अखिलेश निगम जी की प्रिंटाज़ शैली के बारे में उन्हीं के शब्दों में लिखना अधिक सटीक होगा। कहते हैं आवश्यकता आविष्कार की जननी होती है। बस इसी आवश्यकता से प्रिंटाज़ शैली की उत्पत्ति हुई। वह जीवन का कठिन दौर जरूर था परंतु कलाकर्म भी बंद नहीं करना था। अभिव्यक्ति के लिए माध्यम की बाध्यता जरूरी नहीं होती। वर्तमान आधुनिक कला में हो रहे विभिन्न माध्यमों के प्रयोग ने इसे सिद्ध कर दिया है। इसी उहापोह के बीच एक दिन कालेज में साइक्लोस्टाइल मशीन (तब तक फोटोस्टेट मशीन नहीं आयी थी) के पास पड़े प्रयुक्त स्टेंसिल पेपरों पर नज़र पड़ी, और एक विचार मन में कौंधा।
Akhilesh Nigam
आर्ट स्कूल में लिथोग्राफी मेरा प्रिय विषय रहा था। तभी कुछ मोनोप्रिंट्स भी किये थे। बस उन प्रयुक्त स्टेंसिल पेपरों में कुछ रूप तलाशे, कुछ प्राकृतिक साधनों यथा पौधों की शाखाएं, पत्तियों आदि-आदि का सहारा लिया, और मोनोप्रिंट तकनीक से कुछ छापे निकालने शुरू किये। परिणाम चौंकाने वाले आये। पहले पहल तो कुछ समय तक श्वेत-श्याम चित्रों की रचना ही करते रहे पर धीरे-धीरे उनमें जल-रंग,ऑयल पेस्टल,पेंसिल आदि का प्रयोग भी शुरू किया। इस बीच मनमाफिक रूप गढ़ने के लिए ‘कोलाज़’ तकनीक का भी सहारा लिया। परिणाम और बेहतर आने लगे। धीरे-धीरे विभिन्न राज्यों एवं अखिल भारतीय कला प्रदर्शनियों आदि में इस शैली के चित्रों के चयन से बड़ा बल मिला। तभी इन चित्रों की एकल प्रदर्शनी का मन बनाया। राज्य ललित कला अकादमी के सहयोग से वर्ष 1980 के मार्च माह में लखनऊ स्थित अकादमी की कला वीथिका में ‘माध्यम कीखोज’ शीर्षक से इस विधा के चित्रों की लगी प्रदर्शनी में प्राप्त प्रतिक्रियाओं ने मेरे आत्मविश्वास को और बढ़ाया।
इस प्रदर्शनी के बाद ही जाने-माने चित्रकार एवं कला समीक्षक तथा बी.एच.यू दृष्य कला संकाय प्रमुख प्रो. राम चन्द्र शुक्ल का लखनऊ आगमन हुआ और इन चित्रों को देखने के लिए वे मेरे घर पधारे। जहां चित्रों पर हुई चर्चा के मध्य उन्होंने इस विधा या शैली के चित्रों का नामकरण ‘प्रिंटाज़’ रखा अर्थात प्रिंट औरकोलाज़ से उत्पन्न हुई शैली। उनके साथ चित्रकार, कहानीकार और कला समीक्षक घनश्याम रंजन भी आयेहुए थे। उन्होंनेतभीइस नामकरण पर एक लेख आजकल पत्रिका में लिखा था।
हिम्मत बढ़ी तो प्रिंटाज़ शीर्षक से नई दिल्ली स्थित रबीन्द्र भवन कला-दीर्घा में उसी वर्ष अक्तूबर माह में एकल प्रदर्शनी लगाई। जिसमें कलाकारों,कला समीक्षकों दर्शकों और प्रेस आदि की प्रतिक्रियाओं ने प्रिंटाज़ को प्रिंटाज़ होने की मोहर लगा दी। कुछ अंतराल के बाद ही भारत सरकार के मानव संसाधन विकास एवं शिक्षा मंत्रालय ने प्रिंटाज़ शैली के विकास पर काम करने हेतु मुझे फेलोशिप प्रदान कर इसे और गति दे दी। परिणाम दिखने लगे।
इस शैली को लेकर कुछ भ्रांतियां भी सामने आयीं जैसे इसे छापा कला (ग्राफिक) की एक विधा समझा गया परंतु यहां मैं यह स्पष्ट करना चाहूंगा कि ‘प्रिंटाज़’ छापा कला नहीं है क्योंकि छापा कला में हम एक प्लेट के कई अक्स या छापे ले सकते हैं लेकिन प्रिंटाज़ में ऐसा संभव नहीं है। इसलिए इस विधा को मैं चित्रकला की श्रेणी का ही मानता हूं।
प्रिंटाज़ शैली के चित्र राष्ट्रीय कला प्रदर्शनी, भारत भवन बिनाले तथा देश की अन्य महत्वपूर्ण कला प्रदर्शनियों सहित अन्तर्राष्ट्रीय कला प्रदर्शनियों आदि में स्थान पाते रहे और पुरस्कृत भी हुए। वहीं राष्ट्रीय आधुनिक कला संग्रहालय,ललित कला अकादेमी (नई दिल्ली),भारत भवन (भोपाल), राज्य ललित कला अकादमी (लखनऊ) जैसे महत्वपूर्ण संग्रहों के अतिरिक्त कई बाहरी देशों में भी प्रिंटाज़ शैली के चित्र संग्रहीत होते गये।