अंधेरे में रंगों की तलाश करता हुआ एक चितेरा

प्रो. जय कृष्ण अग्रवाल, वरिष्ठ कलाकार एवं ललित कला महाविद्यालय, लखनऊ के पूर्व प्राचार्य, भारतीय चित्रकला जगत की एक प्रतिष्ठित और प्रेरणास्पद हस्ती हैं। उन्होंने अपने दीर्घ कला-जीवन में रंग, रेखा और रूप के माध्यम से संवेदना, अध्यात्म और समाज के गहरे संबंधों को उजागर किया है। उनके चित्रों में परंपरा और आधुनिकता का सुंदर संगम दिखाई देता है — जहाँ भारतीय सौंदर्यबोध की जड़ें दृढ़ हैं, वहीं प्रयोगशीलता और अभिव्यक्ति की नवीनता भी स्पष्ट है।

शिक्षक के रूप में उन्होंने असंख्य विद्यार्थियों को न केवल कला के तकनीकी पक्ष से परिचित कराया, बल्कि उन्हें एक संवेदनशील दृष्टि और सृजनशीलता का पाठ भी पढ़ाया। उनके मार्गदर्शन में लखनऊ कला महाविद्यालय एक महत्वपूर्ण रचनात्मक केंद्र के रूप में उभरा। अग्रवाल जी का योगदान भारतीय कला शिक्षा और समकालीन चित्रकला दोनों में स्थायी और प्रेरक माना जाता है। यहाँ प्रस्तुत है वरिष्ठ कलाकार अशोक भौमिक की एकल प्रदर्शनी पर उनका मंतव्य, जिसे उनके फेसबुक पोस्ट से लिया गया है i -संपादक

प्रो. जय कृष्ण अग्रवाल

 

अशोक भौमिक की रेट्रोस्पेक्टिव प्रदर्शनी में अपनी उपस्थिति दर्ज नहीं कर पाने का दुख है किन्तु उनके कला संसार से  भलीभांति परिचित हूं। कभी कुछ पंक्तियां लिखकर रखी हुई थीं साझा कर रहा हूँ …..

यह उनके मूलतः काले सफेद चित्रों पर आधारित हैं।

अजीब सा लगता है किन्तु सत्य है। रंगों का कोई वजूद नहीं होता। होता है तो केवल अंधेरा और उजाला। उजाले में दिखने वाले रंग अंधेरे में क्यों लोप हो जाते हैं, क्यों महसूस नहीं होता उनका स्पंदन ? जिसे हम देख नहीं सकते उसे स्पर्श करके महसूस तो कर सकते हैं। अशोक भौमिक के क्राॅस हैच श्रंखला के काले सफेद चित्रों को देखकर इस बात की पुष्टि हो जाती है कि रंगों का कोई वजूद नहीं वह केवल एक एहसास है। उनके अधिकतर चित्रों में रंगों की अनुपस्थिति प्रतीत ही नहीं होती सम्भवतः अर्थपूर्ण आकारों की प्रधानता दर्शक को विषयानुभूति के साथ कलाकार के कल्पनालोक का साक्षात्कार कराती है। वास्तव में अशोक के चित्रों की यही विशेषता है कि वह दर्शक की सोच को कलाकार की कल्पना के यथार्थ से इस प्रकार जोड़ देती है कि अनुपस्थित की उपस्थिति का सहज ही भान हो जाता है।

अशोक के चित्रों के सशक्त दृश्यात्मक प्रभाव के अतिरिक्त उनके आकार मात्र आकार न होकर किसी लिखित कथानक की तरह पढे जा सकते है। वास्तव में वह एक सफल कथाकार भी है, उनका शब्दों और आकारों पर समान रूप से अधिकार कहीं न कहीं अभिव्यक्ति की दोनो विधाओं कों समानांतर ला खड़ा करता है जो उनके लेखन में भी दृश्यात्मक प्रभाव के रूप में परिलक्षित होती है। यह एक अद्भुत संयोग है कि जहां एक ओर अशोक के चित्रों के लिपि सादृश्य आकारों को पढा जा सकता है वहीं उनके लेखनी के शब्द प्रभावशाली आकारों का भान कराते हैं।

अशोक के चित्रों की तकनीक जिसे क्राॅस हैच तकनीक की संज्ञा दी गई है कहीं न कहीं रबिन्द्रनाथ टैगोर के रेखांकनों से प्रभावित प्रतीत होती है। अंतर है तो केवल टैगोर की प्रभावशाली रेखाओं के अव्यवस्थित किन्तु प्रत्यक्ष और सहज मकड़जाल के स्थान पर अशोक की सुनियोजित ढंग से गुथी हुई रेखाओं के ताने-बाने जो अत्यंत सधे हुए आकारों की रचना करतें हैं। वास्तव में देखा जाय तो समान रूप से लेखन और चित्राकंन दोनों ही विधाओं में समानांतर अभिव्यक्ति में अधिकतर रेखा प्रधान तत्व के रूप में उभर कर आती है।

क्राॅस हैच, अशोक की रेखाओं के ताने-बाने मात्र एक अलग पहचान के आशय से अपनाई तकनीक न होकर सामाजिक विसंगतियों पर एक खुला संवाद है। सृष्टि सकारात्मक और नकारात्मक का समन्वय है और इस आपस में गुंथे ताने बाने को एक अर्थपूर्ण तकनीक के रूप में अपनाना अशोक की सृजनात्मक आवश्यकता प्रतीत होती है जो कहीं न कहीं समय और समाज पर उनकी संवेदना जो उनके चित्रों का मूल आधार है को बड़ी सहजता से दर्शाती है। चित्रों के चाक्षुष प्रभाव आकर्षित करतें है किन्तु केवल सौन्दर्य परक न होकर भावप्रधान है जो कहीं न कहीं कलाकार की संवेदनशीलता को दर्शाते हैं।

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