‘कोहबर: रूट टू रूट्स’ : घर-आँगन से निकल बाजार की तलाश 

पिछले दिनों  15 से 17 नवंबर तक बिहार ललित कला अकादमी आर्ट गैलरी ( बहुद्देशीय सांस्कृतिक परिसर ) में ‘कोहबर’ पर केंद्रित एक अनोखे समूह प्रदर्शनी का आयोजन किया गया।  ‘कोहबर: रूट टू रूट्स’  के शीर्षक से हुए इस त्रिदिवसीय आयोजन में मिथिला क्षेत्र की बावन महिलाओं ने अपनी कृतियों का प्रदर्शन किया। इस प्रदर्शनी ने पटना के कला प्रेमियों का ध्यान विशेष तौर पर आकृष्ट किया। एक साथ इतनी महिला कलाकारों की उपस्थिति ने पूरे कला जगत के  माहौल में सरगर्मी ला दी। वरिष्ठ कला समीक्षक अनीश अंकुर की कलम से प्रस्तुत है इस आयोजन पर यह विस्तृत आलेख, आलेखन डॉट इन के पाठकों के लिए …..
Anish Ankur
अलका दास और भैरव लाल दास के संयोजन में हुए इस महत्वाकांक्षी प्रदर्शनी में सभी महिलाओं ने मिथिला सहित बिहार के विभिन्न भाषा-भाषी क्षेत्रों में विवाह के मौके पर किया जाने वाले ‘कोहबर’ को कैनवास पर चित्रित किया था। ज्यादातर महिलाएं मिथिला से संबद्ध थीं।
‘कोहबर घर’ उस घर को कहा जाता है जिसमें विवाहित जोड़ा शादी के प्रारंभिक कुछ दिन रहा करता है। पारंपरिक मान्यता के अनुसार कोहबर को घर के ईशान कोण यानी दीवार के पूरब वाले हिस्से में चित्रित किया जाता है। इस घर में विवाह से संबंधित कई शुभ कार्य संपन्न किए जाते हैं। ऐसा माना जाता है रामायण में वर्णित सीता विवाह में भी कोहबर का जिक्र है। कोहबर का प्रचलन सिर्फ मिथिला नहीं अपितु मगध और भोजपुर में तो प्रचलित है ही, देश के विभिन्न अंचलों में भी प्रचलित है । मिथिला में ‘कोहबर’ के बजाए ‘कोबर’ कहने का अधिक प्रचलन है। संस्कृत का कोहबर स्थानीय भाषा में ‘कोबर’ में  हो गया।  कोहबर विवाह की प्रक्रिया का  अविभाज्य हिस्सा है। इसके बगैर विवाह जैसा मांगलिक कार्य संपन्न नहीं होता। मिथिला क्षेत्र की अधिकांश नामचीन महिला कलाकारों ने कोहबर को पेंट किया है। गोदावरी दत्त का कोहबर विशेष रूप से अधिक लोकप्रिय रहा है। वैसे मिथिला में लगभग हर महिला कोहबर चित्रित करना जानती हैं। अधिकांश इसे अपनी मां या नानी से सीखा हुआ बताती हैं।
मिथिला क्षेत्र के कोहबर से दुनिया के परिचित होने का इतिहास वही है जो मिथिला या मधुबनी पेंटिंग का रहा है। यानी 1934 के भूकंप के दौरान डब्ल्यू . सी. आर्चर द्वारा  घरों के दीवारों पर बनी खूबसूरत चित्रों को देखने के बाद शुरू हुआ। मिथिला पेंटिंग के इतिहास में आर्चर एक प्रमुख शख्सियत रहे हैं । बाद के दिनों में आर्चर की बदनामी 1942 में पटना के कमिश्नर रहने के दौरान 11 अगस्त को सचिवालय पर झंडा फहराने गए छात्रों पर फायरिंग का आदेश देने के कारण हुई। इस फायरिंग में सात छात्र मारे गए थे। पटना सचिवालय के ठीक सामने बनी सप्तमूर्ति उन शहीद छात्रों की स्मृति में बनी है। बिहार के राजनीतिक इतिहास के बेहद दुखद मोड़ की यह मूर्ति  हमें याद दिलाती है। कैसी विडंबना है कि जिस अंग्रेज अफसर को कोहबर सहित मिथिला पेंटिंग से दुनिया को परिचित कराने का श्रेय जाता है उसी पर यह बदनुमा धब्बा भी लगा हुआ है। कहा जाता है कि आर्चर को इस फायरिंग का निजी तौर पर इतना अधिक अपराधबोध कि उसने घटना के सैंतीस साल बाद 1979 में इंग्लैंड में आत्महत्या कर ली थी।
‘कोहबर को कई लोग चित्रलिपि भी मानते हैं। मिथिला में प्रचलित भाषा है ‘कोहबर लिखना’।  महिलाएं ‘कोहबर’  कुछ ऐसे संकेतों के आधार पर निर्मित करती हैं जो हमारी प्राचीन  पारंपरिक स्मृति का हिस्सा प्रतीत होती है। लगभग हर चित्र में ये संकेत, चिन्ह और बिंब मौजूद थे। जैसे मछली, सर्प,  हाथी,  एक दूसरे में खोया जोड़ा सुग्गा, बांस, गौरी- महादेव, भगवती (दुर्गा) ,  दूल्हा-दुल्हन, पेड़, भौंरा, पान, सूर्य, चंद्रमा, बेल का पेड़, घोंघा, बिच्छू, कछुआ, नैना-जोगिन, केले का थंभ (तना), कलश, पुरैन का पत्ता, कमलदह, कदम का पेड़ आदि। ये सभी प्रतीक उर्वरता, प्रजनन, संतानोत्पत्ति या दूसरे शब्दों में कहें  तो विवाह को प्रजनन और जीवन के विस्तारित पुनरूत्पादन ( एक्सटेंडेड रिप्रोडकशन) की प्रक्रिया से जोड़कर देखने का अंग प्रतीत होता है।
जाहिर है कोहबर विवाह संस्था के प्रति हमारी पारंपरिक अवधारणा को अभिव्यक्त करता है। सर्प को ब्रहाण्ड या विश्व  के संसाधनों और धन पहरेदार के रूप में देखा जाता है साथ ही यह पुरुषों के वीर्य से भी जुड़ा माना जाता है। सर्प खतरे से विवाहित जोड़े को बचाने संबंधी भाव को भी दर्शाता है। चित्रकला में सर्प की उपस्थिति प्राचीन काल से दृष्टिगत है I  यहां तक कि एक प्रमुख लोक नाट्य सती-बिहुला या बिहुला-विषहरी की कथा है। इस कथा का अंकन भागलपुर इलाके (अंग प्रदेश ) में विशेष लोकप्रिय व प्रचलित ‘मंजूषा कला’ में देखा जाता है।
बांस शीघ्रता से वंश विस्तार का प्रतीक है। एक बांस का पौधा बहुत तेज़ी से बढ़कर सघन बंसवारी का निर्माण कर देता है। ठीक उसी प्रकार वंश वृक्ष की परिकल्पना है। पुरैन का पत्ता गर्भनाल को संकेतित करता है। बांस और पुरैन का पत्ता बहुत तेज़ी से आगे बढ़ते हैं लिहाजा इस वंश वृद्धि से जोड़कर देखने की आदत रही है। मछली प्राचीन काल से ही उर्वरता का सूचक रहा है। नवग्रह से नाथ संप्रदाय के नौ सिद्धों  की ओर इशारा किया गया है।
नैना जोगिन के बारे में ऐसी मान्यता है कि नैना बेहद सुंदर युवती थी सभी यहां तक की ऋषि मुनि भी उसपर सम्मोहित हो जाया करते थे। जैसे नैना, जोगिन पर सम्मोहित था ठीक उसी प्रकार दूल्हा भी अपनी दुल्हन पर सम्मोहित रहे। गौरी-महादेव में ऐसी मान्यता है कि गौरी ने बहुत कठिन तपस्या कर महादेव को प्राप्त किया था इस कारण दोनों का आपसी संबंध अटूट था। ठीक ऐसा ही संबंध नव दंपत्ति में भी बना रहे ऐसी कामना है।
कोहबर को तीन हिस्सों ब्रह्मांड, प्रकृति और पृथ्वी में बांटा जा सकता है। सबसे ऊपर  ब्रह्मांड को चित्रित किया गया है जिसे सूर्य, चंद्रमा , विष्णु, नौ ग्रह आदि के माध्यम से प्रकट किया जाता है। प्रकृति वाले हिस्से में फूल, पौधा और जीव- जंतु आते हैं। पृथ्वी वाले भाग में वर-वधु, डोली-कहार आदि का चित्रण रहा करता है। निचले हिस्से में गौरी महादेव आदि के चित्र बने होते हैं। इस तरह से एक शुभ्रता की भावना चित्र में छाई रहती है।
अधिकांश चित्रों का बॉर्डर मछली से बनाया गया था। कुछ लोगों का मानना है कि पुरैन का पत्ता, बांस और देवी-देवता आदि प्रारंभ से मिथिला चित्रकला के प्रमुख अंग रहे हैं पर नैना-जोगिन संभवतः बाद में जोड़ी गई हैं। देवताओं में शिव-पार्वती  की सदैव व लोकप्रिय उपस्थिति रहा करती है। कोहबर ( कोबर) में काले रंग का प्रयोग अशुभ माने जाने के कारण नहीं किया जाता है या किया भी जाता है तो बहुत कम जैसे एक दो बिंदु या टीका जैसा ‘नजर न लगे’  जैसी भावना के कारण। सबसे अधिक लाल रंग उपयोग में लाया जाता है।
जब जीवन कठिन था, उत्पादक शक्तियों का विकास आज की तरह नहीं हुआ था  भारतीयों की औसत उम्र तीस या उससे भी कम थी। बहुत सारे रोगों, बीमरियों आदि का कोई  ढंग का उपचार न था। वैसी स्थिति में कृषि समाज में असुरक्षा से जुड़े मनुष्य के भावनात्मक संसार को इन चित्रों के माध्यम से समझा जा सकता है।
यहाँ प्रेक्षक को थोड़ा ठहर कर, गौर से कलाकृतियों को देखना पड़ता है। इसके बाद वह खुद ब खुद चित्र के संकेतों से,आख्यान से जुड़ा महसूस कर सकता है। प्रेक्षक  यदि  थोड़ा ध्यान दे  तो वह अपने पूर्वजों की उन ध्वनियों को सुन सकता है जो उन चित्रों से आती प्रतीत होती है । जड़ और जीवित दोनों प्रेक्षक से कुछ ऐसा कहना चाहती है, भले ही बहुत धीमे स्वर में जिसको शायद मनुष्य की वर्तमान जीवन पद्धति के छाई केओस लिए आवश्यक हो। विशेषकर प्रकृति के साथ साहचर्य स्थापित करने के संबंध में।
सभी चित्र चूंकि एक ही विषयवस्तु पर केन्द्रित थे, इस कारण इन चित्रों से गुजरते हुए एक ही किस्म के चित्र देखते रहने का स्वाभाविक अहसास हो सकता है। परंतु एक साथ इतनी महिलाओं का उत्साह से भाग लेना इस बात का सूचक है कि वे भी घर के अंदर की दुनिया को बाहर लाकर एक तरह से अपनी दावेदारी पेश कर रही हैं।
कई महिलाएं ऐसी थीं जिन्होंने पहली बार कोहबर को  कैनवास पर चित्रित किया था। अधिकांश महिलाओं को अपने घर में कागज पर, दीवाल पर कोहबर बनाने की आदत थी पर कैनवास से यह उनका पहला साक्षात्कार था। इस कारण कई चित्रों में एक अनगढ़पन दिख सकता है, भगवती वाली रेखाएं थोड़ी आड़ी-तिरछी दिखाई पड़ सकती है पर क्या मजाल की एक भी पारंपरिक संकेत छूट जाएं। इस प्रदर्शनी में विषय भले एक रहा हो पर महिलाओं ने उसमें इतनी तरह, रंगों के उपयोग से चित्रित किया कि हर में कुछ नयापन सा भी नजर आता।
कई चित्रों में सफाई दिखती है, स्पेस का बढ़िया उपयोग नजर आता है। कैनवास पर ढेर सारे संकेतों को शामिल करना पड़ता है लिहाजा सीमित स्पेस में सभी चिन्हों को समाहित करने के प्रयास में प्रेक्षक को  एक क्लमजीनेस  दिख सकता है। पर कई महिलाओं ने इन संकेतों का इतनी खूबसूरती से इस्तेमाल किया है की देखने वाले को एक उच्च कोटि के चित्र देखने का अहसास होता है।
कई चित्र एक ही रंग जैसे पीला, हल्का भगवा, हल्का लाल तो कई चित्रों में कई रंगों का उपयोग किया गया है। चिन्हों की जगह चित्र में निर्धारित है। शिव पार्वती नीचे में हैं और, नवविवाहित जोड़ा दाईं ओर, पुरैन कैनवास में बाई ओर थोड़ा ऊपर की ओर पेड़ की डाली भी उसी और। भगवती कैनवास के बीचों बीच दो भागों में विभक्त करती है। सर्प की मौजूदगी दोनों हिस्सों  में मध्य में रहा करता है।
अलका दास  की इस समूह प्रदर्शनी में मुख्यतः कर्ण कायस्थ समाज से आने वाली स्त्रियों की भागीदारी अधिक दिखाई पड़ी। ये महिलाएं  अपने नाम के आगे दास, लाभ, चौधरी, मल्लिक आदि टाइटल लगाती हैं। कर्ण कायस्थों का मिथिला चित्रकला के विकास में काफी योगदान रहा है। इनकी अपनी शैली भी रही है। मधुबनी के पास रहने वाली रांटी गांव की महासुन्दरी देवी, गोदावरी दत्त, कर्पूरी देवी, आदि इसी सामाजिक पृष्ठभूमि से आती हैं।  यह सवाल हर किसी के मन में उठ सकता है कि जिस सामाजिक समूह का मिथिला चित्रकला के विकास में महत्वपूर्ण योगदान रहा है क्या वे बाजार की तलाश की प्रक्रिया में कहीं पीछे तो नहीं छूट गई हैं ? साथ ही क्या जैसे कर्ण कायस्थ और ब्राह्मण समाज की शैली अलग हुआ करती है क्या कोहबर के संकेत भी कुछ वैसे ही थोड़े भिन्न हुआ करते हैं?
‘ कोहबर रूट टू रूट्स ‘  में दरभंगा, मधुबनी के अलावा मुंबई, कानपुर, दिल्ली, जमशेदपुर से महिला कलाकारों ने हिस्सा लिया। प्रदर्शनी में शामिल कुछ महिला कलाकारों के नाम हैं अलका दास, अनिता दास, संजीता दास, बिनीता मल्लिक, रेखा दास, कविता दास,  राधा दास, प्रियंका दास,  अमृता दास,  सोनाली दास, सौम्या अंचल, वीना दत्ता, स्वीटी कर्ण,  वंदना कर्ण, कल्पना कुमारी कर्ण,  तूलिका, अंजना कुमारी, तृप्ति रानी, सोमा कुमारी, सरोज ठाकुर, सरोज मल्लिक,  प्रतिमा मल्लिक, रश्मि प्रभा, राधा कुमारी, विभा लाल, शरदेंदु आनंद, सरिता दास, नूतन लाभ, ऋचा, कल्पना कुमारी, कविता, नम्रता, कल्पना, निभा लाभ, नूतन बाला, मिंकी दास, वंदना दास, वीणा दत्त, विजय दत्त, भावना चौधरी, अमृता शांभवी, नम्रता नेता, ऋचा धीर, सोनम कुमारी, सीमा कुमारी, गुंजन कुमारी, अंजली नयन, नूतन बाला, मनु मीनाक्षी, रश्मि  प्रभा , कल्पना मधुकर आदि।
तीन दिनों के समूह प्रदर्शनी ने पटना के कला जगत और विशेषकर मिथिला चित्रकला में एक हलचल की तरह हैं। बाजार की संभावना की तलाश महिलाओं की इस कला को घर-आँगन की बंद दीवार से बाहर की दुनिया में लाने की प्रमुख प्रेरक शक्ति रही है। अलका दास ने इस बात को पहचाना इस कारण यह प्रदर्शनी राज्य के कला संसार के लिए एक परिघटना की तरह है।

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