मिलन दास के चित्रों का संसार 

वरिष्ठ चित्रकार मिलन दास के कलाकृतियों की पुनरावलोकन प्रदर्शनी बिहार म्यूजियम, पटना में 25 मार्च से होने जा रही है I इस अवसर पर प्रकाशित होनेवाले केटलाग के लिए वरिष्ठ चित्रकार / कला समीक्षक अशोक भौमिक ने अपनी प्रतिक्रिया इन शब्दों में दी है I सादर साभार हम उसे यहाँ प्रस्तुत कर रहे हैं आलेखन डॉट इन के पाठकों के लिए I _संपादक 

अशोक भौमिक

हिन्दुस्तान के कला इतिहास में, सन 1947 में मिली आज़ादी का ख़ास महत्त्व है। आज़ादी के बाद के दस वर्षों में जो कलाकार आधुनिक भारतीय कला में अपना स्थान बनाने में सक्षम हुए, वे सभी आजादी के पूर्व न केवल जन्मे थे बल्कि चालीस के दशक में सक्रिय भी थे। यदि कुछ अपवादों को छोड़ दें तो आधुनिक भारतीय कला आज़ादी के पचहत्तर वर्षों बाद भी इन्हीं कलाकारों से ही पहचानी जाती है। तो क्या इसका अर्थ यह हुआ कि आज़ादी के बाद नए कलाकारों की आमद थम गयी? ऐसा तो निश्चय ही नहीं है !

मिलन दास की एक कलाकृति


स्वातंत्र्योत्तर भारतीय कला में सरकारी और गैर सरकारी कला-संस्थानों, विदेशी और देशी धनी संग्राहकों और कला व्यापारियों के रूप में आर्ट गैलरियों का गोलबंद होना, वास्तव में जनता से चित्रकला को काटकर उसे एक सीमित दायरे में ले आने का प्रयास था। इस गठजोड़ के उत्तरोत्तर विकास ने  चित्रकला को न केवल राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली और आर्थिक राजधानी मुम्बई में केंद्रित कर दिया बल्कि चित्रकला के नए मानकों का निर्धारण भी किया। इस प्रयास में इन महानगरों से प्रकाशित होने वाली पत्र-पत्रिकाओं के समीक्षकों का भी बड़ा योगदान रहा। इसी केन्द्रीयता का नतीज़ा यह रहा कि विगत सदी के उत्तरार्ध में भारतीय चित्रकला में एकाएक ‘कला में अमूर्तन’ कला की श्रेष्ठ अभिव्यक्ति का पर्याय माना जाने लगा और इसी के द्वारा पोषित, इक्कीसवीं सदी में ‘समकालीन’ के नाम पर एक छद्म बौद्धिक अभिजात कला के विकास को भी हम देख रहे हैं। इन सबके ही समानांतर, यह भी सच है कि पराधीन भारत की कला की तुलना में, स्वतंत्र भारत की कला प्रांतीय संकीर्णताओं से कहीं ज्यादा घिर गई है और छोटे शहरों और महानगरों के बीच का विभाजन और ज्यादा स्पष्ट होता दिखने लगा है।

मिलन दास की एक अन्य कलाकृति

भारतीय चित्रकला में मिलन दास और उनकी चित्रकला पर बात करते हुए हम इन तथ्यों की उपेक्षा नहीं कर सकते। मिलन दास, आज़ाद हिंदुस्तान में जनमे उन कलाकारों में से एक हैं, जिनका नाता, न केवल आधुनिक कला के केंद्र के रूप में चिह्नित महानगरों से दूर छोटे शहरों और कस्बों से रहा बल्कि, दिल्ली- मुंबई के कला बाज़ार से भी वे दूर ही रहे। मिलन आत्मप्रचार से दूर रहने वाले एक ऐसे एकांत प्रेमी चित्रकार हैं, जिनके लिए चित्र रचना से ज़्यादा महत्त्वपूर्ण और कुछ भी नहीं रहा। ऐसी स्थिति में यदि पाँच दशकों की सक्रियता के बावजूद मिलन दास की चित्रकला का सही मूल्यांकन नहीं हो सका है तो हमें आश्चर्य नहीं होना चाहिए।


बावजूद इन तमाम सीमाओं के, सन् 1989 में ललित कला अकादेमी की राष्ट्रीय चित्रकला प्रदर्शनी में मिलन दास को राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया गया था।आज भी अनेक कला प्रेमियों को मिलन दास का वह पुरस्कृत चित्र याद है। हालाँकि इसके बाद एक लम्बा अरसा गुजर चुका है और इस दौरान मिलन की कला, अनेक प्रयोगों और परिवर्तनों से गुजरते हुए आज जिस रूप में हमारे सामने उपस्थित है, वह एक उल्लेखनीय पड़ाव है और इसका परिचय हमें इस प्रदर्शनी में शामिल चित्रों से मिलता है।

“पिग” श्रृंखला की एक कलाकृति

मिलन मुख्यतः एक आकृति मूलक (फिगरेटिव) चित्रकार हैं। आरम्भिक दिनों में, अपने परिवेश में उपस्थित प्राणियों और वनस्पतियों को अपने कैनवास पर उकेरने का उनका अंदाज कुछ हद तक यथार्थवादी था। चित्रकार के रूप में, अपनी तैयारी के वर्षों में मिलन ने इस कौशल को हासिल करने के लिए अथक परिश्रम किया था, जिसका प्रमाण उनके उस दौर के चित्रों में दिखाई देता है। लेकिन, धीरे- धीरे मिलन ने इन परिचित आकृतियों को तोड़कर नयी मूर्तियों को गढ़ना शुरू किया। यह फॉर्म, हम सब के लिए जितना अपरिचित था, उतना ही आकर्षक भी था।उनकी आकृतियाँ अपनी सरलता में कभी पॉल क्ली की याद दिलाती थीं तो कभी हमें मार्क शगाल की परी कथाओं की दुनिया तक पहुँचा देती थीं। हालाँकि ये सभी मिलन की अत्यंत निजी और मौलिक कृतियाँ थीं, जहाँ कहीं तो दर्द के अँधेरों में एक जोड़ी आँखे तारों के मानिंद चमकती दिखती थीं तो कहीं किसी दुःस्वप्न के अंदर चंद सुख के पलों को तलाशती उम्मीदों की धड़कनें थीं। यह वो दौर था, जब मिलन दास के चित्रों की अपनी एक ख़ास शैली धीरे-धीरे आकार ले रही थी और जिसके कारण अपने समकालीनों में उनकी एक विशिष्ट पहचान बनी।

“पिग” श्रृंखला की एक कृति के साथ मिलन दास


मिलन के चित्र हमें बताते हैं कि आकृति मूलक चित्र यथार्थ से कितनी दूर जा सकते हैं और यह भी कि अमूर्तन का अर्थ अनिवार्य रूप से दुरूह होना नहीं है।अपने चित्रों में एनाटमी को वह इस हद तक तोड़ते हैं, जहाँ अपने नए और नितांत अपरिचित रूप में भी वह पहचाने जा सकें। इस प्रक्रिया में मिलन अपनी आकृतियों को किसी कथा के दायरे में नहीं बाँधते। इसीलिए उनके अधिकांश चित्र अनाम या अनटाइटल्ड हैं। बावजूद इसके, उनकी मानव आकृतियाँ एक निश्चित मनोभाव का प्रतिनिधित्त्व करती हैं। पाब्लो पिकासो ने घनवाद के दौर के अपने चित्रों के माध्यम से कला जगत को ऐसी नई संभावना से परिचित कराया था।

मिलन दास अपने चित्रों में कैलीग्राफी या अक्षरांकन का बेहद मौलिक प्रयोग करते हैं। भारतीय चित्रकला में इधर के दिनों में कैलीग्राफी को लेकर भाँति-भाँति के प्रयोग दिखाई दे रहे हैं।हम ऐसे ज़्यादातर चित्रों में अक्षरों को अपने मूल स्वरूप में बनाये रखते हुए, उसे चित्र में एक डिज़ाइन तत्त्व के रूप में इस्तेमाल करते देखते हैं, जो जल्द ही एक ऊब पैदा करता है। मिलन दास अपने चित्रों में किसी अज्ञात भाषा में लिखी पंक्तियों की कैलीग्राफी का ऐसे प्रयोग करते हैं, जैसे वह किसी धूसर प्रेम-पत्र की कूट भाषा में लिखे सन्देश हों। कई चित्रों में गहरे रंगों की परतों के ऊपर तैरते दूधिया अक्षरों की ऐसी अनगढ़ कतारें हमें आकर्षित करती हैं, वहीं सफ़ेद पृष्ठभूमि में काली स्याही से लिखी एक दूसरे के समानांतर, दूर तक सफर करती पंक्तियाँ किसी अश्वेत गुलाम कवि का रोजनामचा सी लगती हैं, जिसे समझने के लिए पढ़ने की जरूरत नहीं होती। कई चित्रों में अक्षरों की कतारें यूँ चलती हैं मानो किसी कथरी (कांथा) पर धागों के टाँके जड़े हों। ऐसी ही कतारों को कभी-कभी वे चित्रों में मनुष्य के चेहरे पर भी उकेर देते हैं।स्वयं को अभिव्यक्त करने के लिए मिलन किसी एक माध्यम के मोहताज़ नहीं रहते बल्कि कागज़ से लेकर कैनवास पर- एक्रिलिक, आयल और पेन-इंक जैसे सभी माध्यमों में समान रूप से सचल हैं।

मिलन दास की एक अन्य कलाकृति

एक ऐसे वक़्त में जब, महानगरों में पुनरावृत्ति को सृजनशीलता का पर्याय सिद्ध करने की होड़ चित्रकला में लगी हो, मिलन दास हर चित्र में अपने को नए-नए रूप में प्रस्तुत करते हुए, विविधता के पक्ष में पूरी आस्था के साथ खड़े दिखते हैं। 

मिलन दास के चित्रों की इस प्रदर्शनी से गुजरते हुए दर्शक इस बात को अवश्य महसूस कर सकेंगे।

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