चाक्षुष अनुभव को समृद्ध करने वाली चित्र प्रदर्शनी

अनीश अंकुर मूलतः संस्कृतिकर्मी हैं, किन्तु अपनी राजनैतिक व सामाजिक अभिव्यक्ति के लिए भी जाने-पहचाने जाते हैं। उनके नियमित लेखन में राजनीति से लेकर समाज, कला, नाटक और इतिहास के लिए भी भरपूर गुंजाइश रहती है । बिहार के मौजूदा कला लेखन की बात करें तो जो थोड़े से नाम इस विधा में सक्रिय हैं उनमें से एक महत्वपूर्ण नाम अनीश अंकुर हैं। उनकी सदैव कोशिश रहती है बिहार से बाहर के कला जगत को बिहार की कला गतिविधियों से रूबरू कराना। पिछले दिनों बिहार म्यूजियम, पटना में बिहार के तीन वरिष्ठ कलाकारों की पुनरावलोकन प्रदर्शनी आयोजित हुयी। आलेखन डॉट इन के अनुरोध पर प्रस्तुत है कलागुरु बीरेश्वर भट्टाचार्य के सृजन संसार पर उनकी यह विस्तृत समीक्षात्मक रपट……

Anish Ankur
  • बिहार म्युजियम, पटना में वीरेश्वर भट्टाचार्य के चित्रों का पुरावलोकन।

बिहार म्युजियम में आजकल फिर से तीन कलाकारों का रिट्रोस्पेक्टिव चल रहा है। वीरेश्वर भट्टाचार्य, त्रिभुवन देव तथा शैलेंद्र कुमार के कामों का पुनरावलोकन पटना के कला जगत के लिए एक महत्वपूर्ण आयोजन है। 10 जून से शुरू हुई यह प्रदर्शनी 30 जून तक जारी रहेगी।

इन तीनों में सबसे बुजुर्ग चित्रकार, वीरेश्वर भट्टाचार्य के चित्रों की प्रदर्शनी पटना शहर के लिए एक परिघटना की तरह है। संभवतः पहली बार उनके संपूर्ण कला संसार से परिचित होने का अवसर पटनावासियों को मिल रहा है। वीरेश्वर भट्टाचार्य 1959 से 1993 तक आर्ट कॉलेज में अध्यापन कार्य करते रहे। वे लोकप्रिय शिक्षक माने जाते रहे हैं जिसने बिहार के कला जगत की कई पीढ़ियों को प्रशिक्षित किया है। उनके कई छात्र आज कला-जगत के सुपरिचित नाम हैं। कला जगत के साथ-साथ वीरेश्वर भट्टाचार्य संपूर्ण सांस्कृतिक जगत में जाने-पहचाने जाते रहे हैं। उनके चित्रों की प्रदर्शनी देश- विदेश के विभिन्न कलाकेंद्रों पर प्रदर्शित हुई है। पटना हाईकोर्ट में सुभाषचंद्र बोस की लाइफ साइज तस्वीर, गिरिडीह में जगदीश चंद्र बसु का व्यक्तिचित्र और संसद भवन के भूतल के पैनल संख्या 48 पर बीजापुर के इब्राहिम आदिलशाह ओर चांद बीबी की म्युरल पेंटिंग सार्वजनिक रूप से प्रदर्शित उनके प्रमुख काम हैं। वे ललित कला अकादमियों की अलग-अलग समितियों में रहे हैं। बिहार में कला के प्रति अभिरूचि जगाने में प्रदशर्नियां आयोजित करने से लेकर पत्रिका का प्रकाशन कर बिहार के कला जगत से देश को परिचित कराने में वीरेश्वर भट्टाचार्य की भूमिका अतुलनीय रही है।

कलागुरु वीरेश्वर भट्टाचार्य

87 वर्षीय वीरेश्वर भट्टाचार्य पिछले एक दशक से भी अधिक वक्त से कोलकाता में रह रहे हैं। वीरेश्वर भट्टाचार्य मूलतःपूर्वी बंगाल के रहने वाले थे परन्तु विभाजन के बाद उनके परिवार को जान बचाकर मुश्किल परिस्थितियों में भाग कर भारत आना पड़ा था। वीरेश्वर भट्टाचार्य उस वक्त 15 वर्ष के थे। परन्तु उनके चित्रों में विभाजन का दंश और अनुभव पता नहीं क्यों अनुपस्थित सा है।

जलरंग में लैंडस्केप:

इस रिट्रोस्पक्टिव में वीरेश्वर भट्टाचार्य द्वारा 1960 के आस-पास के लैंडस्केप से लेकर हालिया बनाए गए चित्र तक प्रदर्शित हैं। प्रारंभिक चित्रों में जलरंग में उन्होंने पटना के भूदृश्य और व्यक्तिचित्र बनाए हैं। मित्रों व परिचितों के व्यक्ति चित्र अनौपचारिक स्थितियों में बने हैं। उनके भूदृश्य में हम पटना के गंगा किनारे के पुराने दृश्यों को देख सकते हैं। गंगा के किनारे की बस्तियां, एक दूसरे से सटी पालों वाली नाव, झोपड़ी, फूस के बने घर, ताड़ के पेड़, खड़ी बैलगाड़ी, पेड़, चरते जानवर, पहाड़ आदि बखूबी चित्रित किए गए हैं। अधिकांश भूदृश्य गरीब बस्तियों या लोकेशन के हैं। जिनमें गंगा तट पर जाकर किनारे की छवियों को पकड़ने की कोशिश की गई है। जैसे बांस घाट के आस-पास वीरेश्वर भट्टाचार्य ने सीमित रंगों – हरे, पीले, सफेद रंगों – से इन दृश्यों को पेंट किया है। वीरेश्वर भट्टाचार्य के जलरंग शांत, स्थिर व ठहरे हुए लम्हों को इस प्रकार पकड़ता है मानो वे दृश्य हमेशा से इसी तरह मौजूद हैं। जलरंग के लगभग अधिकांश चित्रों में नीला आकाश अवश्य दिखता है। आसमान की विशालता में मनुष्यों की लघुता अभिव्यक्त होती है। लोगों के चित्र छोटे मानो दूर से दिखाई पड़ रहे हैं। एक संतुलन दिखाई पड़ता है, स्थिरता का अहसास होता है। चित्रों में एक नैसर्गिक प्रवाह दिखता है। रंगों से चित्रकार खेलता नजर आता है। जलरंग में चित्रित पुराने भूदृश्य काफी प्रभावी बन पड़े हैं एवं मन पर देर तक उसका प्रभाव बना रहता है।

जलरंग में वीरेश्वर भट्टाचार्य ने कुछ प्रयोगधर्मी काम भी किए हैं। उसमें अमूर्त आकृतियां उभरती हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि चित्रकार रंगों से क्रीड़ा कर रहा है और अनायास कुछ रूपाकार निर्मित होता जाता है। कई किस्म के रंग एक दूसरे में बहते, प्रवाहित होते से नजर आते हैं। रंग रेखाओं को मिटाते सदृश दिखते हैं। प्रयोगधर्मी जलरंग में वीरेश्वर भट्टाचार्य का रंग विन्यास दर्शनीय है।

बुद्ध श्रृंखला:

वीरेश्वर भट्टाचार्य के चित्रों के संग्रह में बुद्ध पर केंद्रित कई चित्र बनाए गए हैं। बुद्ध के जीवन की कथाओं से लेकर उनके प्रति अपने मनोभावों को भी चित्रित किया है। बुद्ध अमूमन गेरूए वस्त्र में अपने शिष्यों के साथ विभिन्न मुद्राओं व भंगिमांओं में नजर आते हैं। एक चित्र विशेष रूप से ध्यान खींचती है जिसमें तालाब किनारे गेरूआ वस्त्र में करवट लेकर बुद्ध लेटे और ऑंख मूंदे हैं। उनके सामने उनके गेरूआधारी शिष्य अलग-अलग मुद्राओं में बैठे उन्हें निहार रहे हैं मानो उनके जागने का इंतजार कर रहे हों। पीछे पृष्ठभूमि में चांद डूब सा रहा है। बुद्ध व शिष्यों की गेरूआ रंगों के पीछे चांद का नीले रंगों में डूबने का दृश्य प्रभावी बन पड़ा है। अपने रंग संयोजन के कारण यह चित्र बुद्ध की धीर व गंभीर छवि को इस प्रकार सामने लाती है मानो किसी गहरे मसले पर सभी चिंतित हैं।

बुद्ध पर बने एक दूसरे चित्र में एक शिष्य अपने केश थाली में बुद्ध को समर्पित कर रहा है। थाली में कौंड़ियां हैं। जिस शिष्य के केश अभी-अभी उतारे गए हैं उसके माथे का रंग बाकी शिष्यों से अलग है। जिस शिष्य के केश अभी-अभी मुड़े गए हैं उस पर प्रकाश है, आभा है। प्रकाश के सृजनात्मक उपयोग से वीरेश्वर भट्टाचार्य ने भिक्षुओं की टोली में उसके शामिल होने की प्रक्रिया का दर्शाया है। सभी शिष्य बुद्ध की ओर निहार रहे हैं मानो उनके किसी आदेश का इंतजार कर रहे हों। इस चित्र में रंगों का वहीं संयोजन है यानी कत्थई व आसमानी। लेकिन इसमें नीला आकाश अधिक आकार घेरता है।

बुद्ध श्रृंखला के चित्रों में वीरेश्वर भट्टाचार्य में कत्थई, स्याह व हल्के नीले रंग का इस्तेमाल कर अपने चित्रों को बनाया है। चित्र के अनुसार इन तीनों रंगों का अनुपात बदलता रहता है।

बुद्ध पर केंद्रित अपेक्षाकृत छोटे चित्रों में वीरेश्वर भट्टाचार्य ने बुद्ध का विष्णु का अवतार मानने के मिथक को अभिव्यक्त करने के लिए समुद्र में बुद्ध के सर पर फन काढ़े काले सर्प की छाया का उपयोग किया है। समुद्र, सर्प एवं स्त्रियों की बुद्ध को हाथ जोड़े मुद्रा एवं कमल के फूल तस्वीर को दर्शनीय बनाते हैं। वैसे बुद्ध के जीवन में नाग से जुडी जो कथा आती है, वह इस प्रकार है कि जब गौतम बोधिवृक्ष के नीचे तपस्या में रत थे तब लगातार सात दिनों तक आकाश में घने बादल बरसते रहे। इस दौरान बुद्ध को बारिश से बचाने के लिए मुचलिंद नाग बुद्ध के सिर पर छतरी की तरह अपना फन काढ़े रहा।

नेहरू के दो चित्र:

वीरेश्वर भट्टाचार्य के इस पुनरावलोकन प्रदर्शनी में जवाहर लाल नेहरू के दो चित्र हैं। एक में नेहरू ने कृष्ण की भांति गोबर्द्धन पर्वत को कानी उंगली पर उठा रखा है। नेहरू, गॉंधी टोपी तथा अपनी पारंपरिक हल्के पीले रंग का कोट पहने हुए हैं। कोट में गुलाब टंका है सामान्य स्त्री-पुरूष उनकी ओर आतुर निगाहों से देख रही है कि आने वाले संकटों से वह हमें बचाएंगे। नेहरू को कृष्ण के मिथक से जोड़ कर रक्षक की छवि प्रदान करने की कोशिश की गयी है। पृष्ठभूमि में बहती नदी, घास के मैदान और बस्ती दिखती है।

नेहरू को केंद्र में रखकर जो दूसरा चित्र बनाया गया परन्तु अपने अंदर कई अर्थ समट हुए है। गुलाबी रंग के दो नुकीले टीलों पर नेहरू निद्रावस्था में अपने दोनों पैर एक दूसरे पर चढ़ाए हुए गहरी निद्रा में लीन हैं। वे अपनी पारंपरिक वेशभूषा यानी कोट, जूता पहने हुए नजर आते हैं। साथ में है उनकी पहचान गुलाब। बगल की हरी घास पर उनका चश्मा और एक फाइल रखी हुई है। ऐसा प्रतीत होता है कि यह चित्र नेहरू की मृत्यु से संबंधित जो प्रचलित छवि है उसे ध्यान में रखकर बनाई गयी है। दो टीलों से दो कभी न मिलने वाले ध्रुवों के मध्य एक सेतु बनाने की कोशिश नेहरू करते रहे। जबकि पास में पड़ा उनका काम इंतजार कर रहा है। पीछे अंधेरा है और टीलों के मध्य में धूसर गाढ़ा रंग है। यह चित्र भारत की स्थिति में नेहरू की विपरीत ध्रुवों को साधने वाले व्यक्तित्व के रूप में चित्रित करने की कोशिश की गई है। बाद वाला यह चित्र रंगों के चयन के कारण अलग से ध्यान आकृष्ट करता है।

रिट्रोस्पेक्टिव में कुछ चित्र अलग से ध्यान खींचते हैं। एक चित्र में गंगा किनारे कुछ नाव है, एक लाशनुमा मिथकीय आकृति तैर रही है। नदी की अशांत लहरें हैं और किनारे में शोकग्रस्त औरतें उदास अवस्था में एक दूसरे से सटी खड़ी हैं। इन दुःखी महिलाओं के दुपट्टों की सलवटों के सहारे वीरेश्वर भट्टाचार्य ने इस तस्वीर को यादगार बना दिया है। चित्र को देखते हुए दुःख, दुर्भाग्य, त्रासदी का मिला-जुला भाव देखने वाले के मन में उठता है।

ठीक ऐसे ही एक पुराने हवेली के आगे तीन बंदरनुमा आकृति है को धूसर रंग से चित्रित कर ऑंखों में तेज प्रकाश डाला गया है। एक आंख में चटख प्रकाश तो दूसरे में वही धूसर प्रभाव। वीरेश्वर भट्टाचार्य ने इस एकवर्णी चित्र से दिलचस्प प्रभाव पैदा किया है। एक दो रंगों की सहायता से चित्र में प्रभाव पैदा किया गया है। एक भिन्न अनुभव प्रेक्षक को होता है।

एक चित्र में कई आवक्ष प्रतिमा विभिन्न व्यक्तियों की रखी गई है। एक प्रतिमा थोड़ी बड़ी है, जिसे माला पहनाया हुआ है जबकि बाकी छोटे कद के हैं। लेकिन सभी सभी एक दूसरे से मुखातिब से मालूम प़ड़ते हैं। पटना आर्ट कॉलेज के प्रांगण में छात्रों द्वारा विभिन्न महापुरूषों की समय-समय पर बनाई गई ऐसी प्रतिमा मिल जाया करते हैं। यह दिलचस्प चित्र इन बनी प्रतिमाओं की दशा का एक खिलंदड़े अंदाज में प्रस्तुत करता है। अलग-अलग रंग से प्रतिमाओं को चित्रित कर घास के मैदान में सुरक्षित सा रखा गया है। चित्र में माला पहने प्रतिमा व्यंगात्मक मुस्कान तो नीचे की प्रतिमायें उदास व दुःखी है। वीरेश्वर भट्टाचार्य का यह चित्र बताता है कि उनकी नजर आस-पड़ोस की उन मामूली चीजों पर भी रहती है जो रहती तो हमारे आस पास तो है पर हमसे ओझल रहा करती है।


एक और दिलचस्प चित्र है जिसमें मुस्लिम परिवार की महिलायें अपने किसी बुजुर्ग पुरूष के साथ बैठकर किसी स्टुडियो में जैसे फोटो खिंचवाने के लिए सावधान व सचेत मुद्रा में बैठा है। मुस्लिम महिलाओं ने अपना बुर्का उठाया हुआ है। मुस्लिम महिलाओं के चेहरों पर फोटो खिंचाने का उत्साह देखा जा सकता है जबकि पुरूष थोड़े उदासीन भाव से बैठा है। तस्वीर पति, पत्नी व बेटियों की है। फोटोग्राफी स्टुडियो का प्रकाश एक कोने से आती रहती है और बैकग्राउंड में कपड़े पर चित्रित पहाड़ वगैरह के प्राकृतिक दृश्य है जैसा कि फोटोग्राफी के स्टुडियो में हुआ करता है। यह सामान्य सा लगने वाला चित्र वीरेश्वर भट्टाचार्य के हाथो में एक विशिष्ट अर्थ ग्रहण कर लेता है। वैसे भी चित्रकला में मुस्लिम समाज गायब से होते जा रहे हैं। हिंदू प्रतीकों व बिम्बों से वर्तमान चित्रकला भरा-पुरा है। वर्तमान सामाजिक-राजनतिक माहौल में यह चित्र अलग से ध्यान खींचती है।

ठीक इसी प्रकार एक चित्र में घर की छत पर भूतहा अहसास होता है। एक लाश रस्सी के सहारे टंगी है, सिलाई मशीन है, दरवाजा खुला है, झूले में एक बंदर है, रात्रि का अन्धकार है। मानो कोई डरावना व भूतहा स्वप्न देखा गया हो। दरअसल यह चित्र बीरेश्वर भट्टाचार्य के जीवन की एक घटना से जुड़ा है। 1950 में जब पूर्वी बंगाल से निर्वासित होकर उन्हें कोलकाता आना पड़ा, तब कुछ दिनों तक उनका परिवार जिस घर में रहा, उसे भुतहा घोषित कर दिया गया था। आसपास के लोगों का कहना था कि यहाँ से रात भर धम-धम की आवाज आती है, हालाँकि जब इसकी पड़ताल की गयी तब पता चला कि रात का यह कोलाहल छत पर बंदरों की उछलकूद की देन थी। यहाँ काले रंग का उपयोग कर चित्रकार भय की अनुभूति को और तीव्र बनाता है। इस तरह से देखें तो बीरेश्वर भट्टाचार्य अपने चित्र के माध्यम से आडम्बर और अंध-विश्वास पर चोट करते हैं । यह चित्र अपनी आकृति व रंग संरचना के कारण आकृष्ट करती है।

वीरेश्वर भट्टाचार्य के कई चित्रों में जादुई यथार्थवाद का स्वप्न सरीखा भाव प्रकट होता है। कई बार रंग आकृतियों पर चढ़ता सा प्रतीत होता है। पुरानी कथाओं में मनुष्य, जानवर एक दूसरे का गुण व स्वभाव एक दूसरे में समाहित होता है कुछ-कुछ वैसा भाव। पीले रंग का मुकुटसरीखा काली पगड़ी, एक चुड़ैल स्त्री सरीखी आकृति पर पंजा भिड़ाए बाज सा कोई प़क्षी। और हक्का-बक्का से देखता एक मानवाकृति। यह चित्र विभिन्न किस्म के रंग परियोजना के कारण अलग से ध्यान खींचता है। कई बार लगता है चित्रकार ने किसी देखे गए सपने या मन में उठते बेतरतीब ख्यालों, फैंटेसी को पेंट किया है। इस किस्म के चित्र अपने चाक्षुष महत्व के कारण महत्वपूर्ण हो उठते हैं।

बदलती स्त्रियां:

वीरेश्वर भट्टाचार्य के चित्रों में स्त्रियों की नई,बदलती भूमिका को फैंटेसी तकनीक का इस्तेमाल कर पकड़ने का प्रयास किया है। स्त्रियां पारंपरिक छवियों में नहीं बल्कि उनकी आधुनिक या कहें उत्तर-आधुनिक ढ़ंग से आती हैं। आधुनिक स्नानागार के पारदर्शी बाथटब में नहा रही स्त्री को पीछे से घूरता एक प्राचीन कामुक मुखाकृति। लड़की के बालों व उसकी देहभंगिमा से उसके खुले व उन्मुक्त व्यक्तित्व का आभास होता है।

ठीक इसी प्रकार एक अन्य चित्र में बाथरूम के बाथटब में पानी में मछलियां तैर रही हैं और एक अर्द्धनग्न युवती उसमें से मछली चुन कर रख रही है। पास में एक बिल्ली लालची निगाहों से मछलियों पर निगाहें गड़ाए है।पीछे तौलिया टंगा है। इन चित्रों की गतिशील रेखाओं से समय को अभिव्यक्त किया जाता है।

एक चित्र में स्लीवलेस ब्लाउज में एक स्त्री कुर्सी पर उदास सी गुलदस्ता लगे मेज पर बैठी है। वीरेश्वर भट्टाचार्य कपड़े व रखे गए सामानों के रंगों से समय तथा रेखाओं व स्ट्रोक्स से मनःस्थिति का अहसास करा जाते हैं।

एक अन्य चित्र में कुर्सी पर बैठी आधुनिक लड़की को उसके बालों के ढ़ंग व रंग से पहचाना जा सकता है। स्त्री के कई मुखौटे हैं। कुर्सी के बगल में रखे मेज पर गुस्दस्ता तथा नीचे बैठी बिल्ली है। ऐसा प्रतीत होता है कि वीरेश्वर भट्टाचार्य ने इन चित्रों को कोलकाता में बसने के बाद चित्रित किया है। बंगाली स्त्रियों की बदलती उन्मुक्त जीवन शैली को ये चित्र बखूबी पेंट करते हैं। वीरेश्वर भट्टाचार्य ने कुछ चित्रों में बंगाल की पुरानी स्त्रियों की, अठारहवीं सदी की स्त्रियों के भी कुछ चित्र बनाये हैं। एक चित्र में एक सजी संवरी स्त्री चिता पर लेटी है। सती का यह दृश्य चित्रकार ने खींचने की कोशिश की है। उसके चारों ओर पुरूषों का समूह गाजे-बाजे के साथ तैयार है ताकि जब स्त्री को जिंदा जलाया जाए तो उसकी चीत्कार को बाजों के शोर से दबा दिया जाए।

स्त्रियों केा लेकर बनाए चित्र में वीरेश्वर भट्टाचार्य प्रयोगधर्मी रहे हैं। एक दिलचस्प चित्र में पारंपरिक वेशभूषा में एक स्त्री पेड़ किनारे घड़ा पकड़े खड़ी है, नीचे एक ग्रामोफोन है तो एक किनारे शिव डमरू लिए उसे निहार रहे हैं। गाढ़े व गहरे रंगों से बनाया गया यह चित्र वैसे तो उपर से शांत दिखता है पर एक अंदरूनी हलचल है। स्ट्रोक्स से एक गति जर आती है। यह चित्र रंगों के चयन व इस्तेमाल के दृष्टिकोण से विशिष्ट है। कई बार चित्रों में आवश्यक नहीं कि उसमें कोई निश्चित अर्थ हो पर चाक्षुष दृष्टि से आपको नये अनुभव कराने की ओर ले चलते हैं।

एक चित्र में एक पुरूष आकृति शीशे में बैठी अर्द्धनग्न स्त्री को निहार रहा है। देखने वाला पुरूष चुरूट पीता हुआ एक तस्वीर में है। एक चित्र निर्जीव आवक्ष पुरूष मूर्ति है बाघ के मुखौटे व बाघ के रंग की वेशभूषा पहने सजीव स्त्री को घूर रहा है। यह चित्र भी दिलचस्प है। नई व आधुनिक स्त्री अब बाघ की तरह आक्रामक बन चुकी है और पुरूष की भूमिका इस नई बदलती स्त्री को बस निहारने भर की है। वह पुरूष इतने पुराने ख्यालों का है कि उसकी महज प्रतिमा भर रह गई है। वीरेश्वर भट्टाचार्य की स्त्रियां बोल्ड, आत्मविश्वास से भरी तथा अपनी मुस्तकबिल खुद निर्धारित करने वाली के रूप में चित्रित की गई हैं। अधिकांश चित्रों की स्त्रियां नई, बदलती स्त्रियां हैं ।

वीरेश्वर भट्टाचार्य ने मिथकों व पुराणों खासकर काली को पेंट किया है। काली के कई रूप उनकी ड्राइंग में भी उभर कर आये हैं। अलग-अलग मुद्राएं, मुण्डमाल, जीभ निकाले, शस्त्र लहराते दृश्य के साथ बहते रक्त को पीने का दृश्य, रौद्र रूप, उसकी आक्रामकता सब कुछ चित्रों में उन चित्रों में सामने आता है। इस श्रृंखला में दो तीन चित्र में सिर्फ सर धड़ से अलग है और गले से रक्त फव्वारे की तरह दोनों ओर निकल रहा है । उस रक्त को गले से लटक रही नरमुंड पी रहे हैं।यह छवि ड्राइंग व चित्र दोनों में सामने आती है। काली केन्द्रित ड्राइंग व चित्र इससे जुड़ी पारम्परिक छवियों को ही सामने लाती है। एक बंग्ला भाषी होने के नाते काली के प्रति चित्रकार के मोह को सहज रूप से समझा जा सकता है।

वीरेश्वर भटाचार्या के ड्राइंग थोड़े अलग किस्म के हैं। अधिकांश ड्राइंग सिर्फ दो रंगों,स्याह व सफेद, से बनाये गए हैं। इस माध्यम का उन्होंने थोड़ा अलग उपयोग किया है। कुछ ड्रॉइंग में कई दूसरे रंग भी इस्तेमाल किये गए हैं। ड्राइंग में चित्रकार की सृजनशीलता देखते बनती है।

वीरेश्वर भट्टाचार्य के चित्रों के कई रंग है। लंबे जीवन के पड़ाव के अपने जीवनानुभवों को कला अनुभव में तब्दील करने की कोशिश की है। पटना में रहने के दौरान अपने वक्तव्यों में कला के बारे अक्सर कहा करते ‘ इट्स सब्जेक्टिव टॉन्सफॉर्मेशन ऑफ ऑब्जेक्टिव रियलिटी’ । यानी वस्तुगत यथार्थ के मनोगत रूपांतरण का नाम कला है। इस कसौटी पर देखें तो वीरेश्वर भट्टाचार्य के चित्र देखने वाले के अनुभव संसार को समृद्ध बनाते हैं।

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