सामान्य जीवन के सौंदर्य को उदघाटित करते शैलेंद्र-२

अनीश अंकुर मूलतः संस्कृतिकर्मी हैं, किन्तु अपनी राजनैतिक व सामाजिक अभिव्यक्ति के लिए भी जाने-पहचाने जाते हैं। उनके नियमित लेखन में राजनीति से लेकर समाज, कला, नाटक और इतिहास के लिए भी भरपूर गुंजाइश रहती है। बिहार के मौजूदा कला लेखन की बात करें तो जो थोड़े से नाम इस विधा में सक्रिय हैं उनमें से एक महत्वपूर्ण नाम अनीश अंकुर हैं। उनकी सदैव कोशिश रहती है बिहार से बाहर के कला जगत को बिहार की कला गतिविधियों से रूबरू कराते रहा जाए। पिछले दिनों बिहार म्यूजियम, पटना में बिहार के तीन वरिष्ठ कलाकारों की पुनरावलोकन प्रदर्शनी आयोजित हुयी। आलेखन डॉट इन के अनुरोध पर प्रस्तुत है वरिष्ठ कलाकार/छायाकार शैलेन्द्र कुमार के सृजन संसार पर उनकी विस्तृत समीक्षात्मक रपट का दूसरा और अंतिम भाग..……

Anish Ankur

 

नाव श्रृंखला:

नाव के प्रति एक स्वाभाविक आसक्ति हर भारतवासी के मन में रहा करती है। शैलेन्द्र कुमार ने नाव को लेकर काफी प्रयोग किये हैं। नाव श्रृंखला का काम भी कई दशकों से चल रहा है। लिहाजा यहाँ नाव और उसपर लोगों के रहने के ढंग की अब ऐसी तस्वीरें हैं जो अब लगभग विलुप्त होने के कगार पर है।

गंगा के किनारे नाव पर जब रहने का छोटा ठिकाना हुआ करता था उस समय की टॉप एंगल से ली गई तस्वीरें हैं।अब इस किस्म के नाव देखने को भी नहीं मिलते। वैसे भी गंगा में पानी ही कम होता चला गया है। गंगा किनारे संध्या समय ठहरे पानी में हवा के झोंके से पानी में बनती तरंगों के बीच नाव शांत भाव से खड़ी है। शैलेन्द्र कुमार ने यहां कम रौशनी में फोटो खींचा है। वैसे भी बेहद कम या कहें नीम रौशनी में,जब फोटो खींचना बेहद चुनौतीपूर्ण हुआ करता है, शैलेन्द्र कुमार शटर व एपर्चर के संतुलित व सृजनात्मक इस्तेमाल से इस कार्य को सधे अंदाज में अंजाम देते हैं।

नाव की तस्वीरें अधिकांशतः किसी पुल से ली गई प्रतीत होती हैं। पटना के गांधी सेतु से ऐसे नावों की छवियां दिखाई पड़ती हैं। शैलेन्द्र कुमार का कमाल इस बात में है कि नाव पर रखे जाल, पानी, बालू और संध्या समय सूर्य की लालिमा से जो एक समन्वित छटा दिखाई पड़ती है उस क्षण को पकड़ा है। कहीं-कहीं खींचे गए फोटो में रंगों की तीव्रता को फोटोशॉप से एडजस्ट किया गया है। जाल का नीला रंग, डूबते सूर्य की लालिमा और बालू पर नदी के पानी का उफनता फेन एक गुलाबी आभा प्रदान करता है। ऐसी याद रहने वाली तस्वीरें नाव श्रृंखला में मौजूद हैं।

गंगा, बालू और मज़दूर:

शैलेन्द्र कुमार ने लगभग दो दशक पहले से गंगा में नाव द्वारा बालू निकालने की प्रक्रिया को कैमरे में कैद करना शुरू कर दिया था। केले की खेती की तस्वीरों से हाजीपुर के इलाके का संकेत मिला करता है। हाजीपुर के तरफ गंगा में हरी फसलों के बीच कच्चे रास्तों पर एक ट्रक धूल उड़ाती चली आ रही है। हरे- भरे खेत के बीच घुमावदार कच्चे रास्ते पर धूल फैली है और ट्रक चली आ रही है। 2004 की यह तस्वीर बिहार की उन तस्वीरों में है जब कहा जा रहा था कि ‘विकास’ की सख्त जरूरत है बिहार को। इस तस्वीर में ट्रक हरियाली को रौंदते हुए ट्रक चली आती प्रतीत होती है। जाहिर है ट्रक उस क्षेत्र में बालू की खोज में गया है। यह तस्वीर इस मायने में महत्वपूर्ण है कि गंगा के बालू का जिस बड़े पैमाने ओर उत्खनन किया गया कि आज वह पर्यावरणीय संकट में परिवर्तित होता चला गया है।

टॉप व्यू से सम्भवतः गांधी सेतु से ली गई एक अन्य तस्वीर में एक फुस की बनी झोपड़ी, भैंस, खटिया, कुत्ता, जैसे चिन्हों से गरीब लोगों की अस्थाई बने घर को खींचा गया है। बरसात के महीने में जब गंगा में पानी बढ़ने लगता है मज़दूरों की बसाई गई अस्थाई बसावट, फसल सब डूब जाते हैं लेकिन पानी उतरते ही फिर से वही प्रक्रिया बस जाती है। लेकिन तस्वीर का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा वह है जिसमें एक किनारे पर धूल नजर आ रही है। यदि ट्रक वाले फोटो की निरन्तरता में इस तस्वीर को देखा जाए तो ट्रक जिस धूल को उड़ा रही है वह वह इस घर तक चली आ रही है। इस फोटो को नाव से बालू उठाते और गन्तव्य तक पहुंचाते मज़दूरों की दूसरी तस्वीरों के साथ मिलाकर देखी जाए तो इस पूरी परिघटना को समझा जा सकता है । विकास की हवस, बालू की निकासी और इसमें भोले-भाले मज़दूरों का उपयोग, शैलेन्द्र कुमार की इस श्रृंखला की तस्वीरों से समझा जा सकता है। गंगा में बालू ढोते, काटते मज़दूरों की सामूहिक तस्वीरों में कामगारों का पृष्ठभाग दिखता है। दोनों तरफ बालू के ढेरों के संकरे रास्ते में मज़दूर काम कर रहे हैं।

प्रदर्शनी की कुछ यादगार फोटो में से है नदी के कछार में अकेले विचरण कर रहे संभवतः मछुआरे की तस्वीर। ढ़लते सूर्य में नदी का आकर्षक विस्तार, पानी जैसे बालुई सतह के ठीक नीचे हो, उसमें इकलौते व्यक्ति की उपस्थिति। टॉप एंगेल से की गई यह तस्वीर अलग से ध्यान खींचती है।

अजंता – एलोरा श्रृंखला:

यदि अजंता सीरीज के उनके कार्यों को देखें तो काफी कम या कहें नाममात्र के रौशनी में भित्तिचित्रों के तस्वीर उसके छोटी-छोटी बारीकियों के साथ उतार पाने में सफल हो पाते हैं। 2010 में अजंता के भित्तिचित्र की फोटोग्राफी शैलेन्द्र कुमार ने की थी लेकिन अब अजंता की फोटोग्राफी बंद कर दी गई है। इस लिहाज से इन चित्रों को देखना एक दुर्लभ अनुभव है।

शैलेन्द्र कुमार ने अजन्ता- एलोरा की प्राचीन मूर्तियों को कुछ इस अंदाज़ में खींचा है मानो उसकी पूरी भव्यता नंगी आंखों से देखी जा रही हो। गुफा के अंधेरे में मौजूद मूर्तियों जिस ढ़ंग से नीम रौशनी में तस्वीर ली गई है वो कैमरे पर बगैर असाधारण पकड़ के सम्भव प्रतीत नहीं होती।

प्रदर्शनी में कुछ ऐसी मूर्तियों की तस्वीर शामिल है जो टूटी-फूटी अवस्था में रही हैं। ग्रामीण इलाकों में इन मूर्तियों को लोग पूजा करने लगते हैं। कई बार उस पर सिंदूर आदि लगाकर पूजा की जाती है। पत्थर की इन मूर्तियों के सूक्ष्म ब्यौरे सामने लाये गए हैं जिससे धार्मिक भाव से लगाए गए सिंदूर की परतों के पीछे उसकी ऐतिहासिकता का अहसास दर्शकों को होता है। साथ ही धार्मिकता के रंग के कारण ऐतिहासिक महत्व की वस्तुएं किस अवस्था में चली गई हैं।

शैलेन्द्र कुमार ने एक फ्रेम में साधुओं व बाबाओं का व्यक्ति चित्र बनाया है जिसमें मनेर के सूफी से लेकर हिंदुस्तान भर के अलग-अलग कालखंड में ली गई बाबाओं की विभिन्न मुद्राओं व भंगिमाओं वाली तस्वीर है। ठीक इसी प्रकार मुजफ्फरपुर के बोचहां प्रखंड के लहठी बनाने वाली विभिन्न औरतों की तस्वीर को एक फ्रेम में लाया है। इन पन्द्रह महिलाओं में आधी हिन्दू जबकि आधी मुस्लिम बताई जाती है। जाहिर तस्वीर से उनके धर्म का तो पता नहीं चलता लेकिन वर्ग का अवश्य पता चलता है। उनके चेहरे से उनके कामगार वर्ग का अंदाजा लगाया जा सकता है।

एक बड़ी तस्वीर गया के विष्णुपद मंदिर की है जिसमें दान दिए हुए लोगों ने अपने नाम टाइल्स पर खुदवाकर साक्ष्य के बतौर खानदान के नाम पर चढ़ाते हैं। लेकिन उन तस्वीरों पर लोगों के जूतों की मिट्टी के निशान के साथ तस्वीर को ऊपर से इस प्रकार लिया गया है कि देखने वाले को टाइल्स में दर्ज नाम और उस पर फैली मिट्टी को देखा जा सकता है। इस तस्वीर में छुपे व्यंग्य को सहज समझा जा सकता है।

रिट्रोस्पेक्टिव में गया के पास ‘बराबर'” पहाड़ की, वैशाली के ‘चेचर’ की तब खींची गई तस्वीर है जब वहां चेचर म्युजियम के बहाने दुनिया वहां के ऐतिहासिक खजाने से सम्भवतः परिचित न थी। ठीक इसी प्रकार गांव में पूजा करना, तेल गिराकर सिंदूर लगाने वाली फोटो भी है।

शैलेन्द्र कुमार ने 28 वर्ष पूर्व खींची गई दौड़ लगाते हुए नागा साधुओं की ब्लैक-एंड व्हाइट तस्वीर थी। साथ ही इलाहाबाद और हरिद्वार में आयोजित कुम्भ में नाग साधुओं की विशाल मौजूदगी वाले चित्र थे। जूना अखाड़ा, प्रदर्शनी में आदिवासी लोगों की व्यक्तिगत तस्वीर है। उनकी निजी तस्वीर को शैलेन्द्र कुमार ने उनके माहौल के साथ, उनके घर, उन पर बनी आकृतियों के साथ उपस्थित किया है। तस्वीर सबसे बढ़कर आदिवासी कौतूहल, उनके सहज स्वाभाविक निर्दोष भाव के साथ प्रकट करती है।

गया के निरंजना नदी के किनारे मतन्गव्यापी, अहमदाबाद में शहर के बीच में ‘ हेरिटेज वाक’ की तस्वीर प्रदर्शनी में चर्चित तस्वीरों में है। इसके अलावा अंडमान निकोबार के सेल्युलर जेल, पानी में हाथियों द्वारा लकड़ी की बड़ी सिल्लियों को लादा जाना, आदिवासी जीवन में गरीब महिला का अपने शिशु को गोद में रखना, उसे स्तनपान कराने के वात्सल्य भाव को सामने लाता है। शिशु जिस उत्सुकता से मां के स्तन को नन्हें मुख से पकड़े है वह इसे दर्शनीय चित्र बनाता है। 2021 का हरिद्वार कुम्भ, कोलकाता के अखाड़ा में दुर्गापूजा की तस्वीर मूर्ति चेहरे पर पड़ती रौशनी और शेष भाग का अंधेरे में रहने वाली फोटो सौंदर्यानुभूति कराती है।

Ahmadabad

टेम्पल्स ऑफ बिहार’ पर भी उनकी एक श्रृंखला है। एक तस्वीर इस श्रृंखला की है। दरवाजे से मंदिर की भव्यता देखने में बनती है। कैमरे की आंख से उन्होंने इन छवियों को उनकी पूरी भव्यता व उनमें निहित अंदरूनी सौंदर्य को सामने लाया है।

एक छायाकार के चारों ओर अनन्त दृश्य उपस्थित है । छायाकार इसमें से किस दृश्य को कैद करने लायक समझता है और किस दृश्य को नहीं ! वह अपनी फोटो में कुछ चीजों को उपस्थित करता है तो कुछ चीजें अनुपस्थित रहा करती हैं। क्या उपस्थित रहेगा और क्या अनुपस्थित यह छायाकार की सोच और दृष्टिकोण पर निर्भर करता है। शैलेन्द्र कुमार की फोटोग्राफी में अपनी तकनीकी प्रवीणता, सफाई व सुरुचि -सम्पन्नता के लिए जानी जाती है। तस्वीरें, चित्र उसका फ्रेमिंग, उसका प्लेसमेंट सबकुछ चाक-चौबंद व दुरुस्त रहा करता है।

लेकिन एक सवाल एक सामान्य पाठक के मन में सहज उठ सकता है जिस फोटोग्राफर ने अपने जन्म से लेकर छह दशक से अधिक समय पटना में बिताया हो। यह शहर हंगामे, उथल-पुथल, व परिवर्तनों का केंद्र रहा है वैसे में उसकी छवियां अनुपस्थित क्यों हैं? जो भी छवियां हैं उसमें छायाकार ने ग्रामीण व उसे जुड़ी पारंपरिक छवियों के प्रति अधिक अनुराग नजर आता है। एक जो नया संक्रमण समाज में हो रहा है ऐसा प्रतीत हो रहा है मानों वह छायाकार के लिए अस्तित्व में ही नहीं है। ग्रामीण जीवन, उसकी परंपराओं, उनके सौंदर्यबोध को उदघाटित करने वाले चित्रकार व छायाकार हैं शैलेन्द्र कुमार। ग्रामीण या गरीब लोगों का जीवन सिर्फ दया और अफसोस के लिए ही नहीं होता बल्कि उनके अपने उल्लास व सौंदर्यबोध होता है। शैलेन्द्र कुमार इसे सामने लाने की कोशिश करते हैं।

शैलेन्द्र कुमार की रिट्रोस्पेक्टिव की थोड़ी कमी यह रही कि कई तस्वीरों के लिए जाने का साल, स्थान या वह किस श्रृंखला का हिस्सा है इसका पता नहीं चल पाता। यदि यह हो पाता तो छायाकार व चित्रकार की विकासयात्रा से आसानी से परिचित हुआ जा सकता था।

एक तस्वीर एक खास समय व स्थान में ली जाती है हर तस्वीर का एक सन्दर्भ रहा करता है। यदि हम सन्दर्भ हटा दें तो वह तस्वीर महज एक इमेज रह जाती है। अतः एक तस्वीर को देखना उन सन्दर्भ को भी समझना है और साथ ही छायाकार को भी की क्या सोचकर उसने उसने यह तस्वीर कैद करने लायक समझा।

इस लिहाज से देखें तो शैलेन्द्र कुमार के विविध रंग हैं लेकिन उसमें प्राथमिकता गांव, परम्परा और उसमें छिपे सौंदर्य को उभारने को मिली है। कैमरे के माध्यम से ब्यौरों में जाने की उनकी तकनीकी दक्षता सामान्य लगने वाली चीजों में भी असामान्य प्रभाव देती है।

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