नयी दिल्ली स्थित त्रिवेणी कला संगम की दीर्घाओं में चल रही संजय राय की प्रदर्शनी आज यानी 4 मार्च को समाप्त हो रही है। 23 फरवरी से त्रिवेणी कला संगम स्थित त्रिवेणी और श्रीधरनी दोनों दीर्घाओं में यह एकल प्रदर्शनी चल रही थी। संजय की चित्रभाषा अमूर्त है, या कहें कि अपनी सुविधा के लिए उसे हम अमूर्त अथवा अरूप की श्रेणी में रख सकते हैं। बावजूद इसके कि कई कलाविदों का मानना है कि कुछ भी अमूर्त नहीं है या नहीं हो सकता है। अलबत्ता जिन चित्रों में हम अपनी परिचित आकृतियों को नहीं ढूंढ पाते हैं, या जिन आकृतियों को हम किसी पहचान से नहीं जोड़ पाते हैं उसे अमूर्त मान लेते हैं। इसे कुछ विस्तार से समझने के लिए राजकमल चौधरी के लेख “चित्रकला की अरूपवादी पद्धति” के इस अंश को देखें:-
अरूपवादी चित्रकला के संबंध में ज्यां सेरां ने लिखा है, ‘अक्सर लोग पूछते हैं, चित्रकला क्या है, इसका उद्देश्य और अर्थ क्या है ? एक विख्यात चित्रकार से पूछा गया कि क्या वह अपने चित्रों का अर्थ बता सकता है – तो, चित्रकार ने उत्तर दिया कि अगर वह शब्दों की सहायता से अपने चित्रों का अर्थ बता सकता है, तो फिर उसे चित्र आंकने की क्या आवश्यकता थी ? चित्रकला की अपनी अलग भाषा है, रंग और रेखाओं की भाषा- और, जो दर्शक या आलोचक यह भाषा नहीं समझता है, उसे किसी भी भाषा के द्वारा चित्र का अर्थ नहीं बताया जा सकता है।”
Sanjay roy
तो यहाँ प्रदर्शित संजय राय की कलाकृतियों की किसी व्याख्या में उलझने के बजाय, अगर आप अपने चाक्षुष आनंद की दृष्टि से देखें तो सब कुछ स्पष्ट दिखने लगेगा। दरअसल रंग और रेखाओं के संयोजन को समझने के लिए शब्द या भाषा से ज्यादा महत्वपूर्ण होती है हमारी सौंदर्य दृष्टि। अपने भारतीय चिंतन के अलोक में देखें तो- ब्रह्मसूत्र में कहा गया है कि ‘ अरूपदेव हित सुधानत्वात’ अर्थात जो आतंरिक भावों को कलात्मक रूप से अभिव्यक्त करे, वही कला है।
जर्मन लेखक व राजनीतिज्ञ गेटे भी कला में अनुभूति को ही सर्वस्व मानते हैं। इनके लिए सौंदर्य प्रकृति की वस्तु है जिसे विवेक एवं तर्क से नहीं वरन अनुभूति एवं प्रेम के माध्यम से प्राप्त किया जा सकता है। गेटे का तो यह भी मानना था कि प्रत्येक मनुष्य में कला की भावना तो जन्मतः होती है किन्तु सृजन क्षमता, कुछ व्यक्तियों में ही होती है और ऐसे व्यक्ति ही कलाकार कहलाते हैं। और यह सृजन कलाकार के आतंरिक जीवन की अभिव्यक्ति है।
untitled
संजय राय की इस एकल प्रदर्शनी की बात करें तो इसका शीर्षक है ” ट्रेसिंग द लबीरिंथ” यानी उलझन की पड़ताल या भूलभुलैय्या का पता लगाना। यहाँ प्रदर्शित कलाकृतियां पहली नज़र में किसी भ्रमजाल का अहसास देती हैं। रंगों की किसी एक सतह पर अनेक सतह और उस पर बिखरी अनेक रेखाएं या कहें कि रेखाओं का जाल। ऐसा जाल जो कैनवास के प्रत्येक सिरे को अपने आगोश में समेटे हुए है। रेखाओं के इस जाल के किसी सिरे को पकड़ना तो दूर, आप चाह कर भी उसे चिन्हित तक नहीं कर सकते हैं। किन्तु इन सबके बावजूद संजय की तमाम कलाकृतियां आपको आकर्षित करती हैं, अपने रंग संयोजन के संतुलित प्रयोग की बदौलत।
संजय ने कला की औपचारिक शिक्षा नहीं ली है, किन्तु जी. आर. संतोष, के. जी. सुब्रमण्यन और सोमनाथ होर जैसे कला मनीषियों का स्नेह, सान्निध्य और भरपूर मार्गदर्शन उन्हें मिला है। अपनी जीविकोपार्जन के सिलसिले में निरुलाज में कैशियर की नौकरी भी की। किन्तु जहाँ चाह वहां राह की उक्ति को चरितार्थ करते हुए उन्होंने यहाँ रहते हुए फ़्रांस में कला शिक्षा के लिए स्कॉलरशिप भी हासिल कर ली। किन्तु कुछ मित्रों और शुभचिंतकों की सलाह सामने आयी कि अगर आप कलाकार बनना चाहते हो तो कहीं भी जाने से ज्यादा आवश्यक है कि अपना कलाकर्म निरंतरता से जारी रखो। और संजय ने भी इसी सलाह को शिरोधार्य किया। वरिष्ठ कलाकार रामेश्वर ब्रूटा के प्रयासों से उन्हें त्रिवेणी कला संगम के छात्रों को कला शिक्षा देने का अवसर मिल गया। संजय ने इस जिम्मेदारी का बखूबी निर्वाह करते हुए अपना कलाकर्म जारी रखा, उनकी कलाकृतियों को देखकर आप भी उनकी सृजनात्मकता के कायल हो जायेंगे; ऐसा मेरा मानना है। शुभकामनायें