यह एक सुखद संयोग है कि अपने कॉलेज के दिनों से निवेदिता झा से परिचित रहा हूँ। एक जुझारू छात्रा के तौर पर देखता रहा, किन्तु किसी संवाद जैसी स्थिति तब नहीं थी। बाद के वर्षों में हम एक ही अख़बार से दशकों जुड़े रहे, हालाँकि निवेदिता पटना में थीं और मेरी नियुक्ति नोएडा में थी। निवेदिता संवाददाता के तौर पर बिहार में सक्रिय थीं, विभिन्न मुद्दों पर उनकी कलम चलती रहती थी। लेकिन मेरी रूचि उनके कला लेखन में थी, यह अलग बात थी कि उनका यह कला-लेखन कुछ रुक रूककर चलता रहा है। जबकि मेरी अपेक्षा हमेशा से थी कि उनका यह कला-लेखन नियमित हो। निःसंदेह आज निवेदिता की पहचान एक जुझारू सामाजिक कार्यकर्त्ता, लेखिका और कवियित्री वाली है। किन्तु आज भी मेरी अपेक्षा यही है कि वे कला-लेखन को कुछ और समय दें। बहरहाल बिहार म्यूजियम, पटना में चल रही तीन वरिष्ठ कलाकारों की पुनरावलोकन प्रदर्शनी पर उनकी यह टिप्पणी यहाँ प्रस्तुत है। इन तीनों प्रदर्शनियों के क्यूरेटर के नाते मेरे लिए यह टिप्पणी महत्वपूर्ण है।
– सुमन कुमार सिंह
किसी भी कला को आप कैसे देखते हैं? मैं कला को वैसे देखती हूं जैसे वे मेरी जिन्दगी का हिस्सा हो। मुझे लगता है मेरे लिए रोटी जितनी ज़रूरी है कला भी उतनी ही ज़रूरी है। कला से आप इसलिए जुड़ते हैं कि उसमें आपके जीवन के बिंब नज़र आते हैं । मुक्तिबोध कहते हैं कला आपकी आत्मा का गुप्तचर है। दुनिया की तमाम कलाएं जीवन को ही रचती रही है। आप रचते कैसे हैं और किसलिए ये जरूरी सवाल हैं। मुझे हाल में बिहार के तीन कलाकारों की पेंटिंग और फोटोग्राफी देखने का मौका मिला। बिहार म्यूजियम में लगे इस खूबसूरत प्रदर्शनी ने कला की दुनिया को नए रंग और नई जमीन दी है। तीनों कलाकारों की कला में मानवीयता का विस्तार है। वीरेश्वर भट्टाचार्य, शेलेंद्र कुमार और त्रिभुवन कुमार देव की कला से गुजरना एक अनोखा अनुभव था। कला का काम है अपने समय के विचलनों को दर्ज करना। अपनी दुनिया के सुख, दुख,मनुष्य की, स्थिति उसके स्वपन और विडंबनाओं के लिए उसमें जगह बनाना। शेलेंद्र और वीरेश्वर दा के काम को देखती रही हूं। बिहार की कला को अगर पहचान मिली है तो उसमें वीरेश्वर दा का नाम शुमार है। वे बेहतरीन कलाकार है।
शैलेंद्र दोस्त हैं मेरे। इसलिए उन्हें और नजदीक से देखा है। उनकी फोटोग्राफी को देखते हुए महसूस होता है जैसे जिन्दगी आपके पास हो। जिसमें सब समाहित है। उनकी फोटोग्राफी में आपको पूरी दुनिया की गूंज सुनाई देगी। दबी ठिठुरती आवाजें, भजन की कुछ पंक्तियाँ, ठंडी रेत, चाँदनी रात और किसी बूढ़े स्नानार्थी का काँपता स्वर, ट्रक का चलना। पिंडदान, बनारस, गया और बुद्ध की प्रतिमा, मजदूरों की मेहनत सबकुछ मिलकर दुनिया का ऐसा अनोखा रंग बनता है जहां कला की सारी विधाएं आपस में मिलती हैं। आप यकीन नहीं करेंगे ये फोटोग्राफी है।
त्रिभुवन देव की पेंटिंग प्रकृति से उपजी है। वे अपने समय के विचलनों और उद्देलनों की चौकसी करते हैं। उनकी पेंटिंग में प्रकृति के सारे रंग दिखाते हैं। रंगों का अदभुत संयोजन है। खास कर पहाड़ों को देखना। पथरीली पगडंडी, झाड़-झंखाड़, दूर-दूर तक खड़े मिट्टी के ढूह, पीले और सफेद दागों से दगे हुए पहाड़। नीली आभा से दमकते पहाड़। ज्ञान, कला, जीवन का एस्थेटिक सौंदर्य यहीं पाया हमनें। पेंटिंग में पहाड़ जहां से शुरू है। उसके नीचे लंबी घास पानी में भीगती रहती है। किनारे पर पत्ते लगातार उन पर झरते रहते। पानी बहता रहता है। ये दृश्य हैं जिसमें आप खुद को पाते हैं। तीनों कलाकार जीवन से जुड़े हैं। इसलिए उनकी कला मनुष्य से प्रकृति से नजदीक है। मैं चाहती हूं आप सब ज़रूर कला के इन तमाम रंगों से सराबोर हों। मैं तो रंग के दरिया में डूब कर आई हूं। जो डूबा सो पार।