संगीता कोडिमयाला : मिट्टी, स्मृति और संवेदना की चित्रभाषा

नई दिल्ली, 18 अक्टूबर। कल यानी शुक्रवार को कलाकार-मित्र त्रिभुवन देव के साथ ललित कला अकादमी की रवींद्र भवन दीर्घा जाना हुआ। इस दीर्घा से हमारी अनेक यादें जुड़ी हैं, और मेरा मानना है कि कला प्रदर्शनियों के दृष्टिकोण से यह राजधानी की सबसे श्रेष्ठ कला दीर्घाओं में से एक है। यह अलग बात है कि वर्ष के कई महीनों तक यह दीर्घा अक्सर बंद ही रहती है — बावजूद इसके, अधिकांश कलाकारों की पहली पसंद भी शायद यही रहती है।

दीर्घा की पहली मंज़िल पर हमारी मुलाकात हुई हैदराबाद से आईं कलाकार संगीता कोडिमयाला और उनके पति से। यह मुलाकात और उनसे हुई बातचीत अत्यंत प्रभावित करने वाली रही। मेरे लिए संगीता से संवाद इसलिए भी विशेष रहा कि उनके चित्रों में जहाँ एक ओर रूपाकारों की नवीनता स्पष्ट झलक रही थी, वहीं दूसरी ओर उन्होंने अपने चित्रों के लिए मिट्टी से तैयार प्राकृतिक रंगों का प्रयोग किया था — यह जानकर सुखद आश्चर्य और गहरी उत्सुकता का अनुभव एक साथ हुआ।

किसी कलाकार की कला यात्रा शायद ही कभी सीधे रास्ते से होकर गुजरती हो, वह अक्सर अनुभवों, संयोगों और आत्म-साक्षात्कार की पगडंडियों से होकर गुजरती है। संगीता कोडिमयाला की कलात्मक यात्रा भी ऐसी ही एक संवेदनशील परिक्रमा है, जिसमें तकनीक की ठोस दुनिया से लेकर प्रकृति की सूक्ष्म लय तक का सुंदर संगम दिखाई देता है।

तेलंगाना के हनमकोंडा में जन्मी संगीता बचपन से ही रंगों और रेखाओं की ओर आकृष्ट थीं। परंतु जीवन ने उन्हें आरंभ में एक अलग दिशा दी — उन्होंने कंप्यूटर इंजीनियरिंग में करियर चुना। पर तकनीकी जीवन की व्यस्तता के बीच कला का बीज उनके भीतर बचा रह गया, शायद किसी अनुकूल अवसर या मौसम की प्रतीक्षा करता I आखिरकार वह मौसम आ ही गया, जब संगीता ने एम्स्टर्डम के विन्सेंट वैन गॉग आर्ट म्यूज़ियम का दौरा किया। वैन गॉग की रंग-आग और आत्म-संघर्ष की कथा ने उनमें एक गहरा परिवर्तन जगा दिया। उसी क्षण उन्होंने ठान लिया कि अब जीवन केवल तर्क का नहीं, सृजन का होगा।

यह आत्मबोध उनके जीवन का निर्णायक मोड़ था। 2021 में उन्होंने आंध्र विश्वविद्यालय से बैचलर ऑफ़ फ़ाइन आर्ट्स (BFA) की डिग्री प्राप्त की। इसके बाद 2023 में उन्होंने हैदराबाद विश्वविद्यालय के सरोजिनी नायडू स्कूल ऑफ़ आर्ट्स एंड कम्युनिकेशन से मास्टर ऑफ़ फ़ाइन आर्ट्स (MFA) पूरा किया। यह कालखंड उनके लिए केवल शैक्षणिक प्रशिक्षण का ही नहीं, बल्कि आत्म-अन्वेषण का भी था।

इसी दौरान उन्होंने प्राकृतिक पदार्थों और जैविक रंगों के साथ प्रयोग करना शुरू किया। उनके लिए यह प्रयोग केवल तकनीक नहीं था, बल्कि एक नैतिक और दार्शनिक दृष्टिकोण का विस्तार था — प्रकृति और मनुष्य के बीच टूटते संबंधों को पुनः जोड़ने का प्रयास। उनकी कला में यह परिवर्तन स्पष्ट रूप से दिखता है: अब वह रासायनिक रंगों या औद्योगिक सामग्री की जगह मिट्टी, पत्तियों, लकड़ी, कपास और सूखे फूलों से काम करने लगीं।

दरअसल संगीता की कलात्मकता केवल दृश्य नहीं, बल्कि आत्मिक है। उनकी रचनाओं में प्रकृति, कविता और तत्वमीमांसा का सम्मिलित स्वर सुनाई देता है। वे मानती हैं कि प्रत्येक वस्तु — मिट्टी, जल, वृक्ष या वायु — में एक चेतना है, और कलाकार का कार्य उस चेतना को आकार देना है। यह दृष्टि उन्हें एक ऐसा पर्यावरण-संवेदनशील कलाकार बनाती है, जो आधुनिक उपभोगवाद और भौतिक अतिरेक के युग में सादगी और संतुलन की बात करती हैं।

उनकी कलाकृतियाँ अपने भीतर एक प्रकार की ध्यानात्मक शांति लिए होती हैं। वे पारिवारिक संस्कारों और नैतिक मूल्यों से प्रेरित हैं — शायद इसलिए उनके चित्रों में कोमलता और स्थिरता का अद्भुत संतुलन दिखाई देता है। संगीता ने अपने तुलनात्मक रूप से अल्पकालिक करियर में ही राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अनेक प्रदर्शनियों में भाग लिया है।

उन्होंने अपनी कलाकृतियाँ TAK Contemporary (पेरिस), Stranger’s House Gallery (मुंबई), Gallery Veda (चेन्नई), Apparao Galleries (चेन्नई / दिल्ली), Birla Academy of Art and Culture (कोलकाता), Bombay Art Society (मुंबई), CIMA (Centre of International Modern Art, कोलकाता), Gallery Time and Space (बेंगलुरु) और चित्रमयी स्टेट गैलरी ऑफ़ आर्ट (हैदराबाद) जैसी प्रतिष्ठित संस्थाओं में प्रदर्शित की हैं।

उनकी कलाकृतियों को विभिन्न पुरस्कारों से भी सम्मानित किया गया है। वर्ष 2023 में उन्होंने फ़्रांस के बोर्डो स्थित École des Beaux-Arts के विद्यार्थियों के साथ एक अकादमिक कला विनिमय कार्यक्रम (Academic Exchange Program) में भाग लिया, जिसने उनके दृष्टिकोण को और व्यापक बनाया।

संगीता कोडिमयाला की कला किसी विषय वास्तु का चित्रण मात्र नहीं करती, बल्कि वह अपने अनुभवों को अपनी कृतियों में रुँपंतरित करती हैं । उनकी कलाकृतियाँ एक प्रकार की inner ecology हैं — जहाँ कलाकार स्वयं प्रकृति के साथ संवाद करती है और उसी संवाद से रूप, बनावट और अर्थ की नई संरचनाओं को जन्म देता है I वह कहती भी हैं कि “कला केवल दृष्टि से नहीं, संवेदना से जन्म लेती है।” ऐसे में उनके लिए सृजन एक आध्यात्मिक प्रक्रिया है, जिसमें तकनीकी दक्षता और आत्म-संवेदना एकाकार हो जाती है।

आज संगीता हैदराबाद और विशाखापत्तनम (विज़ाग) के बीच रहकर कार्यरत हैं। उनके लिए कला किसी एक स्थान या शैली तक सीमित नहीं — बल्कि वह एक निरंतर प्रवाह है। उनकी यात्रा यह प्रमाणित करती है कि तकनीक और सृजन, विज्ञान और संवेदना, दो विपरीत नहीं बल्कि दो पूरक ध्रुव हैं — और जब ये संतुलन में आते हैं, तब जन्म लेती है वह कला जो मनुष्य और प्रकृति दोनों को जोड़ती है। वस्तुतः संगीता कोडिमयाला की कला इसी जोड़ की कहानी है — धरती की गंध, स्मृतियों की परतों और मन की मौन लय से बनी एक चित्रभाषा। संगीता अपने चित्रों के लिए विभिन्न तरह की मिट्टी से रंग तैयार तो करती ही हैं, अपनी इस तकनीक को सहर्ष साझा भी करती हैं I

इतिहास के पन्नों में झांकें तो पता चलता है कि मौजूदा समय में व्यवहृत होने वाले रासायनिक रंगों से हजारों लाखों वर्ष पहले से मनुष्य प्राकृतिक रंगों का प्रयोग करता चला आ रहा है I दरअसल मिट्टी से तैयार रंगों (earth pigments) का इतिहास अत्यंत प्राचीन और विश्वव्यापी है। यह मानव सभ्यता की सबसे आरंभिक कलात्मक गतिविधियों से जुड़ा हुआ है। सर्वप्रथम प्रागैतिहासिक काल में मनुष्य ने सबसे प्राचीन रंग मिट्टी, खनिज और पत्थरों से तैयार किए गए थे। जिसका प्रमाण हमें आदिम गुफा चित्रों (जैसे — भीमबेटका, अल्तामीरा, लास्को) में लाल गेरुआ, पीली मिट्टी, कोयला (काला), और चूना (सफेद) प्रमुख रूप से प्रयुक्त हुए। ये रंग प्राकृतिक खनिजों — हेमटाइट (लाल), गोथाइट (पीला), चारकोल (काला) और कैल्साइट (सफेद) — से तैयार किए जाते थे। उस दौर में इन्हें पशु चरबी, अंडे की जर्दी या पानी के साथ मिलाकर सतह पर लगाया जाता था।

इसके बाद की शताब्दियों की बात करें तो सिन्धु घाटी और वैदिक काल में सिन्धु सभ्यता (2600–1900 ई.पू.) की मिट्टी की मूर्तियों और बर्तनों पर लाल, काले और सफेद मिट्टी के रंग पाए गए हैं। वहीँ इस दौर में “लाल गेरुआ (red ochre)” से मंदिरों, भित्तियों और मूर्तियों पर सजावट की जाती थी। वैदिक काल में गेरु का उल्लेख यज्ञ-विधानों और शरीर अलंकरण में मिलता है। अथर्ववेद में “हरिता, पीला, रक्त वर्ण, कृष्ण वर्ण” मिट्टी आधारित रंगों का उल्लेख मिलता है। वहीँ मौर्य, शुंग और गुप्त काल की बात करें तो मौर्यकालीन अजंता, भरहुत, साँची की भित्ति चित्रों में लाल, पीला, काला और नीला रंग प्राकृतिक मिट्टी या खनिज से बने थे। भारतीय लोक और पारंपरिक कला में यह प्रयोग तो आज भी कुछ हिस्सों में देखने को मिल जाता है — जैसे मधुबनी, पिथोरा, वारली, भील, गोंड, पटा, पहाड़ी, पिछवाई — में मिट्टी से बने रंगों का अब भी प्रयोग जारी है।

देखा जाये तो भारतीय परंपरा में मिट्टी के रंग प्रकृति, स्थायित्व और पवित्रता का प्रतीक हैं। यहाँ गेरू को “भूमि का रक्त” कहा गया है — जो ऊर्जा, श्रम और जीवन शक्ति का द्योतक है। दरअसल मिट्टी से रंग बनाना मानव और प्रकृति के बीच एक सहजीव संबंध की अभिव्यक्ति है। ऐसे में एक सवाल यह भी उठता है कि मनुष्य ने सबसे पहले मिटटी से रंग बनाये या वनस्पतियों से ? तो ऐसे में पुरातात्त्विक और नृवंशशास्त्रीय साक्ष्य बताते हैं कि रंग निर्माण की यह परंपरा हजारों वर्षों पुरानी है, और इसमें मिट्टी (खनिज रंग) सबसे पहले आती है, उसके बाद वनस्पति रंग विकसित हुए। पुरातत्वविदों को अफ्रीका के ब्लॉम्बोस गुफा ( दक्षिण अफ्रीका) से लगभग 75,000 वर्ष पुराने “ओखर” (Ochre) के टुकड़े मिले हैं, जिन्हें घिसकर रंग बनाने के प्रमाण हैं। जैसा कि संगीता ने भी बताया कि मिट्टी से तैयार ये रंग स्थायी होते हैं, और जलवायु के प्रभाव से भी जल्दी नहीं मिटते, इसलिए प्रागैतिहासिक शैलचित्रों में अब भी इनकी चमक बरक़रार है I अपने यहाँ भारत में भी भीमबेटका (मध्य प्रदेश) की शैलचित्रों में लाल और भूरे ओखर के प्रयोग के प्रमाण हैं — जो लगभग 10,000 वर्ष पुराने हैं I

इस तरह देखें तो संगीता अपने चित्रों के लिए मानव सभ्यता के आरंभिक दौर की रंग-सामग्रियों को आधुनिक समय में पुनः अपनाती हैं। प्रकृति से जुड़ने की उनकी यह उत्कट लालसा और अदम्य इच्छा उनके रूपाकारों में सशक्त रूप से रूपायित होती है। उनके चित्रों की आकृतियाँ दर्शक को एक साथ परिचित और अपरिचित होने का गहरा अनुभव कराती हैं। जलीय जीव-जंतुओं और वनस्पतियों से मिलती-जुलती आकृतियाँ पहली दृष्टि में सहज और सामान्य लगती हैं, परंतु अगले ही क्षण उनके कुछ अंश किसी दूसरी, रहस्यमयी दुनिया की चीज़-से प्रतीत होने लगते हैं। सरल शब्दों में कहें तो संगीता के रूपाकार हमारे चेतन और अवचेतन — दोनों स्तरों पर एक साथ दो भिन्न मनःस्थितियों का अनुभव कराते हैं। साथ ही वे हमारी सौंदर्य-अनुभूति को भी एक विलक्षण, रहस्यमय और गहन अंदाज़ में जाग्रत करती हैं।

-सुमन कुमार सिंह

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