आइबिस नोज़ बेस्ट

वरिष्ठ कलाकार रेखा हेब्बार राव के कलाकृतियों की एकल प्रदर्शनी इन दिनों भारत आर्ट स्पेस गैलरी, गुरुग्राम में चल रही है। इस प्रदर्शनी को क्यूरेट किया है कला समीक्षक जॉनी एम् एल ने। जाहिर है राजधानी के कला जगत में इस प्रदर्शनी को गंभीरता से लिया जाएगा या लिया जाना चाहिए। क्योंकि अगर आप दिल्ली एनसीआर में आये दिन आयोजित होती प्रदर्शनियों पर नज़र डालें तो, अधिकांश प्रदर्शनियां आपको खानापूर्ति जैसी ही लगेंगी। ऐसे में “आइबिस नोज़ बेस्ट” शीर्षक यह प्रदर्शनी अपने तथ्यों-कथ्यों से लेकर निरूपण तक में जिस कलात्मकता और बौद्धिकता का समन्वय प्रस्तुत करती है, वह इसे कला की उस समकालीन मुख्य धारा से जोड़ती है। जिस समकालीनता की बातें तो हम बहुत करते हैं, लेकिन क्रियान्वयन या निरूपण में यह या तो गौण हो जाता है, अथवा विलुप्त प्राय। अगर आप कला प्रदर्शनियों के नियमित दर्शक हैं तो आप पाएंगे कि अधिकतर कलाकृतियों में या तो अंधानुकरण दिखेगा या फिर तथाकथित बाज़ार के अनुरूप रचा गया उत्पाद।

स्वाभाविक है कि इस क्रम में कला कला के लिए? या कला समाज के लिए ? जैसी बहस की गुंजाइश भी कहीं न कहीं बनती ही है। जिसे पहले मुर्गी या अंडा जैसा सर्वकालिक बहस माना जा सकता है। लेकिन इन सबके बावजूद यह तो मानना ही पड़ेगा कि समकालीन कला अगर विचारों की अभिव्यक्ति है, तो यहाँ कलाकार का वैचारिक दृष्टिकोण तो दिखना ही चाहिए। वरना धार्मिक संस्थानों व राज दरबारों के आश्रय में फली-फूली कला शैलियों का सदियों पुराना विस्तृत इतिहास तो हमारे पास पहले से ही चला आ रहा है। तब ऐसे में किसी आधुनिक या समकालीन कला शैली की तो कोई आवश्यकता ही नहीं रह जाती है। फिर यहाँ एक और सवाल सामने आता है कि तो क्या हमारे पुराने आख्यान या कथाएं आज अप्रासंगिक हो गए हैं या हो जाने चाहिए ?

इस सवाल का जवाब हमें मिलता है जॉनी एम एल की इन पंक्तियों में :- ” रेखा राव एक ऐसी कलाकार हैं, जो सामाजिक रूप से जागरूक, सौंदर्य की दृष्टि से परिष्कृत, धैर्यपूर्वक अभिव्यंजनावादी तो हैं ही उनकी कलाकृतियां अपने दृश्य और कथ्य दोनों स्तरों पर स्पष्ट हैं। रेखा राव की रचनाएँ उनकी सामाजिक चेतना, आसपास के परिवेश, व्यक्तियों और अन्य प्राणियों के प्रति एक प्रकार की विशाल और गहरी सहानुभूति का परिणाम हैं। यह सहानुभूति अक्सर उनकी कलाकृतियों में उन कथाओं के रूप में आती है जो आलंकारिक और उपख्यानात्मक कहानी सुनाने के पारंपरिक रूपों को चुनौती देती हैं। यहाँ एक कहानी है और इसे पढ़ने और व्याख्या करने के लिए दृश्य संकेत भी हैं। जो लोग कलाकार के लोकाचार, एक दृश्य कलाकार के रूप में उसके आधी सदी पुराने करियर के संदर्भ से परिचित हैं, वे कैनवास पर अंकित विज़ुअल ट्रेल्स (दृश्य पथ) का अनुसरण करके इन कथाओं को आसानी से समझ सकते हैं। उनकी कलाकृतियों से जुड़े नए आरंभिक दर्शक भी सार्थक जुड़ाव बना सकते हैं क्योंकि उनकी इन विशेष कहानियों में सामान्य विषय, हमारे समय के गंभीर मुद्दे, मुख्य रूप से पर्यावरणीय मुद्दे शामिल होते हैं जो कलाकार के अंतर्मन की पुकार है।”

जाहिर है रेखा अपनी कलाकृतियों में जिन कहानियों व आख्यानों को चित्रित करती हैं, वे सन्दर्भ के तौर पर पौराणिक या मिथकीय चरित्रों या पात्रों से जुड़ती अवश्य हैं। लेकिन उसका कथासार हमें आधुनिक या समकालीन सन्दर्भों से जोड़ता है। मसलन प्रदर्शनी में शामिल एक कलाकृति का शीर्षक है ” कालिया द सर्पेंट किंग”। इस चित्र में यमुना के अंदर अपना फन फैलाये कालिया लगभग केंद्र में है, वहीँ दूर पृष्ठभूमि में ऊपर की तरफ शहरी आबादी को दर्शाते इमारतों की श्रृंखला सी है। चित्र के निचले हिस्से में औद्योगिक व शहरी कचरे को दर्शाया गया है, जाहिर है यह सब भगवान् कृष्ण के कालिया मर्दन वाले कथानक को वर्णित करता है। किन्तु इस चित्र का सर्वाधिक महत्वपूर्ण पक्ष है कृष्ण जैसे किसी उद्धारक की अनुपस्थिति। उसी तरह एक अन्य चित्र है जिसका शीर्षक है ” द बनयान ट्री (ऑफरिंग)”। बरगद के इस पेड़ के चारों तरफ मंगलकामनाओं वाले धागे लिपटे हुए हैं, साथ ही भक्तों का एक समूह अपनी तरफ से वृक्ष की आराधना में लीन है। हमारे दैनिक जीवन से जुड़े व्रत त्योहारों में से एक को दर्शाता यह रूपक, वास्तव में हमें पर्यावरण चुनौतियों के प्रति आगाह भी करता है।

अपनी कलाकृतियों के माध्यम से प्रचलित आख्यानों, रूपकों और कथाओं को पुनर्व्यख्यायित करने के इस क्रम में बारी आती है, उस कृति की जिसके शीर्षक को प्रदर्शनी का शीर्षक बनाया गया है। यानी “आइबिस नोज़ बेस्ट” शीर्षक कलाकृति की। दरअसल आइबिस एक ऐसा पक्षी है जिसकी चर्चा पौराणिक आख्यानों में तो है ही वर्तमान में भी इसकी प्रजातियां दुनिया के विभिन्न हिस्सों में मौजूद हैं। किंवदंती के अनुसार, आइबिस तूफान आने से पहले आश्रय लेने वाला अंतिम वन्यजीव है और तूफान गुजरने के बाद फिर से प्रकट होने वाला पहला। इस पक्षी का ज़िक्र हज़रत नूह के उस कथानक में भी आता है, जहाँ जलप्रलय की स्थिति में नूह ने अपनी नौका पर सभी जीव जंतुओं की प्रजाति को शरण दी थी, और प्रलय के गुजर जाने के बाद अपनी नौका से जमीन की तलाश के लिए आइबिस को ही छोड़ा था। दरअसल यहाँ भी इसकी उपस्थिति आशा और उम्मीद की उस किरण का द्योतक है, जो तमाम विपरीत परिस्थितियों के बावजूद मानव और मानवता के अक्षुण्ण रहने को सुनिश्चित करती है।

रेखा की कलाकृतियों में निरूपण की सहजता विशेष तौर पर दर्शकों को आकर्षित करती है। जबकि सच्चाई तो यह है कि जब हम कला की अकादमिक शिक्षा से गुजरते हैं। तो हमें कला के उस व्याकरण का अनुसरण करना पड़ता है जो अक्सर हमारी अभिव्यक्ति को सीमित कर देता है। मसलन आकृतियों को रचने के क्रम में एनाटोमी यानी शरीर रचना के अनुपात का पालन और दृश्य चित्रण की स्थितियों में पर्सपेक्टिव को ध्यान में रखने जैसा। ऐसे में जब बारी आती है इन अकादमिक बंधनों से मुक्त होकर रचने की, तो यह किसी कठिन चुनौती से कम नहीं रह जाता है। अलबत्ता लोक कलाकारों के लिए यह सबकुछ उतना चुनौतीपूर्ण नहीं होता, क्योंकि उनकी चित्रभाषा में किसी व्याकरण की बाध्यता अक्सर नहीं ही होती है। बहरहाल रेखा की चित्रभाषा पूरी तरह उस सहज अंकन या निरूपण के उदाहरण के तौर पर हमारे सामने है, जहाँ अभिव्यक्ति; अकादमिक बाध्यताओं को दरकिनार कर निरंतर प्रवाहमान है। शुभकामनायें

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