तो शैलेन्द्र की पढ़ाई की गाड़ी जहाँ स्कूल पर अटकी पड़ी थी, वहीँ कला महाविद्यालय में पढ़ाई की आकांक्षा जागने लगी I ऐसे में कैसे तय हुआ कुर्जी से कला महाविद्यालय तक का सफर…
इसी बीच इनके पड़ोस में कला एवं शिल्प महाविद्यालय, पटना के तृतीय वर्ष के छात्र सखीचंद ने किराये पर एक कमरा ले लिया I पढ़ाई वगैरह से नाता लगभग टूट ही चूका था, तो इन सखीचंद जी की शागिर्दी अपना ली I लोयला स्कूल छूटने के बाद से फोटोग्राफी का शौक भी कहीं दफ़न हो चुका था I ऐसे में अपने इस पहले कला गुरु के सान्निध्य में चित्र बनाने के साथ-साथ फोटोग्राफी में भी हाथ आजमाने के अवसर मिलने लगे I क्योंकि सखीचंद ने भी तब शायद पहली बार अपना नया कैमरा (पेन्टेक्स) ख़रीदा था I अब शैलेन्द्र के पास जब स्कूली दिनों के क्लिक थ्री के बाद पेन्टेक्स जैसा कैमरा हाथ लगा तो एकबारगी मन-मयूर नाच उठा I तय हुआ कि चलो कहीं चलकर तस्वीरें उतारी जाएँ, बस साइकिल पर दोनों लोग सवार हुए और गंगा किनारे जा पहुंचे I वहां पहुंचकर शैलेन्द्र ने गंगा में छलांग लगाई, और सखीचंद ने उन पलों को कैमरे में कैद किया I इन्हीं सखीचंद के साथ पहली बार कला महाविद्यालय, पटना आने का अवसर मिला I कला महाविद्यालय का माहौल देखकर मन में उमंगों का ज्वार उठा तो आँखों में इस महाविद्यालय में पढ़ाई के सपने भी सजने लगे I इसी बीच परिवार में एक दुखद घटना घट गयी, बड़ी बहन के पति का आकस्मिक निधन हो गया I बहन की शादी के मात्र ग्यारह वर्ष तब हुए थे, उनके तीनों बच्चे बहुत छोटे थे I अब इनको सँभालने और देखरेख में शैलेन्द्र का समय जाने लगा, इस कारण दुबारा मैट्रिक की परीक्षा में भी शामिल नहीं हो पाए I यानी एक और साल पढ़ाई के लिहाज़ से जाया हो गया I
उधर सखीचंद जी को कुर्जी चर्च में कुछ बड़ी पेंटिंग बनाने का काम मिल गया I इससे पहले अपने इस उदीयमान कलाकार को पेन्सिल से चित्र बनाने तक का तो पता था, किन्तु आयल कलर (तैलरंग ) से कभी कोई चित्र बनाया नहीं था I वैसे बनाया क्या इससे पहले देखा-सुना तक नहीं था I बहरहाल सखीचंद जी ने इन रंगों का इस्तेमाल करना सिखाया, और तो और काम ख़त्म होने के बाद बचा हुआ रंग भी हवाले कर दिया ताकि आगे भी चित्र बनाना जारी रहे I अब तो शैलेन्द्र ने ठान ही लिया कि किसी तरह कला महाविद्यालय में पढ़ाई करनी ही करनी है I किन्तु इस राह की एक बड़ी बाधा यानी मैट्रिक पास करने की चुनौती अब भी बरक़रार थी I लेकिन उधर यह भी दृढ निश्चय हो ही चूका था कि जैसे भी हो अब मैट्रिक तो पास करनी ही है I तो शैलेन्द्र जुट गए पूरे जी-जान से पढ़ाई कि इस अटकी हुयी गाड़ी को आगे बढ़ाने में I इस बार मेहनत रंग लायी और तृतीय श्रेणी से ही सही लेकिन पास हो ही गए I वैसे घर-परिवार में जिसने भी सुना, वे अभी भी सहजता से इसे स्वीकार नहीं पा रहे थे I लेकिन जब कला महाविद्यालय में नामांकन के लिए फॉर्म वगैरह भरने लगे तो लोगों ने मान लिया कि अबकी बार सही में मैट्रिक पास हो ही गया है I
अब एक तरफ जहाँ शैलेन्द्र ने ठान रखा था कि आर्ट कॉलेज के अलावा कहीं और जाना ही नहीं है I वहीँ पिताजी की सलाह थी कि अन्य कॉलेज में भी कोशिश करनी ही चाहिए I ताकि अगर आर्ट्स कॉलेज में किसी कारण से नामांकन नहीं हो पाया तो किसी और कॉलेज में ही सही पढ़ाई तो जारी रहे I आर्ट्स कॉलेज में नामांकन की जो प्रक्रिया थी, उसके तहत छात्रों को एक टेस्ट एग्जाम देना पड़ता था I उसमें पास होने के बाद ही नामांकन की प्रक्रिया आगे बढ़ पाती थी I खैर आर्ट्स कॉलेज से एडमिशन टेस्ट में भाग लेने की अनुमति मिली I इसके तहत गमले में रखे पौधों को चित्रित करना था, साथ ही अगर पहले का कोई आर्ट वर्क हो तो उसे दिखाना था I तो शैलेन्द्र ने भी पेंसिल से चित्र बनाकर उसमें लाइट एंड शेड डाला, चूँकि इस तरह के चित्र पहले भी बनाते रहने का अभ्यास था इसलिए यह कोई ज्यादा मुश्किल काम लगा नहीं I उधर प्राचार्य पांडेय सुरेंद्र एवं अन्य प्राध्यापक अभ्यर्थियों द्वारा लाये गए कलाकृतियों को देख परख रहे थे I सखीचंद जी द्वारा उपलब्ध कराये गए रंगों से जो कुछ चित्र शैलेन्द्र ने बना रखे थे, उसे इस शिक्षक समूह को दिखायाI शैलेन्द्र बताते हैं –
” जैसा कि मुझे याद आता है लगभग बारह गुणे पंद्रह इंच के बोर्ड पर मैंने एक चित्र बना रखा था I जिसमें हरे रंग की पृष्ठभूमि में उजले रंग से कबूतर बना रखा था I प्राचार्य ने जब इसके बारे में पुछा तो मैंने बताया कि शांति के प्रतीक के तौर पर मैंने इस चित्र को बनाया है I इसके बाद प्राचार्य महोदय का जवाब था – “देखो तुम्हारा एडमिशन तो हो ही जायेगा I लेकिन यहाँ कॉलेज में बहुत राजनीति होते रहता है, तुम ऐसे छात्रों से बच कर रहना I दरअसल कुछ बरस पहले से यहाँ के छात्र डिप्लोमा की बजाए डिग्री की पढ़ाई के लिए आंदोलनरत थे I तो डिग्री की पढ़ाई सुनिश्चित कराने के लिए कॉलेज को पटना विश्वविद्यालय से सम्बद्ध कर दिया गया था I और इसी के तहत डिग्री के पहले बैच की नामांकन प्रक्रिया चल रही थी I खैर नामांकन हो गया और इस तरह से कला महाविद्यालय, पटना के इतिहास में एक नए अध्याय की शुरुआत हो गयी, और मैं भी शामिल हो गया डिग्री की पढ़ाई वाले पहले बैच में I इस तरह से हमारा सत्र था 1980 -85 I “
उस समय पांच साल के पाठ्यक्रम के तहत शुरुआती दो साल प्रिपरेटरी (प्रारंभिक) क्लास होता था, जिसके तहत मूर्तिकला, छापाकला और पेंटिंग से लेकर व्यावसायिक कला के विषय भी पढ़ने पड़ते थे I इन शुरुआती दो वर्षों में फोटोग्राफी नहीं पढ़ाई जाती थी, बहरहाल इस शुरुआती दो साल बिताने के बाद यानी थर्ड ईयर में जाने के बाद फोटोग्राफी क्लास अटेंड करने का अवसर मिला I उससे पहले अपने कुछ सीनियर छात्रों को कैमरा लटकाये देख-देख कर शैलेन्द्र रोमांचित होते रहे I और आखिरकार अब फोटोग्राफी की कक्षा में जाने का अवसर आ चूका था, कॉलेज में इस विषय के प्राध्यापक थे वारिस हादीI वारिस हादी के पिता बिहार के चर्चित छायाकार थे, स्वयं वारिस हादी भी उस दौर में फोटोग्राफी की दुनिया के सुपरिचित नाम थे I तो पहले दिन जब फोटोग्राफी की कक्षा में शैलेन्द्र पहुंचे तो उस दिन गुरूजी यानी वारिस हादी जी ने लकड़ी के डिब्बे जैसा प्लेट कैमरा दिखाते हुए बताया कि कैसे इसमें उल्टा इमेज बनता है और इसे निगेटिव पर कैसे उतारा जाता है I अलबत्ता उसके बाद वह दिन दुबारा कभी नहीं आया जब उस कैमरे से रूबरू होने की फिर कोई बारी आयी I फोटोग्राफी क्लास क्या था, बस समझिये कि एक कमरे में डार्क रूम से लेकर क्लास रूम तक सबकुछ समाया हुआ था I लगता था कि यहाँ फोटोग्राफी की पढ़ाई शुरू होने के समय जो सेटअप लगाया गया था, दशकों से बस उसे ही ढोया जा रहा था I देखा जाए तो यहाँ की इस पढ़ाई को एक रस्म-अदायगी से इतर कुछ और नहीं कहा जा सकता था I
कॉलेज के शुरुआती दिनों की ही बात है, उन दिनों महाविद्यालय के जो छात्र हॉस्टल में रहा करते थे, वे लगभग नियमित रूप से सुबह लैंडस्केप करने शहर के विभिन्न हिस्सों में जाया करते थे I फिर दिन में अपना क्लास अटेंड करते और शाम के समय रेलवे स्टेशन के आसपास जाकर स्केचिंग किया करते थे I किन्तु हॉस्टल से बाहर रहने वाले छात्रों के लिए यह सब कर पाना आसान नहीं होता था, खासकर ऐसे छात्र जो शहर के किसी अन्य हिस्से में रहा करते थे I हॉस्टल के छात्र अपना लैंडस्केप और स्केच अपने गुरुजनों को नियमित तौर पर दिखाते भी रहते थे, बदले गुरुजनों का भरपूर प्रोत्साहन और दिशा-निर्देश उन छात्रों को मिला करता था I अब चूँकि शैलेन्द्र महाविद्यालय परिसर से दूर कुर्जी के इलाके में रहा करते थे, तो इनके लिए इन कामों में भागीदारी संभव नहीं हो पा रहा था I ऐसे में शैलेन्द्र ने तय किया कि अब मुझे भी हॉस्टल में ही रहना है, यह बात जब घरवालों को बताई तो इसके लिए कोई राज़ी नहीं I पिताजी ने समझाया कि घर में रहोगे तो समय से खाना पीना तो मिलता रहेगा I हॉस्टल में तो खाने-पीने की परेशानी लगी ही रहेगी I
जारी….