अनीश अंकुर मूलतः संस्कृतिकर्मी हैं, किन्तु अपनी राजनैतिक व सामाजिक अभिव्यक्ति के लिए भी जाने-पहचाने जाते हैं। उनके नियमित लेखन में राजनीति से लेकर समाज, कला, नाटक और इतिहास के लिए भी भरपूर गुंजाइश रहती है । बिहार के मौजूदा कला लेखन की बात करें तो जो थोड़े से नाम इस विधा में देखने को मिलते हैं उनमें से एक महत्वपूर्ण नाम अनीश अंकुर हैं। उनकी सदैव कोशिश रहती है बिहार से बाहर के कला जगत को बिहार की कला गतिविधियों से रूबरू कराना। इन दिनों बिहार म्यूजियम, पटना में बिहार के तीन वरिष्ठ कलाकारों की पुनरावलोकन प्रदर्शनी चल रही है। आलेखन डॉट इन के अनुरोध पर प्रस्तुत है नरेंद्रपाल सिंह की कलाकृतियों पर उनकी यह विस्तृत समीक्षात्मक रपट……
अनीश अंकुर
बिहार म्युजियम, पटना में नरेंद्रपाल सिंह का रेट्रोस्पेक्टिव
देश के सुप्रसिद्ध चित्रकार नरेंद्रपाल सिंह के चित्रों का रेट्रोस्पेक्टिव ( पुनरावलोकन) आजकल पटना स्थित बिहार म्युजियम में चल रहा है। पिछले 12 मई से शुरू हुई यह रेट्रोस्पेक्टिव अगले एक जून तक जारी रहेगी। बिहार म्युजियम 11 बजे से 5 बजे तक खुला रहता है।
समकालीन भारतीय चित्रकला के मानचित्र पर नरेन्द्रपाल सिंह एक जाने पहचाने नाम हैं। नरेंद्रपाल सिंह के चित्रों की प्रदर्शनी, भारत के विभिन्न राजधानियों, शहरों के अलावा कला के प्रमुख अंतर्राष्ट्रीय केंद्रों जैसे संयुक्त राज्य अमेरिका, जर्मनी, स्पेन दक्षिण कोरिया, इटली, प्राग (चेक गणराज्य) में हो चुकी है।
नरेंद्रपाल सिंह वैसे रहने वाले तो बिहार के नवादा जिले के हैं, परंतु पिछले लगभग साढ़े तीन दशकों से दिल्ली में रह रहे हैं। नरेंद्रपाल सिंह कला अभ्यास के लिए भले दिल्ली में रहते हों, परन्तु उनका एक पांव अपने गांव में गहरे धंसा है। बिहार के अपने गांव कोनंदपुर से उनका जीवंत लगाव है। इस लगाव को उनके चित्रों की प्रदर्शनी से सरसरी निगाह से भी देखने वाले को नजर आ जाएगी। जैसा कि उन्होंने खुद बताया कि उनका परिवार अभी भी गांव में रहता है। गांव की गतिविधियों से उनका सीधा जुड़ाव बना रहा है। वे हर दो तीन महीने पर गांव जरूर आते हैं। ग्राम्य जीवन के गाढ़े रंग की छाप उनके बनाये चित्रों में तो अभिव्यक्त होता ही है, उनके अपने व्यक्तित्व में भी परिलक्षित होता है।
उनके चित्र हमें धूल-धूसरित ग्रामीण लैंडस्केप से शिकागो के डाउनटाउन तक की सैर कराते हैं। सबसे पुराना काम 1989 का है, तबसे एकदम नई पेंटिंग तक से दर्शक रूबरू होता है।1989 में ही नरेंद्रपाल सिंह ने पटना आर्ट कॉलेज से बी.एफ.ए की डिग्री हासिल की थी। 35 वर्षो की इस यात्रा में मेट्रोपॉलिटन जीवन के साथ रूरल सेटिंग में किस प्रकार परिवर्तन आ रहे हैं इसे इस प्रदर्शनी में देखा व महसूसा जा सकता है। बिहार म्युजियम में आयोजित इस प्रदर्शनी को चर्चित कला समीक्षक विनोद भारद्वाज ने क्यूरेट किया है।
नरेंद्रपाल सिंह की कलाकृति ‘बुलबुल बार ‘
इस रिट्रोस्पेक्टिव का नाम है ‘ रेड कॉरीडोर ‘। प्रदर्शनी भवन में प्रवेश करते हुए पहला काम जो ध्यान आकृष्ट करता है वह एक इंस्टॉलेशन है। इसमें चित्रकार ने अपने पूरे जीवन की यात्रा को एक विशाल कैनवास पर उकेरने की कोशिश की है। गांव की पुरानी धुंधली याद जिसमें संध्या समय सड़क पर ट्रैक्टर, गांव से गुजरती, लोगों से लदी बस, जिसमें उसकी छत पर भी रेलमपेल भीड़ है, बस से निकलते धुंए के पीछे दौड़ता कुत्ता, गांव के घरों की बसावट, मां की छवि जो ग्राम्य घरों के साथ बावस्ता है, फिर पटना होते हुए दिल्ली, दिल्ली के मित्र विनोद भारद्वाज, प्रयाग शुक्ल से लेकर यूरोप-अमेरिका की छवियां। सबकुछ इन इंस्टालेशन में सामने लाने की कोशिश नरेंद्रपाल सिंह ने की है। इस पूरी यात्रा को दर्शाने के लिए नीचे में एक सुनहरे सीट वाली रंगीन साइकिल है जो मानो इस पूरी यात्रा की गवाह रही हो। साइकिल हमें अतीत के सैर कराने वाले वाहन की तरह नजर आती है। साईकल, वैसे भी, मनुष्य की सवारी मानी जाती है जिसे कोई भी हवा भरकर मानो स्वप्न में चला जा सकता है। जितनी भी सवारी है उसमें मनुष्य का जैसा राग साइकिल के प्रति है वैसा किसी अन्य वाहन के प्रति नहीं है। ग्राम्य जीवन के साथ साइकिल और घरेलू पशु कुत्ता नरेंद्रपाल सिंह के सृजन संसार का अविभाज्य हिस्सा प्रतीत होता है।
कलाकृति: नरेंद्रपाल सिंह
उनका एक चित्र है ‘ रेड बाइसिकिल’ जिसमें रूरल सेटिंग में साइकिल सवार अपने परिवार पत्नी, बच्चे और पालतू पशु छोटे कुत्ते को सब कुछ साइकिल पर ही रखे हुए है। साइकिल तेज़ रफ़्तार से मानो घर को भागी जा रही हो और एक आवारा कुत्ता साइकिल के पीछे भाग रहा है। पूरा वातवारण लाल रंग से आच्छादित है। जैसे संध्या की लालिमा उतरती जा रही है और साइकिल पर एक भरा-पूरा परिवार जल्दी से घर पहुँचना चाहता है। साइकिल की तेज़ रफ़्तार, भागते कुत्ते की भंगिमा देख एक प्यारी मुस्कान देखने वाले के चेहरे पर स्वतः उभर जाती है।
नरेंद्रपाल सिंह का रेट्रोस्पेक्टिव देखते हुए दो चीजें बरबस कौंधती है; पहला उनका रचना संसार इतना विविध, व्यापक और बहुस्तरीय है कि हैरत होती है। दूसरा जीवन उनके यहां मानो फटा पड़ता है। जिंदगी रंगों में बहती प्रतीत होती है। मूर्त तथा अमूर्त के मध्य इतनी स्वाभाविक आवाजाही है कि कई दफे इसका एहसास ही नहीं होता। अमूर्त भी मूर्त रुप ग्रहण कर लेता है।
नरेंद्रपाल सिंह कैनवास पर एक्रिलिक, टेराकोटा पर एक्रिलिक, मिक्स्ड मीडिया, चारकोल, इंक, पेपर पर ऑयल पेस्टर यानी मीडियम के स्तर पर कई प्रयोग हैं।
रंगों की सांद्रता नरेंद्रपाल सिंह की विशेष पहचान है। बाकी कलाकारों के तरह हल्के रंगों के बजाए गाढ़े रंगों के प्रति उनका अनुराग पूरी प्रदर्शनी में दिखाई पड़ता होता है। लोकजीवन में चटख व गाढ़े रंगों की उपस्थिति नरेंद्रपाल सिंह का कहें सिग्नेचर सा बन चुका है।
नरेंद्रपाल सिंह के यहां लोकसंसार का वह हिस्सा अधिक लगाव से चित्रित किया गया है जो अब धीरे-धीरे हमारी पटल से विस्मृत सा होता जा रहा है। जैसे ‘जर्नी ऑफ जॉय’ में बेहद लगन से हर उस सार्वजनिक सवारी को चित्रित किया गया है जो अब प्रचलन से बाहर होते जा रहे हैं या कहें हो चुके हैं। जैसे पालकी, हाथ गाड़ी, स्टीम इंजन, सायकिल, टायर गाड़ी, घोड़ा गाड़ी। इन सब सवारियों पर ग्रामीण लोगों की मौजूदगी एक स्थायी उपस्थिति है।
नरेंद्रपाल सिंह के यहां मनुष्य अपनी पूरी गरिमा व वैभव के साथ आते हैं। ‘जॉय ऑफ जर्नी ‘ का कम्पोजीशन कुछ इस प्रकार है कि सभी एक दूसरे से होड़ लेती हुए भी एक लय, एक रिदम में बंधे हैं। हर सवारी पर मनुष्य की आकृति अपनी विभिन्न मुद्राओं में नजर आती है। इस सवारियों के साथ हमारी सामूहिक स्मृति जुड़ी रही है।
प्रदर्शनी में एक ओर जहां लोकसंसार है वहीं दूसरी ओर अमेरिका के शिकागो शहर की छवियां भी हैं। बड़ी इमारतें, कारें तथा अन्य प्रतीकों द्वारा चित्रकार ने शहर के डाउनटाउन इलाके तो मुख्य इलाकों को शहर की चहल-पहल के साथ पकड़ने की कोशिश की है। जब विदेशी शहरों को नरेंद्रपाल सिंह ने पेंट किया है, पता नहीं क्यों मानव आकृति कम होती गई है। वहीं जब वे अपने गांवों का जीवन कैनवास पर लाते हैं तो मनुष्य उसकी उद्दाम जिजीविषा जीवंतता से झांकते हैं। चित्रकार का इशारा ग्राम्य जीवन का तमाम अभावों के बावजूद जिंदगी से लबरेज होना था। वहीं विदेशों में उसका अभाव का होना हो सकता है। हालांकि शहर कई चित्रों में अपनी विशिष्टता और गौरव के साथ भी अभिव्यक्त हुआ है।
ब्लू व बुलबुल बार:
‘ब्लू बार’ व ‘बुलबुल बार’ इस प्रदर्शनी का एक दिलचस्प चित्र है। ‘ ब्लू बार’ जहां शहरों के तो ‘ बुलबुल बार ‘ कस्बों व गांवों के शराबखाने का जीवंत चित्रण करता है। ‘ ब्लू बार ‘ में नीले रंग का इम्प्रेशन बड़े शहरों या विदेशों के नियोन लाइट वाले आधुनिक बार का अहसास दिलाता है जिसमें शहरी या मेट्रोपॉलिटन आकृति के बीच एक साड़ी पहनी महिला का वेटर के रूप में चित्रण एक दिलचस्प वातावरण की सृष्टि करता है।
वहीं ‘बुलबुल बार’ में ताड के पेड़ से ताड़ी उतारने से लेकर देहाती शराबखाने का केओसनुमा माहौल है जिसमें शराब के साथ लिए जाने वाले सामग्री, जिसे स्थानीय भाषा मे ‘चखना’ की संज्ञा दी गई है, के दामों का विवरण तक में महसूसा जा सकता है। दोनों चित्रों में लोगों की बहुतायत है, सभी अपने मे रमे हैं, अपनी ही दुनिया में खोए हैं। रंगों व रेखाओं का संयोजन कुछ इस प्रकार का है मानों चित्र नशीली आंखों से देखा गया हो।
एक चित्र ‘ फॉल इन लव’ को थोड़ा हल्के रंग से पेंट किया गया है। छोटे -छोटे रास्ते, ऊपर नीचे बने घर, हल्की बारिश, कहीं कहीं अलग-अलग भंगिमाओं में खड़े लोग आपको एक दूसरी दुनिया में ले जाता है। पेंटिंग के विषय से मेल न कहते हुए कई अलग अर्थ प्रदान करता हुआ। नरेंद्रपाल सिंह के कई चित्रों में जो विषय वे अपने लिए निर्धारित कर रहे होते हैं उसमें प्रवेश का उनका तरीका कई बार गैरपारंपरिक होता है। एक सब्जेक्ट में दर्शक को ले जाने का तरीका अलहदा होने के साथ अनूठा भी है। कई दफे सम्भव है बिल्कुल जानी-पहचानी छवियों का उपयोग कर रहे हों लेकिन वह प्रचलित अर्थ का अतिक्रमण करती नजर आती है।
नरेंद्रपाल सिंह के इस पुरावलोकन में चित्रों की कई श्रृंखलाएं हैं। नायिका सीरीज, पंचतंत्र सीरीज, मूड सीरीज, नेचर सीरीज, कैसानोवा सीरीज, ड्रीम सीरीज, क्लाउन सीरीज, फिग लीफ सीरीज में कई चित्र हैं। ये कई माध्यमों में बनाये गए हैं। मूर्त व अमूर्त दोनों में। अमूर्त भावों को प्रकट करने में भी नरेंद्रपाल सिंह ने सृजनात्मकता का परिचय दिया है। हल्के रंग काफी कम उपयोग में लाये गए हैं। चित्र इंटेंस फीलिंग से बनाये गए हैं। अमूर्त चित्र में भी काफी ताकत रहा करती है। कहा भी जाता है ‘ पावर लाइज इन अब्स्ट्रेक्शन’। अमूर्तन की शक्ति को नरेंद्रपाल सिंह ने पहचाना और भावों की जटिलता, बदलती मनोदशा के लिए रंगों का चयन अमूर्तन शैली में बेहद सावधानी से किया गया है।
पंचतन्त्र श्रृंखला:
पंचतंत्र श्रृंखला में चित्रकार ने विभिन्न जानवरों यथा सियार, सांप, कुत्ता, बिल्ली, लोमड़ी, बाघ, शेर , घड़ियाल, खरगोश, चूहा, चिड़िया, हाथी आदि को इस प्रकार संयोजित किया है कि वे एक दूसरे से संवाद करते नजर आ रहे हैं। ठीक उसी तरह जैसे मनुष्य आपस में करते हैं। इन पशुओं के चेहरों में मानव आकृति की छाया है। यानी मनुष्य के स्वभाव जैसे लोभ, लालच, ईर्ष्या, द्वेष, खुशी जैसे भावों को जानवरों के माध्यम से बखूबी प्रकट किया गया। जिन लोगों ने ‘पंचतंत्र’ पढ़ा है; वे इसे और बेहतर समझ सकते हैं। नरेंद्रपाल सिंह ने रंगों का चुनाव भावों व मनःस्थिति को प्रकट करने के लिए किया है। सभी चित्र चटख रंगों से बनाये गए हैं।
फिग लीफ:
‘फिग लीफ’ की दो तीन तस्वीरों में वक्ष के उभार और कंचुकी पर नए हरे पत्ते उसपर ओस की बूंदों को , डिजिटल प्रिंट के माध्यम से कई रंगों की पृष्ठभूमि में कुछ इस प्रकार संयोजित किया है जो नया जीवन, सृजन तथा उर्वरता को प्रकट करता है।
नेचर श्रृंखला:
ठीक ऐसे ही नेचर शृंखला में कई तस्वीरों में रंगों का मन के अंदर के उन भावों को जागृत करते प्रतीत होते हैं जब हम नेचर के सौंदर्य को देखकर अपने अंदर महसूस करते हैं। उन अहसास को नेचर श्रृंखला में भिन्न रंग परियोजना अपनाई गई है । कई दफे प्राचीनता का भी बोध कराते हैं ये चित्र।
मूड श्रृंखला :
मूड श्रृंखला में अमूर्तन का सहारा लिया गया है। माध्यम पेपर पर एक्रिलिक रखा गया है। भिन्न-भिन्न स्थितियों व मौकों पर मूड कैसे बदलता है इसे नरेंद्रपाल सिंह ने रंगों, रेखाओं व आकृतियों से दर्शाने की कोशिश की है। एक रंग दूसरे में समाहित होते जाते प्रतीत होते हैं। कहीं तीव्र तो कहीं हल्के रंगों के माध्यम से मन में मच रही उथल-पुथल या भावनाओं को आकार दिया गया है।
कैसानोवा श्रृंखला:
कैसानोवा श्रृंखला में नरेंद्रपाल सिंह ने पेपर पर इंक या मिक्स्ड मीडिया का सहारा लिया है। कैसानोवा में काले रंग को केंद्रीयता प्रदान किया है। पेपर पर इंक में काले व सफ़ेद तो मिक्स्ड मीडिया में कुछ दूसरे रंग में कैनवास पर आते हैं पर काला रंग प्रधान बना रहता है। यह रंग इस शब्द के साथ जो नकारात्मक भाव छिपा है उसे अभिव्यक्त करता सा प्रतीत होता है।
नायिका श्रृंखला:
नायिका सीरीज में नरेंद्रपाल सिंह ने माध्यम में थोड़ा बदलाव किया है टेराकोटा पर एक्रिलिक के इस्तेमाल के द्वारा नायिकाओं की एक प्रचलित छवि से इतर उनकी अलग-अलग मुद्राओं को पकड़ने की कोशिश की गई है।
नरेंद्रपाल सिंह का कला वैभव उनके प्रिय विषय लोक जीवन में में पूरी तरह निखर कर आता है। जीवन की छटा, उसका सौंदर्य, मुश्किलों के बीच भी आमलोगों की जीने खुल कर आती है। इस जीवन की छवियां हमारे लैंडस्केप से गायब होती दिखती हैं। शोर, झंझट, और एक अस्त-व्यस्त माहौल के बीच भी वहां जीवन से , लाइफ से भरपूर नजर आती है।
बस की छतों पर एक दूसरे से सटकर, बड़ी संख्या में बैठकर शहर की ओर जाते लोगों की भीड़ पूरे उत्तर भारत की पिछले तीन दशकों का प्रचलित बिम्ब है। यह बिम्ब नरेंद्रपाल सिंह की तस्वीरों में कई बार आया है। नरेंद्रपाल सिंह के यहां भीड़ , शोर, केओस और कुत्ता हर कहीं नजर आ जा सकता है।
एन्सेस्टर श्रृंखला :
‘एन्सेस्टर’ सीरीज नरेंद्रपाल सिंह में पेपर पर चारकोल की सहायता से बनाया है। तीन चार रेखांकनों में चित्रकार ने मात्र रेखाओं की सहायता से हमारे पूर्वज, हमारे एन्सेस्टर माने जाने वाले बंदरों की आकृति बनाई है। इस सीरीज में मात्र एक दो चित्र मिक्स्ड मीडिया में भी बने हैं। रेखाओं से मुद्राओं व भंगिमाओं को प्रकट किया गया है।
एकांत श्रृंखला:
एकांत श्रृंखला को अधिकांश चित्रों की तरह एक्रिलिक से बनाया गया है। एकांत के मनोभाव के लिए चित्रकार ने हल्का पीला, ग्रे , हल्का कत्थई, सफ़ेद आदि रंगों का उपयोग किया है। चटख रंगों से यहां थोड़ा परहेज किया गया है। अमूर्त चित्र अलग-अलग मनोभावों को प्रकट करते हैं। मन में उठने वाले भावों को प्रकट करने के लिए अमूर्तन मुफ़ीद हुआ करता है। चित्र से मन मे उठने वाले तूफान, उदासीनता, अन्यमनस्कता जैसी मनोदशा सामने आती है।
नरेंद्रपाल सिंह के अन्य प्रमुख चित्र हैं टेराकोटा पर एक्रिलिक से किया गया काम। उसमें ‘शक्ति’, ‘फैमली’ ‘राजा’ ‘गजराज’ ‘गुड़िया’ ‘तितली’, लास्त्रादा, जेनेसिस, नन्दी अपने विषय के बजाए अपने माध्यम, तकनीकी दक्षता के कारण देखने वाले को ठहरने के लिए विवश करते हैं। ‘माया’ में भले सुबह झाड़ू लगाती एक बनी-ठनी युवती के प्रति चाय पीने वालों की कौतुक निगाहों को उस पूरे माहौल के साथ अभिव्यक्त करता है। जिसमें गाय, कुत्ता, पेड़, पीछे बने घर, रिक्शा सब मानों किसी कस्बे के दृश्य को सामने लाते हैं। वृद्ध पुरुष की हाथ चाय की प्याली पर और निगाह झाड़ू वाली के मादक सौंदर्य पर एक मोमेंट को सामने लाता है। झाड़ू लगाने वाली स्त्री की मौजूदगी कैनवास पर इस कदर हावी किया गया है कि देखने वाले को वह माया की भांति नजर आती है।
अन्य चित्र जैसे क्लाउन, सर्कस, कार्निवाल, हैप्पी लाइफ, डाकबंगला, अप्सरा, गंगाधर, जीवन के विभिन्न लम्हों को लाने के साथ -साथ अपनी रंगों व रेखाओं के संतुलन के लिए देखे जाने चाहिए। ‘कोहबर’ शीर्षक चित्र जहां अपने ब्यौरों पर नजर के साथ-साथ अपनी रंग परियोजना की वजह से भी ध्यान खींचती है। ‘ सत्यवती’ मछली बेचने वाली सजी संवरी स्त्रियों के समूह के उल्लास को पकड़ता है। बर्तन के पानी में बैठकर जिंदा मछली बेचने वाली स्त्री, घूमकर बेचने वाली स्त्रियों की उन्मुक्तता को यह चित्र सामने लाता है। ग्राहक, बच्चा और कुत्ते की चित्र में उपस्थिति उस माहौल से बावस्ता हैं जहां यह कार्यव्यापार घटित हो रहा है। रंगों का संयोजन इतना सुंदर है कि बरबस आंख टिक जाती है।
नरेंद्रपाल सिंह के चित्रों के ग्रामीण माहौल वाले चित्रों में कुत्ता स्थायी रूप से मौजूद रहता है। अधिकांश चित्रों में कुत्ता अमूमन चुपचाप बैठे दर्शक की तरह सबकुछ घटित होते देखता नजर आता है। कुत्ता अलग-अलग हरकतों व मुद्राओं में बना रहता है। दौड़ता कुत्ता, निहारता हुआ, बस चुपचाप देखता हुआ, कभी-कभी उत्सुक नजरों से घूरता नजर आता है। वैसे भी ग्राम्य जीवन में कुत्ता एक सार्वजनिक मौजूदगी है।
समकालीन चित्रकला की एक पहचान निरन्तर मनुष्य की आकृति का न्यून से न्यूनतर होते जाना भी है। चित्रकला से मनुष्य का चेहरा ही गायब साहोता चला गया। नरेंद्रपाल सिंह उसे कैनवास पर वापस लाते हैं। नरेंद्रपाल सिंह ने ग्राम्य भारत मे रहने वाले मेहनतकश मनुष्य को जो मुख्यधारा की मीडिया , बहस व चिंतन से बहिष्कृत है उसे केंद्र में लाने का प्रयास किया है। यह रेट्रोस्पेक्टिव यह बताती है कि पूंजीवादी विकास की दौड़ में हजारों वर्षों में बनी सभ्यता को खत्म कर रहे हो उसे बचाने की जरूरत है। उन लोगों की चिंता करने की आवश्यकता है जिन्हें भुला देना हमने प्रगति की निशानी समझ लिया है। नरेंद्रपाल सिंह हमारे ‘फोक’ की नयनाभिराम छवियां रचने वाले चित्रकार हैं।
नरेंद्रपाल सिंह के चित्रों के देखते हुए यह सवाल मन में उठता है कि जिस ग्रामीण भारत में पिछले तीन दशकों के दौरान सबसे अधिक कहर बरपाया गया। नवउदारवादी नीतियों के कारण चार लाख किसान आत्महत्या को मजबूर हो गए, खेती लगभग चौपट कर दी गई । दूसरे शब्दों में कहें कि गांवों की ज़िंदगी इतनी बेरंग और फीकी है तो नरेंद्रपाल सिंह के चित्रों में इतना अधिक गाढ़ा व चटख रंग क्यों है? लेकिन नरेंद्रपाल सिंह तस्वीर के दूसरे पहलू की ओर नजर डालते हैं वे विलुप्त होते जा रहे उस जिंदगी की याद दिलाते हैं जिसमें काफी रंग रहा है, जीवनोल्लास रहा है। वे उस लोक संसार को सामने लाते हैं जो तमाम दुःख, तकलीफों, अभावों के बावजूद ज़िंदगी से लबरेज है। उसकी हंसी, खुशी, राग है। इसी पहलू को नरेंद्रपाल सिंह ने उकेरने की कोशिश की है। इन्हीं वजहों से रंग दिखाई पड़ता है।
कैनवास पर चित्रित रंग हमें जीवन में रंग लाने के सामूहिक प्रयास की प्रेरणा दे सकता है। इस प्रकार जीवन से गहरा व अंतरंग लगाव उन्हें पुरानी दुनिया को चित्रित करने के बहाने एक नए संसार की रचना करने में सक्षम बनाता है। जैसा कि वे खुद भी कहते हैं ” मानव जाति , प्रकृति में उपस्थिति सभी जीवजंतु मेरी चित्रों के अहम अंग होते हैं। सभी के साथ मेरा अंतरंग संबंध है। इसी कारण मैं रंग संयोजन एवं रेखाओं के द्वारा नवीन संसार को चित्रित कर पाता हूँ।”
यह प्रदर्शनी 1 जून तक चलेगी । बिहार म्युजियम 11 बजे से 5 बजे तक खुला रहता है। यदि गर्मी का मौसम देखते हुए शाम 7 बजे तक इसे बढ़ा दिया जाए तो देखने वालों की संख्या में काफी इजाफा हो सकता है।