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रशियन सेंटर में आयोजित हुई त्रिदिवसीय प्रदर्शनी
पिछले महीने कुछ दिनों के लिए दिल्ली जाना हुआ। पुराने परिचित और कलाप्रेमी अरविंद ओझा के बुलावे पर एक ऐसी प्रदर्शनी में जाना हुआ जो रूस का भ्रमण कर आए भारतीय कलाकारों की कृतियों पर आधारित थी। 19 से 21 अगस्त तक दिल्ली स्थित ‘राशियन कल्चरल सेंटर’ में यह प्रदर्शनी आयोजित की गई थी। प्रदर्शनी का विषय दिलचस्प था ‘रशिया एन इंडियन व्यू’। इस प्रदर्शनी में वैसे भारतीय कलाकारों को स्थान दिया गया था जिन्होंने रूस जाकर जो देखा, महसूस किया और उसे अपने कला अनुशासन में अभियक्त करने की कोशिश की थी। यानी रूस घूमते हुए भारतीय चित्रकारों, छायाकारों तथा अन्य माध्यम में करने वालों ने जो महसूसा उसे अपने कैनवास और कैमरे के माध्यम से अभिव्यक्त किया था। यह प्रदर्शनी हमें समाजवादी सोवियत संघ के दौर की स्मृतियों की भी याद दिलाती है।- अनीश अंकुर
जैसा कि हम सभी जानते हैं कि रूस और भारत के मध्य लगभग एक शताब्दी से भी ज्यादा पुराना और गहरा संबंध रहा है। हमारे स्वाधीनता आंदोलन के नेताओं को रूसी समाजवादी क्रांति से बहुत प्रेरणा मिलती रही है। लेनिन के प्रति भारत के लगभग हर धारा के लोगों में अगाध समान रहा है। जब भगत सिंह फांसी के तख्ते की ओर बढ़ रहे थे इसके पहले लेनिन पर एक किताब पढ़ते पाए गए थे। भारत और रूस का यह पुराना संबंध अबतक निभ रहा है। भारतीय विदेश नीति में पिछले दो तीन दशकों में आए तमाम विचलनों के बावजूद समकालीन भू राजनीति में भारत और रूस के संबंध किसी तरह बचे हुए हैं।
‘रशिया एन इंडियन व्यू’ को क्यूरेट किया है अक्षत सिन्हा और सविता गुप्ता ने। अक्षत सिन्हा ने कई माध्यमों को इस प्रदर्शनी में स्पेस प्रदान किया है। अधिकांश कलाकारों ने मुख्यतः चित्र और फोटोग्राफी में काम किया है। साथ ही इंस्टॉलेशन, छपी हुई सामग्री, मेमोराबिलिया ( स्मृतियां) आदि भी प्रदर्शनी में शामिल है। अपने क्यूरेटर्स नोट में अक्षत सिन्हा और सविता गुप्ता ने लिखा है ” भारत और रूस के मध्य आपस में संस्कृतिक और आध्यात्मिक संबंध रहे हैं। और यह संबंध इन दोनों देशों के अस्तित्व में आने से पूर्व से रहे हैं। यह मित्रता भाषा और दूरी की बाधाओं का अतिक्रमण करती रही है। लोगों के बीच का संबंध अफांसी नितकिन की भारत यात्रा, निकोलाई रोरिक परिवार की भारत यात्रा और बसने ले लेकर राजकपूर की फिल्म ‘आवारा’ सहित बॉलीवुड की फिल्मों का रूसी में डब (अनुदित) होकर रूस के राष्ट्रीय चैनल पर प्रसारित होने से लेकर आजकल के व्यापार, शिक्षा और सांस्कृतिक आदान प्रदान तक जाता है।”
इस प्रदर्शनी में बलराज साहनी के पौत्र वरुण जी सहनी का चित्र देख सुखद आश्चर्य हुआ। अपने एक्टर पिता परीक्षित साहनी की रूस यात्रा को ट्रेस करने के दौरान वरुण जी सहनी ने जो फील किया उसे कैनवास पर आकर देने की कोशिश की। परीक्षित साहनी ने मास्को के फिल्म इंस्टीट्यूट से पढ़ाई की थी। लाल रंग से पुते वरुण जी सहनी का चित्र पूरी प्रदर्शनी में अलहदा सा नजर आ रहा था। अपने पिता के पदचिन्हों पर दुबारा चलते हुए अपने अंदर के भावनात्मक हलचल को सृजनात्मक शक्ल देने की कोशिश की है। रंगों के चयन और बर्ताव से कलाकार के अंदर की इंटेंस फीलिंग का अहसास होता है। यह चित्र प्रदर्शनी में अलग से ध्यान खींचती है।
प्रदर्शनी से प्रेक्षक को यह अहसास होता है कि भारत और रूस के संबंध के कई ऐसे अन्जान और अनछुए पहलू हैं जिनसे आम नागरिक तो क्या कई जागरूक समझे जाने वाले लोग भी अपरिचित रहे हैं। भारत और रूस के प्राचीन संबंधों में धार्मिक एंगल से कई कृतियां देखने को मिली। मध्य एशिया के देशों में भारत के धार्मिक चिन्हों को देखा जा सकता है। हिंदू और बौद्ध धर्म के रिश्ते को सामने लाती हुई कई कृतियां इस प्रदर्शनी का हिस्सा है। इससे देखने वाला कई नई बातों से खुद को समृद्ध होता है।
छायाकार आदित्य आर्य द्वारा 1988 से 91 के दौर में बोल्शाई थियेटर में हो रहे बैले ( नृत्य नाटक) की तस्वीरें ध्यान खींचती है। उनकी तस्वीरों में नृत्य की भंगिमाओं और उसके ड्रामेटिक मोमेंट्स को पकड़ने की कोशिश की गई है। इन तस्वीरों को आदित्य आर्य ने ताशकंद, सेंट पीटर्सवर्ग और मास्को आदि शहरों में लिया था । ठीक इसी प्रकार पद्मिनी मेहता ने रंगों के माध्यम से अपनी अमूर्त भावनाओं को प्रकट किया गया है। प्रदर्शनी में जिन कुछ कलाकारों ने, पेंटिंग बनाई है,उसमें लाल रंग अवश्य है जो सोवियत संघ के दौर की स्मृतियां जगाता है।
दोनों क्यूरेटर (अक्षत सिन्हा और सविता गुप्ता) के खुद का काम थोड़ा अलग हटकर है। अलग अलग माध्यमों से ये दोनों दर्शक को रूस की अंतर्वस्तु की ओर ले जाते हैं । अश्विनी कुमार पृथ्वीवासी ( दिल्ली आर्ट कोलाज के प्राचार्य ) ने अपनी तस्वीर में बादलों से घिरे नीले आकाश, नीला झील और पक्षी को कैमरे में कैद किया है। यह छवि जेहन में बनी रहती है। ये छवियां सेंट पीटर्सबर्ग की हैं। प्रदर्शनी में उसका डिजिटल प्रिंट रखा गया है।
सिद्धार्थ कुमार द्वारा निर्मित ब्लू रंग के विभिन्न आकार का पॉट देर तक ठहरने को मजबूर करता है। ठीक इसी प्रकार रजनेश कुमार, हरमनदीप सिंह के चित्र हमें एक ऐसे देश के लैंडस्केप में ले जाते हैं जिसके लिए आज भी भारत का दिल धड़कता है। प्रदर्शनी में कई काम ऑरिजिनल चित्र के डिजिटल प्रिंट रखे गए थे। जैसे रितिका वर्मा के ऑयल और टेंपेरा में किये गए काम का डिजिटल प्रिंट रखा गया था। ठीक उसी प्रकार राजनेश वर्मा के कैनवास पर तैल चित्र का डिजिटल प्रिंट ‘ रशियन रिजेंबलेंस’ भी था।
वाटरकलर में बना रामविरंजन (कुरुक्षेत्र विश्विद्यालय के वरिष्ठ प्राध्यापक) का चित्र ‘रशियन विलेजेज ‘ जिसमें बर्फ से ढकी झोपड़ी, सड़क, पेड़- पौधे को उकेरा गया है। रामविरंजन की तस्वीरों में रूस के गांव और बर्फ प्रमुखता से उभर कर आते हैं। इन्हें देखते हुए पुराने पढ़े गए रूसी उपन्यास याद आते हैं। फोटोग्राफर और वृत्तचित्र निर्माता विनय के. बहल ने रूस के वैसे बौद्ध केन्द्रों को कैमरे में कैद किया है जिनका भारत से गहरा रिश्ता रहा है। विनय के. बहल की तस्वीरों के साथ टेक्स्ट भी महत्वपूर्ण है। विनय के बहल द्वारा ली गई तस्वीरों और छपी सामग्री से कई नई बातों से प्रेक्षक वाकिफ होता है। जैसे भारत के बाहर के बौद्ध मंदिरों और वहां मिलने वाली पांडुलिपियों में ब्रह्मा, इंद्र, गणेश, शिव सरीखे देवताओं को देखा जा सकता है। बिहार से जन्मी बौद्ध धर्म की एक शाखा (वज्रयान) की सत्रहवीं शताब्दी में ही रूस के सुदूर इलाकों तक भारत के देवी देवताओं ( विष्णु, शिव आदि ) की पहुंच साइबेरिया तक हो चुकी थी। बुरातिया का क्षेत्र एशिया के सबसे उत्तरी इलाके में अवस्थित है।
साइबेरिया के बुरातिया नामक स्थान में 1764 में रूस की तत्कालीन महारानी कैथरीन ने बौद्ध मंदिर बनवाया था। यहां बौद्ध धर्म और संस्कृत के अध्ययन की सुविधा थी। प्रदर्शित टेक्स्ट के अनुसार बौद्ध धर्म को तब राष्ट्रीय धर्म तक का दर्जा तक हासिल था। विनय के. बहल द्वारा ली गई तस्वीरों में रूस के बुरातिया और कलमीकिया में रहने वाले बौद्ध लामाओं की तस्वीर है जिन्होंने भारत में रहकर बौद्ध धर्म की प्रशिक्षण लिया है। लद्दाख इलाके के लामाओं द्वारा रूसी बौद्धों को प्रशिक्षण दिया जाता है। वहीं कलमीकिया में नालंदा के सत्रह महान आचार्यों का सम्मान किया जाता है। जिनमें बिहार में जन्में और तिब्बत में बौद्ध धर्म के जन्मदाता माने जाने वाले श्रीज्ञान अतीश आदि प्रमुख हैं। बिनॉय के. बहल की एक तस्वीर में बुद्ध की तांबई मूर्ति के समक्ष एक जोड़े की उतफुल्ल मुद्रा देखकर सहज ही मुस्कान उभर जाती है।
एक तस्वीर के डिस्क्रीप्शन में बताया गया है की 1991 में सोवियत संघ के विघटन के बाद बौद्ध केन्द्रों में लोगों की दिलचस्पी बढ़ी है। एक टिप्पणी यह भी बताती है कि सोवियत संघ के दौर में बौद्ध केन्द्रों का विकास नहीं हो रहा था लेकिन अब हो रहा है। वैसे भी प्रदर्शनी में सोवियत दौर के संबंधित छवियां थोड़ी कम है जबकि भारत-रूस के प्रगाढ़ संबंधों की नई बुनियाद उसी काल में डाली गई थी। संभव है सोवियत संघ के दौर के अनुभव को दोनों देशों का वर्तमान नेतृत्व विस्मृत कर देना चाहता हो।
सोवियत दौर की याद दिलाती 1987 का एक पोस्टर इस प्रदर्शनी में शामिल हैं जिसमें दोनों देशों के झंडों के साथ युवा कलाकारों के कैंप “आर्ट फॉर्म्स” संबंधी सूचना है। ऑल इंडिया यूथ आर्टिस्ट फोरम और सोवियत दूतावास द्वारा आयोजित किया गया है। आनंदमय बनर्जी की तस्वीरों से हमें सोवियत दौर की कुछ छवियां नजर आती है। तस्वीर में भारत के विभिन्न भागों के विद्वानों और साहित्यकारों की तस्वीर है 1972 की इस तस्वीर में भारतीय दर्शन के विद्वान माने जाने वाले देवी प्रसाद चटोपाध्याय नजर आए।
ज्यादातर रूस भ्रमण पर गए इन कलाकारों ने रूस के शहरों, जैसे सेंट पीटर्सबर्ग, मास्को आदि की प्राकृतिक सुंदरता को पकड़ा है। इनमें आम लोगों की मौजूदगी एक दो चित्रों में ही दिखाई पड़ती है। ‘रशिया एन इंडियन व्यू’ प्रेक्षक को एक नए अनुभव से गुजरती है जिसका प्रभाव देर तक बना रहता है। इस प्रदर्शनी में सहयोग दिया है आई. ई. सी यूनिवर्सिटी और सी.टी.टी. सी.आई ने । ‘रशिया एन इंडियन व्यू’ का देश के प्रमुख शहरों में भी प्रदर्शन होना है।
निकोलाई रोरिक :
दिल्ली स्थित रशियन सेंटर भी पहली बार जाना हुआ। निकोलाई रोरिक की हिमालय यात्रा के बारे में पहले सुन चुका था। राहुल सांकृत्यान के विचार उनके बारे में पढ़ चुका था। शिमला में उनके अनूठे म्यूजियम के बारे में भी जानकारी थी।निकोलाई के डेढ़ सौवें जन्म वर्ष के अवसर पर यह प्रदर्शनी ‘हिज मास्टर्स व्वायस’ के नाम से प्रदर्शित की गई थी। रशियन सेंटर में निकोलाई रोरिक की प्रदर्शनी देखना बेहद सुखद अनुभव रहा। उनके काम और महत्व के बारे में जानने का मौका मिला।
उनकी लगभग सौ वर्ष पुरानी तस्वीरों का अवलोकन विस्फारित मित्रों से करता था। घोड़े पर की उनकी पुरानी छवियां मन में देर तक अंकित रहीं। यह जान सुखद आश्चर्य हुआ कि वे प्रारंभिक दिनों में थियेटर के लिए सेट डिजायन भी किया करते थे। ऐसे कई डिजायन प्रदर्शित किए गये थे। 1905 से 44 के दौरान उन्होंने 30 नाटकों का सेट डिजायन किया था। अपने जीवन के प्रारंभिक दौर से ही निकोलाई रोरिक को इतिहास, पुरातत्व और चित्रकला में रुचि उत्पन्न हो गई थी। पूरब और खासकर भारत के प्रति उनका लगाव भी उसी दौर में बढ़ा था। लगभग सवा सौ वर्ष की एक तस्वीर जिसमें वे झोपड़ी में खड़े हैं। उनके ठीक बगल में उनकी बनायीं पेंटिंग भी मौजूद है। उनकी तस्वीरें किसी भी कलाप्रेमी के लिए एक दुर्लभ अनुभव है। 1897 की एक तस्वीर में निकोलाई रोरिक एक झील में नाव में सबसे किनारे बैठे हैं।
कई नई बातों से अवगत हुआ भारतीय फिल्म जगत के प्रारंभिक दौर की मशहूर अभिनेत्री देविका रानी का उनकी बहु बनना, पूरे मध्य एशिया का उनका परिवार के साथ दौरा, उन्नीसवीं शताब्दी की उनकी बचपन और युवा अवस्था की तस्वीरें यह सब कुछ अभिभूत करने वाला था। रशियन सेंटर ने निकोलाई रोरिक के पूरे जीवन चरित को फोटो के साथ बहुत अच्छे से प्रदर्शित किया था। जवाहर लाल नेहरू के साथ निकोलाई रोरिक की एक पुरानी तस्वीर देर तक निहारने को मजबूर करती रही। वस्तुतः उनकी पुरानी तस्वीरों को देखना रोमांच से भर जाना है।
निकोलाई रोरिक का जन्म 1874 में रूसी साम्राज्य की पुरानी राजधानी सेंट पीटर्सबर्ग में हुआ था। हुआ था। लेनिन के लगभग समकालीन। निकोलाई रोरिक का रूसी आर रंगमंच के बादशाह माने जाने वाले स्तानिस्लावस्की, युद्ध और शांति जैसी कालजई कृति के लेखक तौलस्ताय आदि से भी परिचय था। पता नहीं 1917 के विश्व्यापी महत्व वाली रूसी क्रांति के बारे में उनकी क्या राय रही होगी । निकोलाई रोरिक को लंबा जीवन मिला। संभवत उनके संस्मरणों का हिंदी अनुवाद पटना में रहने वाली मीरा मिश्रा ने किया था। एक प्रकाशक को दिया भी हुआ है पर अब तक प्रकाशित नहीं हो पाया है। सोचा पटना लौटकर उनसे इसे शीघ्र प्रकाशित करने के बारे में उनसे बात करूंगा। शिमला में उनका म्यूजियम देखने की उत्कंठा बढ़ती जा रही हैं।
निकोलाई रोरिक का भारत के लिए क्या महत्व है यह हमें भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की इस टिप्पणी से पता चलता है-
“जब मैं निकोलस रोरिक के बारे में सोचता हूँ तो मैं उनकी गतिविधियों और रचनात्मक प्रतिभा के दायरे की विविधता और व्यापकता पर चकित हो जाता हूँ। एक महान कलाकार, एक महान विद्वान, लेखक, पुरातत्वविद् और खोजकर्ता जिन्होंने मानव प्रयास के कई पहलुओं को छुआ और हमारे सामने लाकर उसे प्रकाशित किया । उन्होंने हज़ारों पेंटिंग्स की रचना की है और उनमें से हर एक कला की एक महान कृति है। जब आप इन पेंटिंग्स को देखते हैं, जिनमें से कई हिमालय की हैं, तो आप उन महान पर्वतों की भावना को पकड़ लेते हैं जो भारतीय मैदानों खड़े हैं और सदियों से हमारे प्रहरी रहे हैं। वे हमें हमारे इतिहास, हमारी सांस्कृतिक और आध्यात्मिक विरासत की याद दिलाते हैं । वे सिर्फ हमें हमारे अतीत की याद नहीं दिलाते बल्कि भारत के बारे में कुछ ऐसा चिन्हित करते हैं जो स्थायी और शाश्वत है। हम निकोलस रोरिक के प्रति कृतज्ञता की भावना महसूस किए बिना नहीं रह सकते जिन्होंने इन शानदार कैनवस में उस भावना को संजोया है।”