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रुचिरा गुप्ता की प्रदर्शनी गांधी संग्रहालय पटना में
अनीश अंकुर मूलतः संस्कृतिकर्मी हैं, किन्तु अपनी राजनैतिक व सामाजिक अभिव्यक्ति के लिए भी जाने-पहचाने जाते हैं। उनके नियमित लेखन में राजनीति से लेकर समाज, कला, नाटक और इतिहास के लिए भी भरपूर गुंजाइश रहती है । बिहार के मौजूदा कला लेखन की बात करें तो जो थोड़े से नाम इस विधा में देखने को मिलते हैं उनमें से एक महत्वपूर्ण नाम अनीश अंकुर जी का भी है। उनकी कोशिश रहती है बिहार से बाहर के कला जगत को बिहार की कला गतिविधियों से रूबरू कराना। इसी कड़ी में प्रस्तुत है रुचिरा गुप्ता के चित्रों की प्रदर्शनी पर एक समीक्षात्मक रिपोर्ट।
पटना के गांधी संग्रहालय में आजकल रुचिरा गुप्ता के चित्रों की प्रदर्शनी चल रही है। 25 मार्च से शुरू हुई यह प्रदर्शनी 7 अप्रैल तक चलेगी। रुचिरा गुप्ता पेशेवर चित्रकार नहीं हैं । वह मुख्यतः अमेरिका के विश्विद्यालयों में अध्यापन करती रही हैं । संयुक्त राष्ट्र संघ के साथ जुड़ी रही हैं। उन्हें कई सम्मान भी हासिल हो चुके हैं। पत्रकार होने के साथ-साथ रुचिरा एक एन. जी. ओ ‘अपने- आप’ भी चलाती हैं। यह संस्था उनके गृहनगर फारबिसगंज में भी सक्रिय है। प्रदर्शनी का शीर्षक भी इसी शहर के नाम पर है ‘फारबिसगंज के बाग में’। फारबिसगंज सुप्रसिद्ध साहित्यकार फणीश्वरनाथ रेणु से भी जाना जाता है। रुचिरा इस बात को बताना नहीं भूलतीं की उनके घर समाजवादी आंदोलन के बड़े नेताओं मसलन जयप्रकाश नारायण, कर्पूरी ठाकुर के साथ-साथ साहित्यकार फणीश्वरनाथ रेणु का भी आना-जाना लगा रहता है। बल्कि उनके एक चाचा बालकृष्ण गुप्ता राज्य सभा के सदस्य भी रह चुके हैं।
25 मार्च को इस प्रदर्शनी का उदघाटन चर्चित कला समीक्षक प्रयाग शुक्ल ने किया। इसी दिन गांधी संग्रहालय में रुचिरा गुप्ता के पिता के नाम फणीश्वर नाथ रेणु द्वारा लिखी गई चिट्ठियों पर लिखी गई किताब ‘ रेणु के पत्र भाई बिरजू के नाम’ का भी लोकार्पण किया गया। इस अवसर पर समाजवादी आंदोलन से जुड़े नेतागण व साहित्यकार उपस्थित थे।फारबिसगंज रुचिरा के बचपन की जगह रही है। कोरोना संकट के दौरान लगभग साढ़े चार दशकों के पश्चात कई महीनों तक उन्हें फारबिसगंज में रहने का मौका मिला। उनके अंदर चित्र बनाने का शौक तो जीवन के शुरुआती वर्षों से ही रहा है। कोरोना की वजह से, लगभग 40-45 सालों के बाद, जब फिर से फारबिसगंज स्थित अपने माता-पिता के घर मे रहना हुआ तो उन्होंने एक बार फिर से चित्र बनाना शुरू कर दिया। इन चित्रों के माध्यम से उन्होंने न सिर्फ अपने भावों, विचारों को अपितु अपनी पुरानी स्मृतियों को भी चाक्षुष आकार देना शुरू किया।
पटना में आयोजित इस चित्र प्रदर्शनी में उनके इसी दौरान बनाये चित्रों का संकलन है। इन चित्रों को बनाने के दरम्यान, जैसा की रुचिरा बताती हैं, वह देश, दुनिया तथा निजी जीवन को लेकर कई किस्म के अंदरूनी उथल-पुथल से गुजर रही थीं। ऐसे वक्त में ये चित्र उनके लिए खुद की अभिव्यक्ति के साथ साथ अपने को नए ढ़ंग से तलाश करने का प्रयास भी था।रुचिरा ने मूलतः फारबिसगंज गंज के अपने घर, अपने बागीचे और घर से नजर आती आस-पास के दृश्यों को पकड़ने की कोशिश की है। ऐसे में घर, पेड़, फूल, पौधे, लताएं, पुराने गृह सहयोगियों के साथ- साथ चींटियां, गिलहरी, घोंघें, बेंग (मेढक) , बिल्ली सभी कुछ इनके दृश्य संसार का हिस्सा बनता चला गया । उन्होंने चित्रों में इन सबों को एक साथ इस प्रकार चित्रित किया है मानों सब एक ही वातावरण, एक ही अस्तित्व का अविभाज्य हिस्सा हो। मनुष्य, जानवर, कीट- फ़तन्गे सब की नियति, प्रारब्ध मानो एक ही हो।
रुचिरा ने अपनी सभी तस्वीरों के साथ उसका विवरण भी लिखा है कि क्या सोचकर और किन लोगों को ध्यान में रखकर ये चित्र बनाये गए हैं। मसलन बागीचे में उनके घर के पुराने काम करने वाले लोगों की तस्वीरें, या अपनी मां, अपने परिवार या घर के अंदर की तस्वीरें। यह सब रुचिरा गुप्ता ने यथार्थवादी शैली में करने की कोशिश की है। वैसे तस्वीर का सन्दर्भ रुचिरा ने नहीं लिखा होता तो शायद ज्यादा ही अच्छा होता। क्योंकि चित्रों से जुड़े विवरण अक्सर देखने वाले को एक खास दृष्टिकोण से बाँध से देते हैं। क्योंकि यहाँ प्रदर्शित कई चित्र तो उनके बताये संदर्भ के पार जाकर व्यापक अर्थ ग्रहण करते प्रतीत होते हैं।
‘ फारबिसगंज के बाग में ‘ के चित्रों में रुचिरा के अतीत, पुरानी यादों, खोई हुयी दुनिया को पुनः प्राप्त करने की जद्दोजहद भी शामिल है। फूलों और लताओं से आच्छादित घर में एक निरन्तरता बनी रहती है। हरे पत्ते और विभिन्न रंगों वाले फूलों से भरे घर को रुचिरा ने इतनी संलग्नता के साथ चित्रित किया है कि देखने वाले को बरबस अपनी ओर आकृष्ट कर लेता है। हरा, पीला उसके कई शेड्स, लाल, गुलाबी रंगों का ऐसा सृजनात्मक प्रयोग है कि आपको ट्रान्सेंड कर एक दूसरी दुनिया मे ले जाता प्रतीत होता है।
घर के बाग में पेड़ो के इर्द-गिर्द चबूतरा है, पेड़ों के झुरमुट और उसकी छाया में छिपा चापाकल है। इन सबों बिम्बों को कुछ इस प्रकार रेखांकित किया गया है, जो किसी पुरानी तस्वीर सा अहसास लिए हमारे सामने है। एक चित्र में रुचिरा के घर की बालकनी को छोड़ शेष हिस्सा पूरी तरह पत्तियों व लताओं से ढ़का है। यहां घर का रंग और पत्तियों, लताओं का कम्पोजीशन इतना खूबसूरती से बना है कि आंखें बरबस ठहर जाती हैं। लेकिन जो चीज इस तस्वीर को खास बनाती है, वह है चित्र में दिखता वर्षों पूर्व का छूट चूका घर। जिसे कोई बहुत दूर बैठा शख्स दूर से निहार रहा हो, इस अहसास के साथ कि कभी हम भी यहीं रहा करते थे ।
रुचिरा ने घर के बाहर और अंदर की चीजों को बड़े लगाव व नॉस्टैल्जिक फीलिंग के साथ कैनवास पर उकेरा है। घर के अंदर किताबों का शेल्फ जिसकी पुस्तकों पर एक जमाने के बाद धूल झाड़ी गई हो, मां के सिलाई मशीनों वाली आलमारी इन सबके माध्यम से चित्रकार अपने अतीत के खो गए अहसासों को पाने की कोशिश कर रहा है। रुचिरा की रंग संगति भी प्रभावित करती है। कुछ इन्हीं रंगों की सहायता से वे चित्रों में छिपी किसी गहन उदासी को सामने लाने में कामयाबी हासिल करती हैं। इन कलाकृतियों में एक अनगढ़पन है, हल्का खुरदुरापन है जिससे ग्रामीण जीवन को सामने लाने में सहायता मिलती है।
एक तस्वीर में एक पिता अपनी पुत्री को साइकिल के हैंडल पर बिठाकर चला रहा है। ग्राम्य पिता और उसकी बेटी की भंगिमा को स्पष्टता से पकड़ा गया है। सामने तालाब, ताड़ के पेड़ आसमान में उड़ता पतंग। कई बार कोई चित्र भले कुछ और सोचकर बनाया गया हो पर समय उसे दूसरा सन्दर्भ व अर्थ प्रदान कर देता है। रूरल लैंडस्केप के बीच पिता-पुत्री का यह चित्र बिहार लौटने वाले उन परिवारों की याद दिला जाता है जिन्हें लॉकडाउन के बाद तमाम विपरीत व त्रासद स्थितियों में वापस आना पड़ा था। रुचिरा जब भी घर के भीतर का चित्र बनाती हैं तब सब कुछ शांत, ठहरा व स्टैटिक सा लगता है लेकिन ज्योंहि उनकी कूची घर के बाहर बाग, सड़क या रेल को चित्रित करती हैं उसमें एक मोशन दिखाई पड़ने लगता है, गतिमान यानी चीजें बदलने के प्रक्रिया में दिखाई पड़ती हैं।
चित्रकार ने घर तथा बाहर की दुनिया को कई एंगेल से, कोण से पेंट किया है कभी घर के अंदर, मानो सतह के पास हो कभी ऊंचाई से , छत से देखा गया है। एक चित्र जिसे बालकनी की ऊंचाई से देखा गया है जिसमें फारबिसगंज से रेल जाती दिखाई पड़ रही है एक छोटी बच्ची पिछले डब्बे में बैठी है मानो निकल कर जल्दी से दूर जाना चाहती हो। रेल यहां अतीत , वर्तमान व भविष्य को जोड़ने वाली कड़ी नजर आती हो। घर, पेड़, पत्तियां व व चलती रेल ये सब मिलकर देखने वाले के अंदर कुछ ऐसे भाव पैदा करता है जो समकालीन समय के पार जाने का अहसास होता है।
चित्रकार ने जब भी घर के बाहर की दुनिया मसलन सड़क, डब्बे में सैलून, हारमोनियम या दलितों की बस्ती,पान की दुकान, बरगद के पेड़ के नीचे हनुमान की मूर्ति को प्रसाद चढ़ाते ग्रामीण या फिर जमीला बुआ की दुकान , जहां रेल यात्रियों के जरूरत के रंग-बिरंगे समान उपलब्ध को चित्रित किया है टॉप व्यू से देखा है। या फिर काम करने वाले लोगों के चित्र बनाये गए हैं वे ऊपर से ऊंचाई से बनाये गए दिखते हैं। यहां जिनके चित्र बनाये गए हैं इनकी लघुता, उनके ऑब्जेक्ट होना प्रतीत होता है। यहां एक भद्रलोकीय निगाह, या कहें एक एलीट गेज नजर आता है। सड़क जहां चहल-पहल है वहां एक अस्तव्यस्तता है, केओस नजर आता है जबकि इसके विपरीत घर बेहद व्यवस्थित दिखता है। बाहर की दुनिया मे शोर है, उलझन है, अराजकता है, डिसऑर्डर है जबकि घर मे सब कुछ करीने से है।
रुचिरा ने टॉप व्यू से एक चित्र दलित बस्ती का बनाया है। चित्र थोड़ी दूर अब देखे जाते प्रतीत होते हैं। रूरल सेटिंग में बनाये गए इस चित्र में दलित बस्ती की पारम्परिक व प्रचलित छवि दिखती है औरतें, बच्चे, मर्द सभी की भंगिमाओं से उनकी सामाजिक स्थिति का पता चलता है। सिर्फ एक चीज इस बस्ती को अलहदा बनाती है वह है और जैसा कि चित्रकार ने लिखा भी है कि बस्ती बेहद साफ, सुथरी है। दीवार पर चित्र बने दिखते हैं। दलित बस्तियों की पारम्परिक दृश्य से यह भिन्न है। सम्भव है चित्रकार बस्ती को ऐसा ही देखना चाहती हो।
पता नहीं गरीब लोगों की बनाई गई छवियों में एक सेंस ऑफ अदरनेस का अहसास होता है। मानो हमारी घर की दुनिया सुरक्षित व सेफ है जबकि बाहर चारों ओर अराजकता है। सब-कुछ उथल-पुथल से भरा है। इस कारण दूसरे हैं। कोरोना संकट के दौरान यह एक ऐसी मनःस्थिति थी जिसके सभी शिकार थे। और रुचिरा गुप्ता ने सभी चित्र इसी दौरान बनाये थे। उस माहौल में फंसे होने का अहसास है साथ ही यहां से निकलने की ख्वाहिश भी है जिसे रेल वाली चित्र से समझा व महसूसा जा सकता है। छत पर कपड़े सुखाए जा रहे हैं साथ ही रेल फारबिसगंज छोड़ रही है। ऐसे ही एक चित्र में पेड़ों से घिरे घर के कच्चे हल्के लाल मोरम वाली सड़क पर गांधी का चित्र इस प्रदर्शनी की एक प्रमुख चित्र है । महात्मा गांधी यहां हाथ मे डंडा लिए अपनी चिपरिचित मुद्रा में गतिमान नजर आते है। साथ में है शांति के प्रतीक स्वरूप कबूतर एवं उनकी पहचान बकरी। वर्तमान वैश्विक परिदृश्य में युद्ध की विभीषिका के मध्य चित्रकार का गांधी के प्रति लगाव या कहें प्रतिबद्धता को यह चित्र इस प्रकार सामने लाती है जैसे आगे आने वाले समय में वे एक आवश्यक शख्सियत होंगे।
रुचिरा गुप्ता ने वैसे नाम तो रखा है ‘फारबिसगंज के बाग में’ पर इस बहाने अपने ‘ मेमोरी लेन’ में जाकर अब तक जी चुकी जिंदगी को फिर से खंगालने की कोशिश करती हैं। सभी चित्रों में बीते समय के प्रति काफी लगाव, राग दिखता है। बीता वक्त उनकी लिए स्मृति सन्दर्भ नहीं बल्कि जीवित प्रसंग की तरह नजर आता है। इस बात को रुचिरा द्वारा इस्तेमाल किये जाने वाले रंगों से समझा जा सकता है। चार दशक पहले के उस वक्त को जब हम आज जी रहे हैं तो भावनात्मक स्तर पर उसे उसी तीक्ष्णता से महसूस करते हैं। चटख रंगों में नया और पुराना दोनों समय मानों एकसाथ उपस्थित आ खड़ा हुआ हो। रुचिरा ने कुछ रंगों के माध्यम से अपने कुशल हुनर का प्रदर्शन किया है । ज्यादातर हरा, लाल, गुलाबी व पीले व कहीं-कहीं कत्थई रंग का प्रयोग किया है। जब भी वे गुलाबी रंग का इस्तेमाल करती हैं वह उनके कलर स्कीम का इतना स्वाभाविक हिस्सा नजर आता है। चित्र देखने पर आंखों को सुकून सा मिलता है, जीवन के प्रति अनुराग पनपता प्रतीत हो रहा होता है।
पेड़, बारिश के बाद धुला मौसम, पुराने नोटबुक का मिलना, पिता के साथ बाग में पुराने संस्मरण लिखने बैठना यह सब छवियां इस प्रदर्शनी के हिस्सा हैं जिससे देखने वाला दर्शक भी एक जुड़ाव महसूस करता है। ‘फारबिसगंज के बाग’ श्रृंखला के इतने आयाम, इतने शेड्स है आस-पास के , विविधता व व्यापता का ऐसा संसार है जो आपको जीवन के प्रति आकृष्ट करता है। कोरोना काल के दौरान जब चारों ओर मौत का मन्जर नजर आ रहा था रुचिरा गुप्ता जीवन व प्रकृति के छोटे-छोटे लम्हों को पकड़ने का प्रयास कर रही थीं।
अपने आत्मकथ्य में रुचिरा कहती हैं ” मैं कला की दुनिया के लिए बाहरी हूँ। मैंने अपने घर के चित्र बनाये हैं जिनसे निरन्तरता के साथ-साथ आशा का बोध होता है।”