विगत 9 मार्च से 31मार्च तक के लिए बिहार म्युजियम, पटना में सीमा कोहली की पुनरावलोकन प्रदर्शनी का आयोजन किया गया। इस प्रदर्शनी पर अपने इस विस्तृत आलेख में चर्चा कर रहे हैं कला समीक्षक अनीश अंकुर।
बिहार म्युजियम में पिछले दिनों सीमा कोहली के कलाकृतियों की पुनरावलोकन प्रदर्शनी आयोजित की गयी। इस प्रदर्शनी का नाम था ‘‘ बिटविन रियलम्स एंड ड्रीम्स : एलांग रियलिटी एज’। दिल्ली में रहने वाली सीमा कोहली कला के कई अनुशासनों में काम करती हैं। चित्रकला, मूर्तिकला, छापाकला, प्रदर्शनकला सहित कई अन्य माध्यमों में अपनी अभिव्यक्ति के लिए सीमा कोहली जानी जाती हैं। वे दृश्य और प्रदर्शनकारी दोनों कलाओं में समान रूप से आवाजाही करती हैं। सीमा कोहली कुछ छवियों को कैनवास पर उतारती हैं, कुछ मूर्ति के रूप में ढ़ाली जाती हैं जबकि अपनी कुछ परिकल्पना को प्रदर्शनकारी कला की शक्ल ग्रहण करने देती हैं।
लगभग चार दशकों के लंबे अपने कैरियर में सीमा कोहली दृश्य भाषा और शैली में अनगिनत प्रयोगों के लिए भी जानी जाती रही हैं। उनकी कृतियां दुनिया के कई प्रमुख संग्रहालयों में संग्रहीत हैं। इनमें प्रमुख हैं ‘द ब्रिटिश म्युजियम’, इंग्लैंड, ‘किरण नाडार म्युजियम ऑफ आर्ट, दिल्ली, रूबिन म्युजियम ऑफ आर्ट, अमेरिका, बर्थ राइट्स कलेक्शन, इंग्लैंड आदि। भारत में सीमा कोहली के काम हवाई अड्डों, होटलों और विश्वविद्यालयों तक में देखे जा सकते हैं।
प्रारंभिक प्रशिक्षण :
सीमा ने अस्सी के दशक में दिल्ली पालिटेक्निक कॉलेज से अप्लाइड आर्ट की पढ़ाई की थी। अपने पेशेवर जीवन की शुरुआत उन्होंने एक विज्ञापन कंपनी में ग्राफिक आर्टिस्ट के बतौर शुरू किया था। 1990 के दशक में उन्होंने अपने स्टुडियो में कला पर ध्यान देना प्रारंभ किया।
सीमा कोहली को प्रशिक्षण में रेखा पर ध्यान देना खास तौर सिखाया गया था। इन्हीं वजहों से सीमा की कला परिकल्पना में रेखाओं का बहुत महत्व रहा है। कई सारे कलाकारों के लिए शैली, रंग, गति मायने रखते हैं पर सीमा कोहली के लिए रेखायें प्रधान तत्व हैं। कैनवास पर खींची गयी पहली रेखा ही उनके लिए निर्णायक हुआ करती है। बिंदू से रेखा बनने की यह प्रक्रिया सीमा को जादुई लगती है। रंग और चित्र इन्हीं रेखाओं के मध्य से उभरते हैं। रंग सीमा कोहली के लिए ‘सखा’ समान हैं। वे रंगों के साथ सहज रहा करती हैं। रंग उनकी कल्पना, आध्यामिकता को आकार देने का माध्यम है।
सीमा की कला पर प्रसिद्ध अमूर्त चित्रकार जैक्सन पोलक का बहुत अधिक प्रभाव रहा है। वे आज तक उनकी शैली का उपयोग किया करती हैं। ज्ञातव्य हो कि जैक्सन पोलक को अमूर्त चित्रों के लिए जाना जाता है। बीसवीं सदी में शीत युद्ध के दौरान सी.आई.ए ने सोवियत संघ के खिलाफ जैक्सन पोलक को खूब प्रोमोट किया था। भारतीय कलाकारों में सोमनाथ होर का उनपर प्रभाव रहा है विशेषकर 1943 के बंगाल के अकाल पर बने उनके चित्रों का। इन चित्रों को सीमा कोहली को पहली बार अंग्रेजी पत्रिका ‘इलस्ट्रेटेड वीकली’ में देखने का मौका मिला था। इसके साथ ए. रामचंद्रन के कामों से भी वे प्रभावित रहीं हैं।
बिहार म्युजियम में लगी सीमा कोहली की प्रदर्शनी से गुजरते हुए प्रेक्षक चकित सा हो जाता है। कई किस्म के कामों से रूबरू होते हुए प्रेक्षक यह पाता है कि उनकी कृतियों में मिथक, पुराण, आख्यान, रूपक, रीति-रिवाज और धर्म से संबंधित छवियां सब एक दूसरे में अंतर्गुंफित नजर आती हैं। सीमा कोहली की कृतियां अपने दर्शकों से अधिक ध्यान की मांग करती हैं। एक ऐसे वक्त में जब हमारा ‘अटेंशन स्पैन’ कम होता जा रहा है कोहली अपनी कृतियों के ब्यौरों में जाने तथा उन्हें करीब से देखने की अपेक्षा करती हैं। एक आख्यान के अंदर कई उपाख्यान की मौजूदगी दर्शकों से सामान्य से अधिक अटेंशन की उम्मीद रखती हैं।
जैसा कि इस प्रदर्शनी का शीर्षक भी है उनकी कृतियां एक ओर हमारे भीतर गहरे पैठी आदिम इच्छाएं और दबी आकांक्षाएं को पंख प्रदान कर उसे उड़ान का अहसास कराती हैं दूसरी ओर उसे वास्तविकता के न छूट जाने को लेकर भी सतर्क रहने का प्रयास करती हैं। इन्हीं वजहों से उनकी कृतियों में स्त्री, पक्षी, पंख, सर्प और सुनहरा रंग बार-बार आवृत्ति की तरह आता रहता है। मनुष्य और सर्प जो रिश्ता आशंका, डर और कौतूहल से बना होता है उसे सीमा कोहली पुनर्परिभाषित करती हैं। स्त्री देह के इर्द-गिर्द लिपटी सर्प , कभी बालों में उलझी सर्प , कभी चारों ओर से घेरे सर्प और कभी उसपर आकाश में सवारी करती स्त्री छवि प्रेक्षक को ठिठकने पर मजबूर कर देता है। ठीक इसी प्रकार पंख लगी स्त्रियों की आवृत्ति उनकी अधिकांश कृतियों में देखी जा सकती है। कथा, कहानियों में सुनी छवियां कुछ कुछ आकार लेती प्रतीत होती हैं।
सीमा कोहली का पहला सार्वजनिक प्रदर्शन 1998 में आयोजित किया गया था। दरअसल 1991 में भारतीय अर्थव्यवस्था के खुलने के पश्चात भारत के कलाकारों को दुनिया भर की गैलरियों में आने-जाने का मौका मिला। इसी प्रक्रिया में सीमा कोहली को रोम यात्रा के दौरान ढ़ेर सारी धार्मिक चित्रों के आवलोकन का मौका मिला। रोम में सीमा कोहली ने पेंटिंग में बड़े पैमाने पर सोने का इस्तेमाल देखा फिर भारत आकर वही राह पकड़ी। उन्होंने सोने का उपयोग अपनी कृतियों करना शुरू किया। कैनवास पर एक्रीलिक और इंक के साथ चौबीस कैरेट सोने व चांदी की पत्तियों के उपयोग ने उनके चित्रों को चमकदार बना डाला।
पुरानी दिल्ली में अपने घर के निकट के खाड़ी बाउली बाजार के सोनार लागों के यहां से सोने की पन्नियों को खरीदना शुरू किया। उसके बाद सीमा कोहली की कृतियों में सोने की स्थायी उपस्थिति रहती है। पहले वे गोल्ड पेंट इस्तेमाल में लाती थीं पर बाद के दिनों चौबीस कैरेट सोने की पत्तियों व पन्नियों का उपयोग करने लगीं। इस कारण उनके चित्रों की सतहें चमकदार हुआ करती हैं। सोने की पत्तियों के उपयोग से उन्हें संभवतः आध्यात्मिक या मिथकीय किस्म की भावनाओं को प्रकट करने में सहायता मिलती है। इससे देखने वाले में गैरदुनियावी अहसास तारी होता है। कई बार समय और स्थान का अतिक्रमण भी करती हुई नजर आती हैं। वैसे भी सोना के साथ एक पवित्रता, एक धार्मिकता जुड़ी रहती है। मंदिर में सोने की मूर्तियां, स्वर्ण मंदिर आदि भारत में स्वाभाविक सी चीजें मानी जाती हैं। चित्र बनाते समय सीमा कोहली धार्मिक वगैरह मंत्र सुना करती हैं, उससे संबंधित पुस्तकें पढ़ा करती हैं। योग व तंत्र से उन्हें उर्जा प्राप्त होती हैं। इन सबका परोक्ष प्रभाव उनकी कृतियों पर पड़ता है।
वैश्वीकरण के बाद अंतराष्ट्रीय स्तर पर सोने की उपलब्धता तथा फाइबर ग्लास जैसी नई सामग्रियों के आगमन से सीमा कोहली को अपने कामों में नये ढ़ंग से उन्मुख करने में सहायता मिली। इन सामग्रियों ने उनके दृश्यों, छवियों व बिम्बों की दुनिया में काफी तब्दीली लायी। इन नई किस्म की कला सामग्रियों का प्रवेश और भारत के सामाजिक-राजनीतिक जीवन के डिस्कोर्स के केंद्र में स्त्री विमर्श एक परिघटना बन चुका था।
अब उनकी कृतियों में स्त्री छवियों का प्रवेश होने लगा। बाद में सीमा कोहली के यहां स्त्री केंद्रीय मौजूदगी बन जाती है। स्त्री की दृष्टि से ही हर पहलू को देखा गया है। मिथक, इतिहास या शहरी जीवन इन तीनों का उनके दृश्य जगत का अविभाज्य हिस्सा हैं। हर जगह यही स्त्री नजरिया ही प्रमुख है। यदि दूसरे शब्दों में यह कहा जाए कि उनके सृजन संसार में मैस्क्यूलिन (मर्दाना) इमेज लगभग अनुपस्थित है तो यह अतिश्योक्ति नहीं होगी। इसके साथ ही सांख्य, योग तथा वेदांत दर्शन के अध्ययन का भी रचनात्मक यात्रा पर प्रभाव रहा है। उनके बनाए छवियों और बिंबों का इस पर असर देखा जा सकता है। सार्वभौमिक मातृत्व के अवधारणा को वे अपनी कृतियों में आकार लेने देती हैं। सोने और चांदी पत्तियों का उपयोग उनकी कृतियों में आंतरिक चमक पैदा कर देता है। और मातृत्व की अवधारणा को आगे बढ़ाने में मदद करता है।
सीमा कोहली के चित्रों में चेहरा अधिकांशतः खाली रहा करता है। चेहरा नजर आता है पर उसकी कोई पहचान जैसी नहीं होती, नैन-नक्श नहीं होते। ऐसा प्रतीत होता है कि उनकी कृतियां दुनिया में मौजूद हैं भी और नहीं भी है। सीमा कोहली अपनी कृतियों से कहानी कहने के बजाए दृश्यों पर ध्यान देना पसंद करती हैं।
सीमा कोहली पर बचपन में सुनी कहानियों की, पुरातात्विक स्थलों के दौर की स्मृतियां आदि का गहरा असर है। मिथक, मुद्रा, मंत्र आदि उनकी छवियों में बार-बार उभर कर आती हैं। अपनी कई चित्रों में वे इमेज के साथ टेक्स्ट का भी उपयोग करती हैं। वे एक अतीतजीवी कलाकार कही जा सकती हैं। उनके बनाए प्रत्येक स्त्री छवि में उनका अक्स भी नजर आता है। उनके द्वारा बनायी गयी स्त्री छवियों को देखें तो छवि चेहराविहीन भले हो पर उसके बालों को गौर से देखें तो उनका सीमा कोहली के बालों से साम्य दिखता है। इस मायने में देखें तो सीमा कोहली खुद को केंद्र में रखकर रखकर इतिहास, आख्यान, मिथक की यात्रा करती हैं। सीमा कोहली के काम में अलंकरण का विशेष महत्व रहा है। उनकी लगभग सभी चित्र देखने में सुंदर, आकर्षक और अलंकरणों से भरपूर नजर आते हैं। मिथक और अलंकरण साथ-साथ चलते हैं।
स्त्री छवि के साथ पुराने समय की याद हमें पर्यावरण से भी मिलता है। पशु, पक्षी, पेड़, पौधे, पत्तियां यह सब मिलकर देखने वाले को पुरानी सुकुन भरी दुनिया में ले जाती है। उनके चित्र में कई फोकल प्वांइट रहा करते हैं, विभिन्न आकृतियां और कई रंगों का उपयोग एक ही चित्र में करती हैं। कई मिथकीय आख्यानों से दर्शक एक बार साक्षात्कार करता है। इससे देखने वाले हल्का चकित होता है यदि कहें कि उसकी आंखें चैंधिया जाती हैं तो यह अतिश्योक्ति नहीं होगी। यदि कैनवास पर कोई मिथकीय या पौराणिक विषय है तो समकालीन स्त्री या उसके कार्य व्यापार भी साथ-साथ मौजूद रहते हैं।
हिरण्यगर्भा :
2023 की कृति ‘ हिरण्यगर्भा : टाइम , स्पेस, मूवमेंट’ को बनाने में कैनवास पर एक्रीलिक कलर और इंक के साथ सोने और चांदी की पत्तियों का उपयोग किया गया है। सीमा कोहली के काम में भारत के पुराने ग्रंथों में निहित अवधारणाओं और आख्यानों को कैनवास पर उतारने की कोशिश की गयी है। ऋग्वेद में वर्णित हिरणयगर्भा ऐसी ही एक अवधारणा है। हिरणगर्भा का अर्थ होता है सोने के अंडे के भीतर रहने वाला। ‘गोल्डेन वोम्ब’ (सुनहरा गर्भ) श्रृंखला के पीछे हिरण्यगर्भा की अवधारणा काम करती है। सीमा कोहली ने इस सीरीज में चौबीस कैरेट सोने और चांदी की पत्तियों का इसके लिए उपयोग किया है। इनके उपयोग से इनके चित्र चटख रंगों वाला चमकीला प्रभाव छोड़ते हैं। सीमा कोहली के काम ने स्त्री गर्भ के बहाने उनकी उत्पादकता, उर्वरता के विचार को आगे बढ़ाया है। अपनी इस वैचारिक समझ के लिए स्त्री देह का सृजनात्मक रूपांतरण करने की कोशिश की है। इस बहाने सीमा कोहली स्त्री उर्जा की विराट संभावना का अहसास दर्शकों को कराती हैं। इनके लोक में स्त्री उर्जा का स्रोत उसका गर्भ है, वही समूची उर्जा का अक्षय भंडार है। हिरणगर्भा की छवि को उन्होंने चित्रकला, धातु सहित अन्य माध्यमों में भी ढ़ालने की केाशिश की है। सीमा कोहली की बनी देवी या ईश्वर में मनुष्यगत विशेषताओं वाले दिखते हैं। ईश्वर को उसके आध्यात्मिक आभामंडाल से मुक्त कर उसे सामान्य सहज मनुष्य की तरह देखने का प्रस्ताव देती हैं। रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने कहीं कहा भी है ‘डिवाइनिटी ऑफ मैन एंड ह्यूमैनिटी ऑफ गॉड’।
सीमा कोहली की ‘गोल्डन वॉम्ब ‘ शृंखला भी ऐसा ही है। इस विषय को कैनवास पर एक्रीलिक, इंक के साथ सोने और चांदी का उपयोग तो किया ही गया है इसके साथ इसे आर्काइवल पेपर पर सेरीग्राफ़ पद्धति से भी सृजित किया गया है। इसे आर्ट पेपर पर सोने की पत्तियों के साथ सीरीग्राफ पद्धति से भी बनाया है।गोल्डन वॉम्ब सीरीज सीमा कोहली के दिल के करीब है। इन्हीं वजहों से इसे कई माध्यमों में प्रस्तुत किया गया है।
सीमा की एक और चर्चित ‘योगिनी श्रृंखला’ में भी इसी विचार के एक भिन्न आयाम को पकड़ने की काशिश करता है। 64 योगिनी के विचार को नए संदर्भों में व्याख्यायित करने की कोशिश सीमा कोहली करती हैं। योगिनी में भी स्त्री ऊर्जा को सामने लाने की कोशिश की गई है। चौंसठ योगिनी को 2024 में कैनवास पर डिजिटल प्रिंट के माध्यम से चित्रित किया गया है। 64 योगिनी को -2 श्रृंखला को प्रिंटमेकिंग में भी चित्रित किया गया है। 2013 में जिंक प्लेट पर इचिंग तकनीक से बनी इस कृति के लिए सीमा कोहली ने छोटे-छोटे 5 इंच के गोलाकार में योगिनी की अवधारणा को अंकित किया है। गोला ज्यामितीय आकृति सीमा कोहली के यहां केंद्रीय आकर है। हिरण्य गर्भा से लेकर गोल्डन वोम्ब सीरीज में यह आकृति लगातार मौजूद रहती है। योगिनी विशुद्ध चेतना मानी जाती हैं। वे अपने से उच्चतर चेतना से संबंध स्थापित कर सकती हैं ऐसी मान्यता रही है। इन्हीं वजहों से योगिनी उन वर्जित प्रदेशों में भी आसानी से भ्रमण करने वाली मानी जाती हैं जहां दूसरे प्रवेश करने से भी डरते हैं। योगिनी के वृहत आख्यान में यह चौसठों योगिनी उपाख्यान की तरह हैं। योगिनी से जुड़े विभिन्न स्थलों के भ्रमण और इस विषय पर उनके अध्ययन के परिणामस्वरूप सीमा कोहली यह करने में सफल हो पाईं हैं। योगिनी के माध्यम से स्त्री ऊर्जा की इमेज को इसमें ढालने की कोशिश की गई है।
योगिनी, तंत्र कल्ट (पंथ) से संबंधित है। योगिनी की पौराणिकता आर्यों से पूर्व की मानी जाती है। ब्राह्मणवादी प्रभाव में उनके मंदिरों को शताब्दियों से मानव बसावटों से अलग रखा जाता था। ऐसा सीमा कोहली उसे मनुष्यों के मध्य लाती हैं। बच्चों की रक्षा करने वाली, शक्ति और उर्वरता के लिए इन्हें जाना जाता रहा है। सांप, पक्षी या जानवरों का उपयोग मानव कल्याण के लिए इन्हें जाना जाता है। इन योगिनियों का अस्तित्व लंबे वक्त तक रहा है। संगठित धर्मों के आविर्भाव के बाद ये पृष्ठभूमि में जाकर लगभग विलीन सी हो गई। चौंसठ योगिनी को बनाने की प्रेरणा सीमा कोहली को भेड़ाघाट (मध्यप्रदेश) स्थित चौंसठ योगिनी मंदिर का भ्रमण करने के बाद हुआ। इसके बाद और भी कई योगिनी मंदिरों को देखा जिसमें प्रमुख है मिताओली, रानीपुर झारियाल, हीरापुर एवं खजुराहो आदि।
हिंदू धर्म में स्त्री देवियों की सशक्त मौजूदगी रही है। इस ढंग से देखें तो दुनिया के अधिकांश धर्म पुरुष प्रधान रहे हैं। सभी ईश्वर पुरुष रहे हैं। सीमा कोहली ने योगिनी के माध्यम से हिन्दू धर्म में स्त्री देवियों जैसे दुर्गा, काली, सरस्वती, आदि को केंद्र में लाने की कोशिश की है। काली की क्रोधावस्था में बाहर निकलती लाल जीभ से उसके विशिष्ट चरित्र को पकड़ा है। ठीक उसी प्रकार दुर्गा द्वारा भैंस पर चढ़कर महिषासुर के संहार जैसे विषयों को अपने चित्रों का आधार बनाया है।
योग साधना से सीमा का जुड़ाव जीवन के प्रारंभिक वर्षों में ही हो गया था। जब वह मात्र 13 साल की थीं तभी से दिल्ली में कनाट प्लेस के निकट स्थित धीरेंद्र ब्रहुचारी के आश्रम में जाने लगी थीं। धीरेंद्र ब्रह्रचारी वैसे इंदिरा गांधी के भी निकट माने जाते थे और कई वजहों से विवादास्पद भी रहे। इसके बाद वे भारतीय विद्या भवन में शंकर आप्टे, शिवानन्द योग और परमहंस योगदानन्द जैसे लोगों के साथ योग का प्रशिक्षण लेती रहीं हैं। उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि आर्य समाजियों की रही है। आर्य समाज की पृष्ठभूमि से आने के कारण बचपन से वे गायत्री मंत्र, हवन, पूजा आदि के माहौल में रहीं। सीमा कोहली के व्यक्त्वि पर बंगाल के संत रामकृष्ण परमहंस का भी गहरा प्रभाव रहा है।
इसके अतिरिक्त भी सीमा कोहली कई किस्म के आध्यात्मिक कहे जाने संतों की संगति में रही हैं। फलतः इन सबका उनके चिंतन पर असर रहा है और इस प्रकार उनकी कृतियों में इन सबकी गहरी उपस्थिति दिखाई पड़ती है। आर्च पेपर पर सेरीग्राफ माध्यम के छापाचित्रों में प्रमुख है ‘विश्वरूप’, ‘राइजिंग ऑफ कुंडलिनी’, नरसिम्ही- एक, नरसिम्ही- दो, हिरण्यगर्भा, सोहम, योग माया, योगिनी, बैलेंस’ ‘ऑलमोस्ट एवरीथिंग नोट्स ऑन हॉप’ आदि।
आर्ट पेपर पर स्वर्णपत्र के साथ सेरीग्राफ में बने ‘शक्ति’ (2021), एल्यूमिनियम शीट पर चिपकाया हुआ कागज़ पर पेन, इंक और गौशे कलर से बनी कृति ‘कालिया दमन’ ( 2020) तथा कैनवास के कपड़े पर ‘ रेशम, सूती धागा, मोती आदि से 2023 में बनी ‘ द ट्री ऑफ लाइफ’ अपने विषय वस्तु से अधिक अपनी रंग संयोजन की वजह से दर्शक का ध्यान आकृष्ट करती है। ये सभी काम एक दूसरे से आकार और चरित्र में भिन्नता लिये हुए हैं।
यदि कांस्य में बनी उनकी कृतियों को देखें तो 2023 में बनी ‘बुरक’, 2018 में निर्मित ‘राइडिंग द वेव्स ऑफ विंड एंड वाटर’, 2019 में ‘नागबंध’ तथा 2019 में ही ‘राइजिंग ऑफ कुंडलिनी’ प्रमुख हैं। राइजिंग ऑफ कुंडलिनी को सिरीग्राफ और कांस्य दोनों माध्यमों में बनाया गया है। कांस्य प्रतिमा 45/25/17 इंच में बनी है। इसमें एक ध्यानमग्न मुद्रा में बैठी स्त्री के माथे पर योगमुद्रा में दूसरी स्त्री अर्द्ध खड़ी, अर्द्ध बैठी है। माथे पर अवस्थित स्त्री भी एक योग भंगिमा धारण किए हुए है। नीचे बैठी स्त्री की काया कमल के फूलों से आच्छादित है। उसकी बालों की चोटी भारतीय स्त्रियों की तरह बंधी है जबकि माथे पर मौजूद स्त्री के बाल खुले हैं।
कुंडलिनी योगी परंपरा की मानी जाती हैं। इस परंपरा में योगी को शक्ति और ऊर्जा के स्रोत के रूप में देखने की परिपाटी रही है। एक आध्यामिक शक्ति के रूप में कुंडलिनी को एक ऐसी स्त्री ऊर्जा के रूप में देखने की परिपाटी रही है जो नाभि से माथे की ओर होते हुए और ऊपर की ओर जाती प्रतीत होती है। कांस्य में ही एक और अन्य कृति है 2018 की बनी ‘क्षीरगईवासानी’ । इसमें लक्ष्मी कमल के फूलों और लताओं के मध्य ध्यानमग्न खड़ी है। इन त्रिआयामी कृतियों के अलग-अलग माप हैं। उन्हें देखना एक अनूठे चाक्षुष अनुभव से गुजरने जैसा है।
लकड़ी के स्टैंड पर बड़े आकार में, 96X48 इंच के छह पैनलों में, बनी कृति ‘खेल’ दर्शकों के लिए कौतूहल का विषय बनी रही। 2013 में निर्मित ‘खेल’ में मूर्तिशिल्प और चित्रकारी दोनों का उपयोग किया गया है। ‘खेल’ में देवी घुटनों पर झुकी, बाहों को खुशी से फैलाए नजर आती है। हर छह पैनल क्षैतिज में बने हैं। इन काली आकृतियों से बाहर निकलती हुई लाल और गुलाबी जीभ हमें काली की याद दिलाती है। एक्रीलिक कलर के साथ बनाया गया आकृतियां बनी हैं जबकि लाल, गुलाबी जीभ को फाइबर ग्लास से बनाया गया है। ध्यान से देखने वाले को काली के मुख से निकलती जीभ की इमेज का अहसास दर्शक को होता है। सीमा कोहली के काम में जीभ इच्छा , डिजायर को अभिव्यक्त करती नजर आती है।
‘खेल’ वैसे तो सीमा कोहली के पुराने सब्जेक्ट पर केंद्रित है पर नई सामग्रियों के कल्पनाशील उपयोग से दर्शक नए किस्म के दृश्य अनुभव से गुजरता है।
सीमा कोहली की बड़ी कृतियों में कैनवास पर चित्र के साथ साथ कसीदाकारी का काम भी देखने को मिलता है। इसके लिए पानीपत के पास के पारंपरिक कलाकारों का सहयोग लिया गया है। अपनी चिर परिचित विषय वस्तु में सीमा कोहली ने कसीदाकारी का काम इस ढंग से कराया है कि वे चित्र के सहज हिस्से लगते हैं पर साथ ही उसे एक भिन्न आयाम देते हैं। देखने वाले को एक नया अनुभव भी होता है।
कोहली की पुनरावलोकन प्रदर्शनी से गुजरते हुए यह स्पष्ट है कि वे अपनी विषय वस्तु धार्मिक कथाओं, आध्यात्मिक प्रेरणाओं से प्राप्त करती हैं। विशेषकर ‘शक्ति’ और उससे निःसृत होती ऊर्जा की अवधारणा पर काम किया गया है। चित्रों से गुजरते हुए निरंतर धार्मिक, पौराणिक, मिथकीय माहौल में डूबे रहने का अनुभव होता है। ऐसा जिसमें समकालीन संसार का जैसे अस्तित्व ही नहीं है। वैसे अपने चित्रों में कहीं- कहीं उस संसार से जुड़ने की कोशिश दिखती है पर प्रधान चरित्र अतीत में ही सुकून पाने की ओर नजर आती है।
इस पुनरावलोकन प्रदर्शनी में एक कमी यह खटकती है कि उनके प्रारंभिक चरण की कलाकृतियाँ लगभग नदारद हैं। सभी काम पिछले 15-16 वर्षों के दौरान ही बनाए गए हैं। अधिकांश काम तो पिछले दो तीन सालों के दौरान के हैं। कला में उनका करियर लगभग चालीस सालों का है जबकि रेट्रोस्पेक्टिव में उनके पुराने कामों को भी रहना चहिए था ताकि दर्शक को उनकी सृजनात्मक यात्रा को समझने में सहूलियत होती। बहरहाल इस पुरावलोकन प्रदर्शनी दर्शक को मिथ और यथार्थ के मध्य ले जाती है। सीमा कोहली की कविता ‘खेल’ में व्यक्त उद्गार से उनकी कलादृष्टि को समझा जा सकता है।
‘‘क्या मैं मिथ हूँ या वास्तविकता ?
आज की वास्तविकता भविष्य का मिथ है
आगे आने वाले कल का मिथ बीते हुए कल की वास्तविकता है.’’
इसी कविता में वे आगे कहती हैं
‘‘ क्या मैं भयानक हूँ, विध्वंसक या बधिक ?
जो इच्छाओं की जड़ों को चाट रही हूँ
परास्त कर रही हूँ । ’’
फिर आगे यह भी लिखती हैं
‘‘ मैं माया हूँ
अंदर की आग के बिना
मैं सर्जक हूं और विध्ंवसक भी
आओ मेरे साथ खेलो ’’