कलाकारों के विस्थापित लक्ष्य और बढ़ती महत्वाकांक्षाएँ

समकालीन कला परिवेश में युवा कलाकारों की प्राथमिकताओं एवं प्रवृतियों पर वरिष्ठ कला समीक्षक जोनी एम एल का यह आलेख, वर्तमान चलन एवं उसके परिणामों की विवेचना प्रस्तुत करता है।

चार्ली चैपलिन की प्रतिष्ठित फिल्म ‘मॉडर्न टाइम्स’ में एक दिलचस्प दृश्य है। जीविकोपार्जन के लिए परिस्थितिवश, अपनी प्रेमिका की सलाह पर ट्रैम्प (चैपलिन द्वारा निभाया गया पात्र) एक रेस्तरां में वेटर बन जाता है, जहां विशेष अवसरों पर संगीत और नृत्य की प्रस्तुति से ग्राहकों का मनोरंजन किया जाता है। नववर्ष का आगमन होनेवाला है, रेस्तरां में जश्न मनानेवालों की भीड़ है। चार्ली यानी ट्रैम्प एक ऐसे ग्राहक को खाना परोसने जा रहा है जिसने चिकन और वाइन का ऑर्डर दिया है। अचानक घड़ी में बारह बजते हैं और नया साल आ जाता है, हर कोई जश्न में डूब जाता है। कंफ़ेटी (रंगीन कागज के टुकड़े ) उड़ती है, तेज संगीत बजता है और छोटे कद का चैपलिन भीड़ की उन लहरों में डूब सा जाता है। वह ट्रे लेकर अपने ग्राहक तक पहुंचने ही वाला होता है कि भीड़ का रेला उसे दूसरी तरफ बहा ले जाता है। यह दृश्य भरपूर हास्य पैदा करता है।


दीर्घाओं में जब मैं युवा कलाकारों द्वारा बनाई गई उन कलाकृतियों के सामने खड़ा होता हूं, जिन्हें गर्व से अकल्पनीय महत्वकांक्षा के साथ प्रदर्शित किया गया होता है, तो मुझे ‘मॉडर्न टाइम्स’ का उपर्युक्त दृश्य बरबस याद आ जाता है। लगता है कि ये कलाकार सौंदर्यात्मक परिपक्वता और आत्मविश्वास की अपनी मंजिल तक पहुंचने ही वाले हैं, लेकिन तभी कुछ और हो जाता है जो इन्हें दूर बहा ले जाती है। एक कलाकार के लिए संतुष्टि दो अलग-अलग रूपों में आती है; एक तो पैसे के रूप में और दूसरा बतौर प्रशंसा। पैसा अंधा है; इसमें प्राय: विवेक की दृष्टि का अभाव होता है। कला में भी कुछ मामलों में धन की बरसात दिखती है, जिससे नैतिकता की पहाड़ियों में झरने फूटते हैं और भूस्खलन भी होते हैं। कलाकार भी तो आदर्शवाद के आवरण में ढके हुए मनुष्य मात्र ही हैं। ऐसे में भला धन की बाढ़ और बरसात कौन नहीं चाहता?

दीवारों पर टंगी कलाकृतियों से पता चलता है कि किसी कलाकार की प्रदर्शनी यहाँ चल रही है। आपको उत्साह की अनुभूति होती है,आपको लगता है कि कला जगत के शीर्ष पर पहुंचने की प्रतिस्पर्धा वाले कई कलाकारों में से एक नए कलाकार से आप बस मिलने ही वाले हैं। ऐसे में आप कलाकार को लेकर एक अत्यधिक कुशल, अत्यधिक जानकार, अत्यधिक मुखर और अत्यधिक समझदार व्यक्ति के रूप में कल्पना करना शुरू कर देते हैं। आप उसके बारे में ऐसे व्यक्ति के रूप में सोचें जो उस उत्साह के स्तर को बरकरार रख सकता है जो उसने अभी-अभी आपमें पैदा किया है। जैसे-जैसे आप आगे बढ़ते हैं आपको और भी कलाकृतियाँ दिखाई देती हैं जो आपको विश्वास दिलाती हैं कि आपने दीवारों पर सचमुच का सोना पा लिया है। आप और भी उत्साहित होते हैं,आपकी अंगुलियाँ उन कलाकृतियों के बारे में कुछ अच्छे शब्द लिखने को बेक़रार हो उठती है। लेकिन तभी अचानक कुछ घटित होता है; कलाकार अपने सौंदर्यबोध में फिसलकर गिर जाता है। उसकी निरंतरता मनमौजीपन की ओर बढ़ती दिखने लगी है। अब आप निश्चय से संशय के दायरे में आ गए हैं।

क्या यह अति आत्मविश्वास हो सकता है? कि कोई कलाकार एक साथ तमाम विभिन्न शैलियों में कलाकृतियां रच सकता है; मसलन कुछ समकालीन सपाट शैली में तो कुछ प्रभाववादी में और कुछ अन्य भविष्यवादी और घनवादी शैली में। क्या यह विभिन्न कला शैलियों को एक साथ संभालने में कलाकार की प्रतिभा को दर्शाता है या यह उसके स्वयं के एकीकृत बौद्धिक और सौंदर्य संबंधी विकास के बारे में समझ की कमी है जो यहाँ दीवारों पर स्पष्ट तौर पर दिख रही है? यकीन से कुछ नहीं जा कहा सकता। वैसे यह कलाकार बेहद आत्मविश्वासी दिखता है और उसे अपनी अलग-अलग शैलियों के बारे में ज़रा भी संदेह नहीं है। किसी गैलरी में मेरे हाल के अनुभवों में से एक में, कलाकार विभिन्न शैलियों में किए गए अपने कार्यों के बारे में बेहद आश्वस्त लग रहा था; यानी किसी एकलौते कलाकार की समूह प्रदर्शनी। पता चला उनकी कला शिक्षा लंदन के एक अच्छे कला संस्थान से हुई है। और यह उनकी महत्वाकांक्षी पेंटिंग्स में दिखता भी है। लेकिन मैं यह नहीं समझ पा रहा था कि अचानक ऐसी पेंटिंग्स की शृंखला क्यों शुरू हो गई जो शैली और दृष्टिकोण में बिल्कुल अलग हैं।

मैं जानता था कि मुझे कलाकार से किसी स्पष्टीकरण की आवश्यकता नहीं है। उसके ब्रोशर में अन्य लोगों द्वारा उसके बारे में लिखे गए लच्छेदार शब्द थे। इसके अलावा, अति आत्मविश्वास से भरे शब्दों में उनका खुद का बयान भी यहाँ दर्ज़ था। मैंने ऐसे कलाकार देखे हैं, जो प्रतिभाशाली बच्चे हैं। पिकासो के विपरीत, जो एक विलक्षण बालक था (एक ऑटिस्टिक व्यक्ति, जिसका खुलासा उसकी एक पोती मरीना पिकासो ने भी किया था), इन प्रतिभाओं को इस भ्रम में पाला गया होता है कि वे कला के सर्वोपरि हैं। कला के निर्माण में उनकी प्रवृत्ति किसी सजीव चीज़ को चित्रित करने में दिखाए गए कौशल के बारे में है। वे अपने स्कूल के दिनों से चित्रकारी करते हैं और उन्हें विभिन्न मंचों पर ले जाया जाता है जहां वे विजेता बनकर सामने आते हैं। यह जीत की होड़ उन्हें एक ऐसे कला विद्यालय में शामिल होने का आत्मविश्वास देती है जहाँ कला के बारे में उनकी धारणाएँ, उनकी मान्यता से परे बिखर जाती हैं। और ऐसे में जब तक वे इस सदमे से उबरते हैं, तब तक वे अपनी स्नातक की पढ़ाई पूरी कर चुके होते हैं।

दुनिया में, एक प्रतिष्ठित संस्थान से कला में फैंसी डिग्री के साथ वे खुद को एक ऐसे स्थान पर पाते हैं जहां उनकी नैसर्गिक प्रतिभा खिलने से इंकार कर देती है, दूसरी तरफ उनका शैक्षिक परिवेश उनकी कलाकृतियों में उनकी प्रतिभा के स्वाभाविक प्रस्फुटन में बाधक बन जाती हैं। इसलिए उन्हें बीच का रास्ता ढूंढना पड़ जाता है, वे ऐसी कला रचने का प्रयास करते हैं जो आंशिक रूप से उनकी नैसर्गिक प्रतिभा एवं कौशल के साथ-साथ उनके नव अर्जित आधुनिक और समकालीन सौंदर्यशास्त्र को दर्शाती है। यह विरोधाभास उनकी कला में तेल और पानी की तरह बना रहता है, जिसे बाकी दुनिया तो जानती-समझती है लेकिन वे खुद कभी इसे स्वीकार नहीं करते। उनका अहंकार तब और बढ़ जाता है जब प्रदर्शनी में उनकी कृतियाँ उनके धनी रिश्तेदारों और दोस्तों द्वारा खरीद ली जाती हैं। एक बार जब वे इस तरह के उपकार के आदी हो जाते हैं तो वे हमेशा के लिए गलत समझी जाने वाली कला के जंगल में खो जाते हैं। उनके धन और प्रभाव के कारण उन्हें अक्सर सार्वजनिक क्षेत्र में भी कलाकारों के रूप में मान्यता मिलने लगती है, ऐसे में आप राजनीतिज्ञों, कॉर्पोरेट दिग्गजों और तथाकथित कला संरक्षकों के साथ उनकी तस्वीरें भी देख सकते हैं।

एक अन्य कला दीर्घा में मेरी मुलाकात एक अन्य कलाकार से हुई जिनकी कला नारीवाद के सिद्धांतों से प्रेरित है। दीवार पर लिखे विवरण में मैंने पढ़ा कि कलाकार अपना परिचय एक ऐसे वास्तुकार के रूप में दे रहा है, पेंटिंग बनाना जिसका जुनून है। कहीं मैंने किसी को यह कहते हुए भी सुना कि जब महामारी के दौरान दुनिया में ताला लगा हुआ था, तब उसके अंदर का कलाकार जाग गया था। महामारी के वर्षों के दौरान कई लोगों को पता चला कि उनके पास एक कलात्मक पक्ष भी है। और जब दुनिया ने खुद को महामारी के बाद की दुनिया कहना शुरू कर दिया तो उनकी कला कहीं पीछे छूट गयी। शायद सोचा होगा कि उनके जीवन में फिर कोई वायरस उन्हें कलाकार बनने का एक और मौका दे ही देगा। लेकिन कई अन्य लोग भी थे, जिन्होंने एक कलाकार के अपने नए रूप में बने रहने का फैसला किया। ऐसे लोग जब अपने व्यक्तित्व के कलात्मक पक्ष को प्रदर्शित करने का प्रयास करते हैं तो भरपाई से अधिक नुकसान ही पहुँचाते हैं।

वैसे नारीवादी कलाकार की रेखाएँ, रंग, चित्र और पेंटिंग की संपूर्ण सजावट ने उनकी स्व-प्रशिक्षित कला को धोखा ही दिया। थोड़ा गौगिन इधर और थोड़ा अमृता शेरगिल उधर। कोई मंजीत बावा इधर तो कोई अर्पणा कौर उधर। जब उनमें से कोई भी आसपास नहीं था तो गोगी सरोज पाल के कुछ तत्व हो सकते थे। ऐसा होता है, मैंने खुद से कहा और उन कलाकृतियों में दिलचस्पी लेते हुए आगे बढ़ गया। मैंने सोचा, अगर वह कोशिश करेगी तो अपनी मंजिल तक पहुंच सकती है। तभी चैपलिन वाला क्षण मेरी आंखों के सामने आ गया। उसने अचानक एक दुर्गा और सिंह, एक शिव और पार्वती और न जाने क्या-क्या पौराणिक कथाओं से प्रस्तुत कर दिया! उसके धर्मनिरपेक्ष विचार समय की मनोदशा के साथ अचानक टकराते नजर आए। अगर पौराणिक रचनाएँ नहीं होंगी तो मेरी कला का क्या होगा? लोग मेरे बारे में क्या सोचेंगे? शायद उसने ऐसा सोचा होगा। जो भी हो परिणाम तो विनाशकारी ही है।

इन दिनों अधिकांश कलाकारों के लिए फिल्म मॉडर्न टाइम्स के चैपलिन का भाग्य एक अपरिहार्य अस्तित्व प्रतीत होता है। वे अपने संभावित ग्राहकों तक पहुंचना चाहते हैं, लेकिन वे बदलते दौर में रह रहे हैं। जहाँ हर कोई अपने पैरों पर खड़ा है और आनंद मना रहा है। कलाकार अपने ग्राहकों तक पहुंचने के लिए संघर्ष कर रहे हैं लेकिन वे इन बाह्य कारणों से अपने लक्ष्य से दूर हो चुके होते हैं I वे अपने लक्ष्य से भटक चुके हैं और कहीं और हाथ मार रहे हैं। यह एक अंधी नौटंकी है जहां कोई गधे के मुंह में पूंछ डाल सकता है। हालाँकि तस्वीर में दिख रहे गधे को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि वह जानता है कि उसकी पूँछ तो बहुत पहले ही गायब हो चुकी है। ऐसे अंधे कलाकार जागरूक दर्शकों के सामने हंसी का पात्र बनते चले जा रहे हैं।

-जोनी एम एल

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