने तीन कृतियां प्रदर्शित की हैं। अपने अतीत को अभिव्यक्त करने के लिए कैनवास पर माइका, चारकोल के चूर, ऑयल और नील आदि का सहारा लिया गया है। चारकोल और माइका तेल के साथ मिलकर कुछ ऐसा टेक्सचर क्रिएट करता है कि बरबस देखने वाले एकबारगी ठिठक सा जाता है। माइका और चारकोल देखने वाले में गुजरे हुए वक्त में ले जाने में मदद करते हैं। उस गुजरे वक्त का यथार्थ खुरदुरा सा है यानी अतीत सिर्फ सुनहरा ही नहीं बल्कि सन्ताप से भी भरा है।

नरेश की इस प्रदर्शनी में कई भावों व विचारों को प्रकट करने वाले काम प्रदर्शित किए गए हैं। एक दिलचस्प टाइटल है ‘बुद्ध मार्ग-विद्यापति भवन-गांधी मैदान’। पटना आर्ट कॉलेज के पास का यह इलाका बेहद हलचलों से भरा है। इसे नरेश ने इसमें पुरानेपन का बोध कराने वाले माइका के टेक्सचर में एक गधे की आकृति उकेरी गई है। पटना का यह इलाका सुप्रसिद्ध चित्रकार सुबोध गुप्ता के लिए प्रेरणापुंज के समान रहा है जिसमें उन्होंने शव के पीछे बाजा बजाने वालों के पैर में टूटे चप्पल का कंट्रास्ट उन्हें प्रेरित करता रहा है।

नरेश ने उस इलाके जो थोड़ा दूसरे ढ़ंग से समझने का प्रयास किया है। गधे इस क्षेत्र में खासी संख्या में पाए जाते रहे हैं। ठीक इसी प्रकार पेरिस के ’14 रयु बोनापार्ट स्ट्रीट’ की स्मृति के लिए तारकोल शीट पर माइका व नील का उपयोग किया गया है।

उत्तरार्ध के 3 बजे ( 3 AM) के लिए माइका, नील के साथ ईंट के चूर्ण का प्रयोग सनबोर्ड पर किया गया है। यह काम थोड़ा अलहदा सा था। दिन के एक खास पहर, 3 बजे, को अभिव्यक्त करने के लिए अलग किस्म की सामग्री का उपयोग दिलचस्प है। यह ऐसा समय है जो भारतीय समयानुसार अपराह्न कहा जाता है। कालबोध को कैनवास पर उतारना एक चुनौतीपूर्ण उद्यम है। गंगा के उत्तरी भाग में बसे ‘पहलेजा घाट ‘ नामक कृति में गंगा के बालू, पानी के नीलेपन को अभिव्यक्त करने के लिए कैनवास पर माइका के साथ एनामेल पेंट एक क्रिएटिव उपयोग है। बालू का अथाह फैला क्षितिज, पानी के हल्का नीलापन को अभिव्यक्त करने के लिए पेंटिग के आधे हिस्से में हल्का नीला रंग उपयोग में लाया गया है। नदी के बलुआही हिस्से का इफेक्ट पैदा करने के लिए माइका बहुत सटीक सामग्री नजर आती है।

प्रदर्शनी का एक प्रमुख काम है माइका व चारकोल द्वारा निर्मित काले रंग का तीन फ्रेमों में विभक्त कलाकृति। लेकिन ये तीनों फ्रेम निरन्तरता में हैं। नरेश ने पेंटिग के ऊपर हसुआ रख छोड़ा है। घास व धान काटने के काम आने वाले हसुआ ‘होमटाउन एनाटोमी’ के कई कैनवासों पर रखा रहता है। बीते वक्त की स्मृतियों में हसुआ, चारकोल, माइका व नील मिलकर बिहार के पिछले सौ सालों में बनी लोकप्रिय छवि समेटने कोशिश करता है। हसुआ ग्रामीण बिहार का एक प्रमुख उत्पादक उपकरण है। पेंटिग के साथ इसका होना एक नेटिव फीलिंग निर्मित करने में सहायता करता है। रचनाकार की स्मृतियों में बिहार का ग्राम्य संवेदना सबसे अधिक स्पेस घेरता है। अपना गृहनगर में व्यतीत किया हुआ वक्त हृदय में किस प्रकार से जगह घेरता है इसे समझने के लिए वक्त का अंतराल चाहिए होता है। कृति के साथ रखे गए कृषि उपकरण इसी ओर इशारा करते हैं।

नरेश कुमार की कई कृतियों में नीले रंग का उपयोग किया गया है। हल्के काले रंग के माइका पर नीला रंग की आड़ी-तिरछी पट्टी एक भिन्न किस्म का दृश्यात्मक प्रभाव कराता है। नील, कांच, खनिज व दैनिन्दन वस्तुओं के सहारे अपने रचना संसार को निर्मित करने वाले नरेश के लिए ये चीजें “औपनिवेशिक अवशेष के लंबे इतिहास में यह वस्तुएं पलायन, राजनीतिक संघर्ष, व व्यक्तिगत स्मृतियों को भौतिक स्वरूप देने में सहायता करती हैं।”

कोरोना जनित मौत का मंजर, अलगाव, अकेलापन और जिंदा रहने के संघर्ष की छटपटाहट के साथ- साथ अपने बचपन व युवावस्था के दिनों के गुजरे वक्त को एक दृश्य भाषा (विजुअल लैंग्वेज) प्रदान करने की जददोजहद से गुजरता मालूम होता है नरेश कुमार का ‘होमटाउन एनाटोमी’।

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