मौजूदा कला लेखन की बात करें तो जो थोड़े से नाम इस विधा में नियमित तौर पर सक्रिय हैं उनमें से एक महत्वपूर्ण नाम हैं अनीश अंकुर। उनकी सदैव कोशिश रहती है बिहार से बाहर के कला जगत को बिहार की कला गतिविधियों से रूबरू कराते रहा जाए। ‘नेपाल आर्ट काउंसिल’ और ‘बिहार म्यूजियम’ के संयुक्त तत्वाधान में नेपाल के कलाकारों की कलाकृतियों की प्रदर्शनी बिहार म्यूजियम की दीर्घा में लगाई गई। जाहिर है इस प्रदर्शनी में नेपाल के कलाकारों की कृतियां शामिल हैं । आलेखन डॉट इन के विशेष अनुरोध पर प्रस्तुत है इस अंतर्राष्ट्रीय प्रदर्शनी पर अनीश अंकुर की समीक्षात्मक रपट …….
अनीश अंकुर
‘नेपाल जहां देवताओं का निवास है’ शीर्षक प्रदर्शनी बिहार म्यूजियम में आयोजित
‘नेपाल आर्ट काउंसिल’ और ‘बिहार म्यूजियम’ के संयुक्त तत्वाधान में नेपाल के कलाकारों की कलाकृतियों की प्रदर्शनी लगाई गई। इस प्रदर्शनी का शीर्षक दिलचस्प था ‘नेपाल जहां देवताओं का निवास है’। यह प्रदर्शनी ‘द्वितीय बिहार म्यूजियम बिनाले-23’ का हिस्सा था। प्रदर्शनी में नेपाल के 78 कलाकारों की 205 कृतियों को प्रदर्शित किया गया।
यह प्रदर्शनी हमें नेपाल की कलात्मक विरासत की विविध शैलियों से परिचित कराती है। इससे हमें पुराने और नए नेपाली कलाकारों की रचनात्मक प्रतिभा को जानने का मौका मिलता है।
प्रदर्शनी को नेपाल आर्ट काउंसिल के स्वस्ति राजभंडारी कायस्थ ने क्यूरेट किया है। क्यूरेटर के अनुसार प्रदर्शनी का उद्देश्य “आगंतुकों को नेपाल के समन्वित आध्यात्मिक वातावरण में डुबाना है और इसके कलात्मक खजाने का पता लगाने के लिए आमंत्रित करना है मानो आप पुराने शहर की सड़कों पर घूम रहें हों।”
नेपाल आर्ट काउंसिल की स्थापना 1962 में राष्ट्रीय संस्थान के रूप में हुई थी। इसका मकसद था नेपाल की कला और कलाकारों को प्रोत्साहन देना। नेपाल के तत्कालीन राजा महेंद्र इसके संरक्षक तथा तत्कालीन प्रधानमंत्री कीर्ति निधि बिस्ता इसके संस्थापक अध्यक्ष बने। राज्य द्वारा प्रायोजित ‘नेपाल आर्ट काउंसिल’ प्रारंभ से ही पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप के तहत चलाया जाता रहा है। इसमें राजा के अलावा राजशाही के समर्थक अधिकारियों की भागीदारी इसके सञ्चालन में होती है।
प्रदर्शनी में नेपाल के कलाकारों द्वारा कई माध्यमों में किए गए काम को रखा गया है। कैनवास के अलावा कपड़ों पर चित्रकारी भी की गई है। लकड़ी और पत्थर के साथ – साथ धातू का भी उपयोग अपनी रचनात्मकता प्रदर्शित करने के लिए हुआ है। कलाकारों ने ऑयल, ऐक्रेलिक, वुड, कॉपर, सिल्वर, कॉटन, सिरामिक सहित कई अनुशासनों में अपनी कृतियों को निर्मित किया है।
जैसा कि हम सभी जानते हैं नेपाल और भारत के मध्य कई शताब्दियों से काफी गहरे संबंध रहे हैं। बिहार के सात जिलों की सीमाएं नेपाल से मिलती हैं। इन दोनों देशों में हिन्दू और बौद्ध धर्म को लेकर काफी समानता है। धर्म के अलावा भाषा, विवाह, खानपान और सांस्कृतिक स्तर पर भी काफी कुछ साझा है। लेकिन धार्मिक पहलुओं को छोड़ दें तो इस प्रदर्शनी में बाकी समानताएं ढूंढने वाले साझा तत्व थोड़े कम ही हैं।
हिंदू धर्म में शिव,भैरव को लेकर काफी चित्र बनाए गए हैं बल्कि शैव परंपरा की छवियां लगभग इस प्रदर्शनी में छाई हुई हैं। महाकाल, पशुपतिनाथ, भैरव जैसे शिव की अलग-अलग मुद्राओं और भंगिमाओं को कई कलाकारों ने चित्रित किया है। इसके अलावा काली, दुर्गा आदि के चित्र भी बनाए गए हैं। इन कलाकृतियों के देखकर प्रेक्षक के मन में यह स्वाभाविक ख्याल उठ सकता है कि क्या समय यानी काल अभी भी किसी प्राचीन युग में ठहरा हुआ है जहां जीवन में धार्मिक तत्व प्रधान भूमिका निभाया करते थे ?
इस प्रदर्शनी में जिन नेपाली कलाकारों की कृतियों को शामिल किया गया है उनमें से अधिकांश धार्मिक प्रतीकों, छवियों और बिंबों से मोहाविष्ट से नजर आते हैं। शिव के चित्र पूरी प्रदर्शनी में भरे पड़े हैं। सबसे बड़ा प्रश्न उठता है कि नेपाल पिछले दो दशकों से एक बड़े राजनीतिक-सामाजिक परिवर्तन से गुजरा है लेकिन उसकी चाक्षुष छवियां एकदम नादरथ हैं। इन चित्रों को देखने से ऐसा प्रतीत होता है की नेपाल आज भी राजशाही के जमाने में रह रहा है। धार्मिक बिंबों से भरा होने के कारण यह सवाल सहज रूप से किसी के मन में उठ सकता है की कहां है आज का नया नेपाल ? कहां हैं उथल पुथल और संक्रमण काल से गुजर रहे समाज के विजुअल्स ? कई बार बिंबों और छवियों की भी राजनीति होती है पुरानी शक्तियां अपनी वैधता के लिए उन्हीं प्रतीकों का सहारा लेती है जब उनका वर्चस्व रहा हो।
अमूमन राजा खुद को धरती पर ईश्वर का नुमाइंदा बताता रहा है। धर्म की पूरा कारोबार इसी एक बात को स्थापित करने में लगा रहा करता है। यही राजतंत्र को वैचारिक आधार मुहैया कराता है।
किसी समाज को जानने के लिए उस समाज से आने वाले विजुअल्स हमारी मदद करते हैं। यदि चित्रकारों के समूह ने पूरे बदलाव से अलग रहकर सिर्फ नेपाल के धार्मिक क्रियाकलापों को अपने चित्रों का विषय बनाया है तो इसका स्वाभाविक निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि वह पुरानी छवियों में चिपके रहकर उन्हीं ताकतों के तराफदारी कर रहा है जो इतिहास के रंगमंच से विदा हो चुके हैं। इस प्रकार यह प्रदर्शनी धार्मिक आवरण में एक स्पष्ट राजनीतिक संदेश देता है कि हम राजा की वापसी चाहते हैं। राजा के संरक्षण में चलने वाली संस्था (नेपाल आर्ट काउंसिल) द्वारा राजशाही का समर्थन करना उसकी स्वाभाविक परिणति नजर आता है।
नेपाल की छवियां कुछ अजीब सी घुली मिली है। इतिहास, मिथक, पौराणिक आख्यान सब एक दूसरे से जुड़े मालूम होते हैं। नेपाल की छवियों में शिव जैसा मिथकीय पात्र है तो बौद्ध धर्म के ऐतिहासिक व्यक्तित्व बुद्ध के कई रूप-स्वरूप यहाँ मौजूद हैं। हिंदू व बौद्ध धर्म का सम्मिश्रण नजर आता है नेपाल के कलाकारों की कलाकृतियों में।
मुक्ति सिंह थापा द्वारा सूती कैनवास पर मिनरल पिगमेंट से चित्रित चित्र में शिव अपनी सवारी नंदी पर खड़े होकर तांडव नृत्य कर रहे हैं। शिव का चित्र अपने रंग संयोजन के कारण आकर्षित करता है। लाल रंग के पृष्ठभूमि में नीले देह वाले आभूषणों से लैस शिव का यह मनोहरी चित्र उनके भक्तों को खूब भाएगा। इन चित्रों द्वारा प्रेक्षक ईश्वर के पवित्र सौंदर्य से परिचित होता है साथ ही इस ईश्वर की आध्यात्मिक आभा में इजाफा होता है। इन चित्रों में शिव अमूमन जटा बढ़ाए, गले में सर्प,रुद्राक्ष की माला, त्रिशूल,अग्नि की लपट, रत्न और अमृतघट ( जिसे अमरता का अमृत) माना जाता है, लिए हुए चित्रित किए गए हैं। शिव की यह चिर परिचित छवि भारत में भी प्रचलित है।
नेपाल के चित्र प्रदर्शनी में अवलोकितेश्वर और शिव के चित्र बहुतायत में बनाए गए हैं। ग्यारह सिरों, हजार भुजाओं और आंखों वाले अवलोकितेश्वर हिमालय के बौद्ध धर्म के सबसे लोकप्रिय देवताओं में से एक माने जाते हैं। करुणा के बोधिसत्व रूप में प्राणी मात्र को देखने, समझने और उनकी देखभाल करने वाले के रूप में भी अवलोकितेश्वर की पहचान रही है। ईशान परियार ने 2016 के बनी अपनी कृति में अवलोकितेश्वर को नाव में सवार दिखाया है। एक्रीलिक में चित्रकार ने हरे, नीले और सुनहरे रंग का उपयोग इस चित्र के लिए किया है।
राजन पंत की कृति ‘रामसेतु ‘ अपने कम्पोजीशन, रंगों तथा विषय वस्तु के प्रति नए किस्म के ट्रीटमेंट के कारण दर्शकों का ध्यान आकृष्ट करती है। राम की वानर सेना द्वारा समुद्र पार करने के लिए बनाई गई ‘रामसेतु’ में समुद्र का नीला जल, लालिमायुक्त आकाश और धरती पर के प्राचीन ढंग के आवास, मनुष्यों और वानरों की चहल – पहल की वजह से बरबस ध्यान आकृष्ट करता है। इस चित्र में आमजनों, बकरी, मुर्गी, कुत्ते के साथ -साथ साइकिल की मौजूदगी चित्र को लौकिक दायरे में ला खड़ा करती है। चित्रकार ने भले एक धार्मिक संदर्भ को ध्यान में रखा हो पर इसे उसकी पौराणिकता से अलग कर दिया है। यही चित्रकार का रचनात्मक हस्तक्षेप है जिसमें पुराने कथा को समकालीन संदर्भ प्रदान किया जाता है। यहां चित्रकार ने रामसेतु के प्राचीन आख्यान का मानों अतिक्रमण कर दिया हो। यह चित्र अपने खूबसूरत रंग चयन के कारण भी विशिष्ट बन पड़ा है।
विनोद कापली द्वारा लकड़ी में बनाए गए ‘हाथू भैरव’ में अपने बारीक काम के देखने लायक है। नेपाल में 450 से 1500 मीटर की ऊंचाई पर मिलने वाले खास किस्म की लकड़ी ‘चनपा’ से मूर्ति बनाई जाती है। इन मूर्तियों को बनने में न्यूनतम तीन से चार महीने लगते हैं। 64X65 सेमी में बनी इस कृति में विनोद कापली ने भैरव के रौद्र रूप को उकेरा है। वैसे भी भैरव को शिव के गुस्सैल स्वरूप के कारण जाना जाता है। भैरव के संबंध में यह एक दिलचस्प तथ्य है कि भक्तगण उन्हें प्रसाद स्वरूप शराब चढ़ाते हैं। इस मूर्ति में फैली आंखें, गले में लिपटा सर्प, माथे पर मुकुट सहित छोटी छोटी नक्काशी भी उभर कर आती है।
ठीक इसी प्रकार विकास महारंजन द्वारा तांबे के मिश्र धातू में बनाई गई आठवीं सदी के बौद्धगुरु पद्मसंभव की मूर्ति आकर्षित करती है। गुरु पद्मसंभव का तिब्बत में बौद्ध धर्म स्थापित करने में महत्वपूर्ण योगदान रहा है जहां उन्हें गुरु रिनपोचे के नाम से जाना जाता है। गुरु पद्मसंभव तांत्रिक थे तथा योगकारा पंथ से उनका ताल्लुक था। बौद्घ अध्ययन के विश्वव्यापी केंद्र में उन्होंने अध्यापन भी किया था। विकास महारंजन ने उन्हें कमल पर बैठे हुए उकेरा है। दाएं हाथ में दंड देने वाला वज्र है जबकि बाईं हाथ में कपाल है। बाईं कंधे पर खटवंग है। बौद्ध दर्शन में इन सब वस्तुओं का एक खास अर्थ हुआ करता है। इस मूर्ति की विशेषता छोटी छोटी चीजों को श्रमपूर्वक बनाए जाने में है। गुरु पद्मसंभव का वस्त्र, कमल, दोनों हाथों का खास मुद्रा में होना, कंधे पर गरिमामयी ढंग से रखे गए जटिल बनावट वाला खाटवंगा, माथे का मुकुट, छाती पर चीवर, चेहरे पर धीर गंभीर भाव यह सब मिलकर इसे बेहद जीवंत और विशिष्ट बना देते हैं। तांबे के मिश्र धातू में बनी यह मूर्ति अपनी चमक और भव्यता के कारण प्रेक्षक को देखते रहने पर विवश करती है।
तांबे और चांदी में ऐसा ही मिलता जुलता काम दीपेंद्र वीर शाक्य का है जिन्होंने अक्षोभ्य बुद्ध की मूर्ति बनाई है। धातु में बने बुद्ध भूमिस्पर्श मुद्रा में नजर आते हैं जिसमें दाहिना हाथ भूमि को स्पर्श करता नजर आता है। इस मूर्ति में भी बुद्ध कमल पर विराजमान हैं। माथे पर मुकुट और गले की माला फिरोजी रंग का है जिसमें लाल मूंगा जड़ा हुआ है। इस सबसे मूर्ति इतनी सुंदर हो जाती है जिससे एक अलौकिक सी आभा टपकती प्रतीत होती है।
तांबे की मिश्रित धातू में दीपेंद्र वीर शाक्य की दीपांकर बुद्ध भी इस प्रदर्शनी का हिस्सा है। बुद्ध के 28 रूपों में एक दीपांकर बुद्ध को माना जाता है। इस मूर्ति में वे खड़े हैं। इस मुद्रा को लोगों को आशीर्वाद देने वाली ‘वरद मुद्रा’ कहा जाता है। कमल के दोहरे स्तर पर दीपांकर बुद्ध की यह मुद्रा शांत व स्थिर भाव को प्रकट करता है।
सूरज शाक्य की 47/27/56 सेमी में बनी ‘भैरव की मूर्ति’ अपने रौद्र रूप में प्रभावशाली बन पड़ी है। भैरव जैसा कि सभी जानते हैं हिंदू धर्म के एक प्रमुख देवता शिव की एक अवस्था है जिसमें वे डरावने व आक्रोशित रूप में नजर आते हैं। भैरव के बारे में यह मिथकीय कथा है कि जब शिव ध्यानमग्न अवस्था में थे तब उनपर अंधक नामक राक्षस ने हमला किया। इसकी प्रतिक्रिया में शिव ने अपना भीषण रूप दिखाकर इस राक्षस को पराजित किया।
तांबे पर सोने और चांदी की महीन परतों से बनी इस मूर्ति में भैरव ने नरमुंडों की माला पहनी है, गले में सर्प, देह में धूत मिला हुआ है। चेहरा किसी हिंसक जानवर से मिलता जुलता प्रतीत होता है। यह सब उनके शमशान और मुर्दों से संबंध को दर्शाता है। मूर्ति में तांबा, सोना और चांदी ने मिलकर इसे आकर्षक बना डाला है। नीली देह, काटने वाली मुद्रा में दांतों का आक्रामक फैलाव, लाल जीभ का बाहर निकला होना तथा आंखों में क्रोध के भाव को इस कृति में अच्छी तरह से उकेरा गया है।
सूरज शाक्य द्वारा तांबे और सोने, चांदी के पानी और तराशे और चमकाए गए रंगीन पत्थरों के टुकड़ों से बनाए गए ‘महाकाली मास्क’ और ‘गणेश मास्क’ भी इसी पद्धति से बनाए गए हैं और प्रेक्षक को ठहरने पर मजबूर करते हैं। सूरज शाक्य का एक अन्य काम ‘श्री यंत्र मंडला’ तांबे पर सोने की महीन परत से किया गया है। यह एक रहस्यमय आकृति है जो ब्रह्मांड के बारे में प्राचीन ख्यालात को प्रकट करता है। ध्यान के माध्यम से अपने अस्तित्व और ब्रह्मांड से उसकी एकता के सिद्धांत को समझने की कोशिश इसमें बताई जाती है।
मदन चित्राकर की कैनवास पर एक्रीलिक से बनाई पेंटिंग ‘गार्जियन्स ऑफ डिवाइन बीइंग्स’ अपनी बनावट और गति के कारण ध्यान खींचती है। इस चित्र में दो शेर एक दूसरे की ओर उन्मादी अवस्था में प्रवृत्त हैं मानो लड़ पड़ने को आतुर हों। वैसे नेपाल में प्राचीन काल से ही शेर विभिन्न राजप्रासादों, मंदिरों, मठों यहां तक कि कुछ निजी आवासों के बाहर दिखाई पड़ जाते हैं। धीरे-धीरे ये शेर अब नेपाल की पहचान से बनते चले गए। चित्रकार ने इसे ही पकड़ने की कोशिश की है। जैसा कि चित्र के टाइटिल से स्पष्ट है कि ये शेर दैवीय अस्तित्व वाले व्यक्तित्व के प्रहरी की तरह हैं। चित्रकार ने शेरों की इस प्राचीन उपस्थिति को पकड़ने की केाशिश की है। इस चित्र का कंपोजिशन, रंगों का बरताव तथा आक्रोशित मुद्रा की आक्रामकता को बखूबी पकड़ा है। शेरों के बाल का लाल व पीला होना, एक दूसरे की ओर मुखातिब उनके देह की लययुक्त गति इसे दर्शनीय बना डालती है।
दीपेंद्र बीर शाक्य का काम ‘इंद्र’ और ‘पार्वती’ प्रचलित हिंदू देवी-देवता माने जाते हैं। ऋगवैदिक देवता इंद्र को खास तरीके से बनाया है जिसमें बैठे हुए अवस्था में उनका दाहिना हाथ आराम की मुद्रा में दाहिने घुटने पर रखा हुआ है, जबकि बाएं ने एक कमल के फूल को पकड़ा हुआ है। तांबे के मिश्रित धातू से बनी मूर्ति की चमक इसे जीवंत बनाती है। वहीं पार्वती को भी बैठे हुए पोस्चर में गढ़ा गया है। पार्वती से जुड़े मिथक को यह मूर्ति पकड़ने की कोशिश करती है। ये दोनों मूर्ति अनौपचारिक ढंग से बैठे हुए अवस्था में चित्रित किये गए हैं। इससे वे ईश्वर कम मनुष्य के नजदीक अधिक प्रतीत होते हैं।
आशा डांगोल द्वारा कैनवास पर ऐक्रेलिक में 92X122 सेमी में किया गया काम ‘ए डे विल कम’ है। इस तस्वीर में ईश्वर और मनुष्य दोनों ने ऑक्सीजन सिलिंडर पहना हुआ है। यह कृति पर्यावरणीय विनाश के प्रति हमें सचेत करने की कोशिश करती है। देवी देवताओं पर केंद्रित चित्रों व मूर्तियों से भरी इस प्रदर्शनी में यह चित्र हमें भिन्न रंग आस्वाद कराता है। सूखते पेड़ को काले रंग से जबकि घोड़ा, गाय और मनुष्य रूपी तीन धड़ों को एक शरीर से जोड़कर हल्के नीली छाया से पेंट किया है। नेपाल के स्थानीय संस्कृति की शास्त्रीय परम्परा में जाकर एक समकालीन संदेश देने की कोशिश दिखती है यह पेंटिंग।
कृष्ण गोपाल श्रेष्ठ ने अपनी कृति ‘आर्किटाइप इन नेपाल आर्ट’ में बुद्ध के जीवन के जन्म से लेकर उनके परिनिर्वाण तक की यात्रा को दिखाया है। कैनवास पर ऐक्रेलिक से 153X183 सेमी में बनी इस कृति में चित्रकार ने, जैसा कि बताया गया है, ग्यारहवीं और पंद्रहवीं सदी की पांडुलिपियों से प्रेरणा प्राप्त किया है। इस चित्र के माध्यम से नेपाल में बौद्ध धर्म की समृद्ध और भव्य परंपरा से परिचित कराती है। चित्र में विभिन्न रंगों का दक्षता से उपयोग किया है। नीला आकाश, सफेद गुंबद, स्लेटी पत्थर की दीवारें, चांदी के रंग का शिखर, ब्रिक कलर में बुद्ध की कथा और संस्कृत के श्लोक यह सब मिलकर चित्र को विशिष्ट बनाते हैं।
नेपाल की कला एक जीवित परंपरा की तरह है जो अपनी प्रेरणा मिथकीय और धार्मिक चरित्रों, घटनाओं, प्रतीकों और रूपांकनों से प्राप्त करती है। इनसे प्रभावित सृजनात्मक कृतियां संस्कृति, परंपरा से गहरे बावस्ता हैं आज भी समकालीन कलाकारों को प्रभावित करते हैं। पूरी प्रदर्शनी में अधिकांशतः शिव, भैरव, लोकेश्वर और बुद्ध की उपस्थिति है। विभिन्न कलाकारों द्वारा बार-बार इन्हीं चारों की मौजूदगी दिखाई पड़ती है।
शिव और लोकेश्वर के चित्रों में चेहरे की मंगोल बनावट को महसूस किया जा सकता है। भारत के शिव से हल्का भिन्न नेपाल के देवता के चेहरे पर स्थानीय विशेषताओं को देखा जा सकता है।
कलाकारों द्वारा लोकेश्वर, बुद्ध, शिव, तारा आदि के भिन्न-भिन्न स्वरूपों को चित्रित किया है। जैसे शदाक्षरी लोकेश्वर, पदमपानी लोकेश्वर, 108 लोकेश्वर, नृत्यनाथ लोकेश्वर, सिंहनाथ लोकेश्वर,अवलोकितेश्वर आदि। बुद्ध की मूर्तियों को देखें तो इसमें दीपांकर बुद्ध, अक्षोभय बुद्ध, वैश्यज्य बुद्ध, पांच बुद्ध, शक्यमुनि बुद्ध,आदि प्रमुख हैं।
बुद्ध पर केंद्रित चित्रों में किशोर नाकर्मी द्वारा एक्रीलिक से बने चित्र ‘बुद्धा ‘ प्रमुख है। बुद्ध के ज्ञान प्राप्ति के दौरान के भीषण संघर्ष को उनके तपस्यारत कृशकाया से दर्शाया गया है। शरीर की अस्थियों के पंजर, बांह के हड्डियां, सूखे हाथ नजर आ रहे हैं पर इन सबका प्रभाव चेहरे के नूर पर नहीं है। शरीर के पीछे से एक आभा प्रकट होती नजर आती है और उसका प्रभाव मुख पर भी है। ज्ञान की खोज में कैसे बुद्ध ने अपनी देह को बेहद विपरीत परिस्थितियों में यंत्रणा सहकर रखा इस बात को यह चित्र सामने लाता है। इस चित्र में किशोर नाकर्मी ने बुद्ध के जीवन के इस महत्वपूर्ण मोड़ को कलात्मक ढंग से पकड़ा है। संघर्ष भरे जीवन के लिए काले रंग से पूरी काया को पेंट किया है। पीछे से उभरती हल्की लाल आभा बुद्ध के मानो आत्मज्ञान को अभिव्यक्त कर रही है।
‘शाक्यमुनि बुद्ध’ में उन्हें बोधगया के बोधि वृक्ष के नीचे भूमिस्पर्श मुद्रा में दिखाया गया है। बुद्ध के आध्यात्मिक ज्ञान को प्रकट करने के लिए खिलते फूलों को चित्रित किया गया है। जैसा कि हम सभी जानते हैं कि बुद्ध ने 29 वर्ष की उम्र में अपना राजपाट छोड़ दिया और छह साल के कठिन तपस्या के पश्चात 35 वर्ष के उम्र में उन्हें ज्ञान प्राप्त होता है। उजय बजराचार्य की यह कृति इसी पहलू को सामने लाती है। यह चित्र सूती कैनवास पर गौचे माध्यम में बनाया गया है।
‘पंच बुद्धा ‘ चित्र कैनवास पर मिनरल पिगमेंट से बनाया गया है। ‘पंच बुद्धा ‘ इसे ‘पंच ध्यानी’ भी कहा जाता है महायान सम्प्रदाय में विशिष्ट स्थान रखता है। जिसके अनुसार बुद्ध का आविर्भाव बिहार में अलौकिक ढंग से हुआ है। स्वतः जन्मे और ज्ञान हासिल किए हुए बुद्ध के पांच नाम हैं वैरोचन, अक्षोभ्य, रत्नसंभव, अमिताभ और अमोघ्यसिद्धि। इन चारों को अलग- अलग मुद्राओं में दिखाया गया है। जैसे बैरोचन सफेद रंग में तो बाकी को नीले (अक्षोभ्य) पीले ( रत्नसंभव ) , लाल (अमिताभ) और हरे (अमोघ्यसिद्धि ) रंग से चित्रित किया गया है।
सीमा साह ने बुद्ध पर केंद्रित अपना चित्र इचिंग तकनीक से बनाया है। इसमें दक्षिण एशिया में बौद्ध धर्म के प्रारंभिक फैलाव को पकड़ा गया है। चित्र के बाईं ओर अफगानिस्तान में छठी सदी में बनी बामियान बुद्ध की मूर्ति, बीच में दूसरी सदी में औरंगाबाद के अजंता गुफाओं में बोधिसत्व पदमपाणि, इसके साथ साथ सबसे दाईं तरफ काठमांडू के चर्चित दीपांकर बुद्ध को चित्रित किया गया है। लुंबिनी और सारनाथ से जुड़े बौद्ध संकेतों को भी चित्र में शामिल किया है।
सीमा साह ने ज्यादातर डार्क कलर का उपयोग किया है। जहां- जहां बुद्ध आएं हैं वहां रौशनी है जो उनके द्वारा फैलाए जा रहे ज्ञान के प्रकाश का द्योतक है। बौद्ध धर्म के प्रतीक चिन्हों जैसे घूमता चक्र के लिए हल्का कत्थई रंग इस्तेमाल किया गया है। सीमा साह ने अपने रंगों के चयन से भी चित्र प्रदर्शनी में शामिल बौद्ध पेंटिंग में विशिष्ट बना दिया है।
प्रचंड मन शाक्य, तारिक नंद बज्राचार्य (रितेश) और सोमन तमांग के सहयोग से जमीन पर बनाए गए रंगीन सिंथेटिक से ‘अस्टमंगल फ्लोर मंडल’ सभी आगंतुकों को अपनी ओर खींचती है । 16X16 फीट में बने इस विशाल कलाकृति में आठ पवित्र प्रतीकों का उपयोग किया गया है। शंख, चक्र, ध्वज, श्रीवत्स, पद्मम, निधान कुंभ, छत्र और सुवर्णमत्सय को इस कलाकृति का हिस्सा बनाया गया है। नेपाल में इन संकेतों को मंदिरों के अलावा निजी भवनों, दीवारों पर म्यूरल पेंटिंग आदि में भी चित्रित किया जाता है। नेपाल में ये आठों प्रतीक गहरे आध्यामिक विश्वास और पारंपरिक व्यवहार को दर्शाते हैं।
उमा शंकर शाह की 127/127 सेमी की कृति ‘रामायण सर्किट’ में मिथिला की लोक कला पर आधारित सीता के पूरे जीवन को उकेरा है। इचिंग पद्धति के माध्यम से सीता के जन्म, उनके राम से मिलन, उनके भव्य विवाह समारोह, जंगल में उनका निर्वासन आदि सब पहलुओं को चित्रित किया गया है। कलाकार ने इसे चित्रित करने के लिए हल्के लाल व पीले रंग का उपयोग किया है।
प्रदर्शनी में एक अन्य ध्यान खींचने वाली कृति है ‘ भैरव इन द सिटी ‘। पृथ्वी श्रेष्ठ द्वारा एक्रीलिक से बनाये गए इस चित्र में शहर के नक्शे की पृष्ठभूमि में एक व्यक्ति द्वारा भैरव के मुखौटे को हाथ में पकड़े दिखाया गया है। रंगों का उपयोग इस चित्र की विशिष्टता है। हरे रंग से शहर का नक्शा, नीले रंग से व्यक्ति का चेहरा और उसके माथे पर बैठा पक्षी और रंगीन मुखौटा यह सब धार्मिक छवियों से थोड़ा भिन्न आस्वाद कराता है। यह चित्र शहरी जीवन के बदलते स्वरूप को दर्शाता है जिसमें पुराने धार्मिक बिंब अब अपना अर्थ खोते से मालूम प्रतीत होते हैं।
इन सबके अलावा गणेश और शिव को केंद्रित कर कई-कई चित्र प्रदर्शनी में शामिल हैं। साथ ही नेपाल में अवतार माने जाने वाली जीवित देवी के रूप में , हिन्दू व बौद्ध दोनों में मान्यता प्राप्त, ‘कुमारी ‘ का हैंड पेपर पर चारकोल और कैनवास पर तैलचित्र जीवंत बन पड़ा है। चित्र इस तरह बनाया गया है कि इसके इर्द-गिर्द एक अलौकिक आवरण सा दिखे। नेपाल में उत्सव के मौके पर ‘कुमारी’ शहर के मुख्य इलाकों में खुद रथ पर सवार घूमती है। उनके साथ छोटे रथ में भैरव और गणेश की मूर्तियां रहा करती हैं। ‘कुमारी’ के दोनों चित्र एंडेंग अंगडेम्बे द्वारा बनाया गया है।
प्रदर्शनी में देवियों के चित्रों की भरमार है। आर्य तारा, मंजुश्री, लक्ष्मी, सरस्वती, वैष्णवी, काली, नवदुर्गा के चित्र चित्रकारों ने मनोयोग से या कहें धार्मिक भावना से ओतप्रोत होकर बनाए हैं। इन देवियों की पारंपरिक छवि इन चित्रों में उतारे गए हैं। देवियों की वेशभूषा, उनकी सवारी और उनके पहचान चिन्ह सबको कैनवास पर लाया गया है।
यह प्रदर्शनी नेपाल में दो धर्मों – हिंदू और बौद्ध धर्म – के समागम और स्वतंत्र अस्तित्व को समाने लाती है। सभी कलाकारों ने देवताओं, ईश्वरों और मिथकों को चित्रित करने में परंपरा प्रदत्त विजुअल्स को ही प्रमुखता दी है। चंद कलाकृतियों को छोड़ कलाकार द्वारा अपनी ओर से उसमें कुछ नया आख्यान या कहें समकालीन प्रसंग से जोड़ने की कोशिश लगभग नहीं की गई है।
धर्म केंद्रित चित्रों के साथ उसकी एक कथा, एक नैरेटिव जुड़ा होता है। ऐसे में चित्र देखने के दौरान चित्र की कलात्मक सौंदर्य के बदले उस कथा की ओर अधिक ध्यान जाता है। चित्र जब देखने के बजाए कथा कहने के माध्यम बन जाए तो प्रेक्षक का स्वाभावतः ध्यान उधर ही चला जाता है। अब यदि चित्र नैरेटिव को सामने ला रहा है तो देखने वाले के मन में यह सहज सवाल उठ सकता है कि वह किन लोगों की कथा कह रहा है और उससे पैदा होने वाला नैरेटीव किसके पक्ष में जाता है? नेपाल आर्ट काउंसिल द्वारा लगाई गई चित्र प्रदर्शनी ‘नेपाल जहां देवताओं का निवास है’ इन सवालों को भी जन्म देती है।
One Reply to “हिंदू और बौद्ध प्रतीकों, मिथकों और छवियों से मोहाविष्ट प्रदर्शनी”
The exhibition was very vibrant …and packed with religious aspects of Nepal as the title indicates…….
The exhibition was very vibrant …and packed with religious aspects of Nepal as the title indicates…….