संजय कुमार: एक सहृदय पथिक

मुम्बई में रह रहे चित्रकार संजय कुमार की चुनी हुई कलाकृतियों की पुनरावलोकन प्रदर्शनी इन दिनों पटना के बिहार संग्रहालय की दीर्घा में चल रही है। दिनांक 7 जनवरी , 2023 को इस प्रदर्शनी का उद्घाटन हुआ, प्रदर्शनी दर्शकों के अवलोकनार्थ 28 जनवरी , 2023 तक जारी रहेगी। आलेखन डॉट कॉम के लिए प्रस्तुत है प्रदर्शनी के क्यूरेटर और इस अवसर पर जारी पुस्तक के लेखक निखिल पुरोहित का विस्तृत आलेख, संजय कुमार की कला यात्रा पर…- मॉडरेटर

लेखक परिचय:

निखिल पुरोहित एक कलाकार और कला प्रशासक हैं, जो कला संग्रह, कला- शिक्षा, कला-लेखन और क्यूरेशन में रुचि रखते हैं। निखिल कला संस्था ‘फांदी’ के संस्थापक हैं जो कला संग्रहों के दस्तावेजीकरण के लिए पूर्णतः समर्पित हैं। वह एशियाटिक सोसाइटी, मुंबई 2019 द्वारा शोध छात्रवृत्ति के प्राप्तकर्ता हैं, जिसका शीर्षक है, “वर्तमान मुंबई क्षेत्र के कला प्रदर्शनियों और आयोजनों में दर्शकों के लिए व्यवस्थापन”। उनके प्रकाशनों में ” द ब्लैंक कैनवास, 2013 ” में कलाकार प्रभाकर बर्वे पर जीवनी निबंध, कोच्चि द्विवार्षिक फाउंडेशन और एफआईसीए, नई दिल्ली के सहयोग से आर्ट मीडिएशन टूल किट का निर्माण शामिल हैं, जिसका नेतृत्व स्विट्जरलैंड के ल्यूसर्न विश्वविद्यालय के आर्ट मीडिएटर्स, 2016 ने किया था। वह मोहिले पारिख सेंटर फॉर विजुअल आर्ट्स, मुंबई से जुड़े रहे हैं और द इंडियन कंटेम्पररी आर्ट जर्नल, मुंबई के कार्यकारी संपादक भी रह चुके है। संस्थागत रूप से वह एनआईएफटी, एमिटी विश्वविद्यालय, सर जे. जे. स्कूल ऑफ आर्ट, मुंबई, एसएनडीटी, रचना संसद, मुंबई और पुणे से जुड़े हैं।

Nikhil Purohit

किसी कलाकार को जानने-समझने के लिए एक दर्शक के नाते हमारी प्राथमिकता क्या होगी ? उस कलाकार की रंगीन या दिलचस्प जीवन यात्रा अथवा उनकी कलाकृतियों के बारे में जानना ? वैसे तो यह दोनों बातें किसी व्यक्ति के व्यक्तित्व निर्माण प्रक्रिया के अंग होते हुए भी भिन्न हैं। क्योंकि अपने जीवन यापन के लिए किसी कलाकार द्वारा अपनाया गया कार्य या पेशा, उसके स्वतंत्र कला-चिंतन और अभिव्यक्ति से भिन्न हो सकता है। इस तरह से किसी कलाकार का जीवन-निर्णय और कला-निर्णय आपस में भिन्न हो सकता है। तो वहीँ यह भीसंभव है कि कभी-कभी इन दोनों में साम्य या परस्पर सम्बन्ध भी नज़र आये। अतः ऐसे में इसे समझने के लिए हमें संबंधित कलाकार की जीवनी और उसकी रचना प्रक्रिया दोनों पर गौर करना पड़ेगा। दरअसल संजय कुमार एक ऐसे कलाकार हैं जिनका जीवन-यापन और कला अभिव्यक्ति एक दूसरे से जुड़े भी हैं और भिन्न भी। इसे विस्तार से समझने के लिए हमें उनके आचार-विचार एवं व्यवहार के साथ-साथ कलाकृति निर्माण के उनकी धारणाओं-अवधारणाओं  को जानना भी अत्यंत आवश्यक होगा।

Studio Pannadwar

तर्कसंगतता संजय कुमार के व्यक्तित्व का एक ऐसा स्थायी भाव है जो उनके कला महाविद्यालय, पटना के छात्र जीवन से लेकर वर्तमान यानी मुम्बई प्रवास तक एक समान बना हुआ है या कहें कि बरक़रार है। विदित हो कि मुंबई में अपने स्टूडियो ‘पन्नाद्वार’ का नामकरण उन्होंने अपने माता-पिता के नाम पर  किया है। कहा जाता है कि जीवन मूल्यों का चयन ही किसी व्यक्ति का व्यक्तित्व बनाता है। व्यक्ति के तौर पर अपने आप को समझने के लिए संजय दार्शनिक बुद्ध, तथा रजनीश (ओशो) के विचारों का सहारा लेते हैं। वहीँ एक चित्रकार के नाते वे पश्चिमी आधुनिकता के भारतीय रूपकों को विस्तार देते हैं, जो एक कलाकार को किसी विशेष आकार और तत्व को सहज रूप से मनचाहे स्वरूप में ढालने की छूट देती है। आज संजय बुद्ध को केंद्र में रखकर बनाये अपने श्वेत-श्याम चित्रों और बिहार संग्रहालय, पटना में स्थापित ‘भिक्षा पात्र’ शीर्षक शिल्प के लिए जाने जाते हैं। देखा जाए तो किसी कलाकार का राष्ट्रीय स्तर पर अपनी मुकम्मल पहचान बना पाना और अपने देश के एक प्रमुख संग्रहालय के स्थायी संग्रह में अपनी कलाकृति को स्थान दिला पाना; उसके जीवन की गरिमापूर्ण उपलब्धि में शुमार किया जायेगा। किन्तु जीवन में किसी कलाकार को इस मक़ाम पर पहुँचने के लिए किस प्रकार अपना व्यक्तित्व गढ़ना पड़ा और साथ ही अपने कलामुल्यों को चिन्हित कर उसे हासिल करने के लिए जो सतत प्रयास करना पड़ा है। उसे समझने के लिए किसी संवेदनशील दर्शक को कलाकृति निर्माण के परिवेश और परिस्थितियों का आकलन भी उतनी ही सजगता और तन्मयता से करना पड़ेगा।

बिहार से बम्बई:

तत्कालीन बिहार के साहिबगंज (वर्तमान झारखंड) शहर के संजय कुमार कला महाविद्यालय,पटना वर्ष 1983 में आये तो फिर अपनी शिक्षा पूरी करने के बाद ललित कला अकादेमी, नयी दिल्ली से मिली शोध छात्रवृत्ति के दौरान (1992) में लखनऊ चले आये। जहाँ उनकी मुलाकात होती है मुंबई के सुरेंद्र जगताप से, जो उनकी ही तरह लखनऊ ललित कला केंद्र में शोधार्थी थे। ऐसे में पानी इस शोध छात्रवृति की अवधि के समापन के बाद संजय उन्हीं सुरेंद्र जगताप के साथ बम्बई (मुंबई) चले आये। यहाँ पहुंचने के बाद वर्ली के बी डी डी चॉल में इन्ही मित्रों के सहयोग से रहने की व्यवस्था भी हो गयी । वैसे तो ये एक सामान्य सी घटना है, पर उस दौर में ज्यादातर बिहार के युवा कलाकार अपनी किस्मत आज़माने दिल्ली पहुँचते थे; किन्तु इन सबसे अलग हटकर आ धमके मुंबई – यानी चकाचौंध वाली फ़िल्मी दुनिया के शहर में।

मुंबई पहुँचने पर संघर्ष के दिनों वाली परेशानियां बनी रहीं, किन्तु इन्हीं दिनों एक ऐसी किताब हाथ लगी  जिसने जिंदगी को देखने का नजरिया बदल दिया। यह पुस्तक थी ओशो रजनीश की ‘जीवन क्रांति’ जिसमें बुद्ध से जुड़े एक रूपक कथा का वर्णन है। इस कथा में विचलित मन और दूषित पानी का उदाहरण देते हुए स्थिरता पाने के लिए व्यक्ति को धैर्य रखने की सीख़ दी गयी थी । संजय, मुंबई के अपनी शुरूआती दौर के संघर्ष को सामना करते हुए इस पुस्तक को बार बार पढ़ते और इससे उन्हें वास्तविकता का सामना स्थिर चित्त से करने की प्रेरणा मिलती। जैसे-जैसे संजय अपने चित्र रूप को प्रस्थापित करते गए वैसे-वैसे बुद्ध की आत्म प्रेरित छवि उनके चित्रों या कलाकृतियों में समाती गयी। ये कलाकृतियां सम्मुख दर्शन के ऐसे चित्र हैं जो बुद्ध के अधखुले नयनों से चित्त की शांति का प्रसार करती हैं। इस प्रकार हम एक दर्शक के नाते संजय के जीवन-निर्णय और कला-निर्णयों में तत्वतः समानता देख सकते हैं। देखा जाये तो जिस भूमि में बुद्ध हैं, और उनके दार्शनिक विचार हैं, वे संजय को प्राप्त तो मुंबई में हुईं किन्तु इसने उन्हें अपनी जन्मभूमि बिहार से फिर से जोड़ दिया।

कला शिक्षा, कला- मूल्य और कलाकार :

दृश्य कला का परिचय युवा अवस्था में होना एक ऐसी महत्वपूर्ण घटना है जिससे कोई व्यक्ति अपने सम्पूर्ण अस्तित्व का विषय ढूंढ लेता है। कुछ ऐसा ही युवा संजय के साथ भी हुआ। उनके गृहनगर साहिबगंज के मुरारी पासवान एक स्थानीय चित्रकार संजय के बडे भाई के मित्र थे। यही मुरारी पासवान एक तरह से संजय के प्रथम कलागुरु बने। होता यह था कि मुरारी जब कभी पोर्ट्रेट (व्यक्तिचित्र) बनाते- बनाते कुछ काम से कहीं चले जाते तो युवा संजय उस चित्र पर अपना हाथ आज़माने लगते। वापसी पर मुरारी जी ने जब यह सब देखा तो युवा संजय को भरपूर प्रोत्साहित किया। यहीं से संजय के मन में  कला के प्रति रूचि स्थापित होती चली गयी हुई। अब होने यह लगा कि स्कूली पढाई-लिखाई में संजय की रूचि कम होती गयी, और कला के प्रति रूचि बढ़ने लगी। ऐसे में कुछ रिश्तेदारों का सुझाव सामने आय कि अब आगे की पढ़ाई के लिए किसी कला महाविद्यालय में भेज दिया जाए। इस बीच पटना में कला महाविद्यालय के होने की जानकारी मिली तो संजय तुरंत पटना पहुंचे और प्रवेश की प्रक्रिया भी पूरी कर ली।

अपने कॉलेज के दिनों में संजय एक किस्म से विद्रोही प्रवृति के बने रहे, जहाँ चित्र बनाने के साधन से लेकर चित्र के स्वरूप तक का चुनाव वे अपारंपरिक रूप से ही करते। यह वह दौर था जब भारत में पश्चिमी आधुनिकता को अपनाने का दौर पूरा हो चुका था और प्रमुख कला संस्थाओं में पश्चिमी  यथार्थवादी शैली के अलावा स्थानीय लोककला और आधुनिकता के प्रादेशिक समझ वाली कला-शिक्षा दी जा रही थी। देखा जाए तो आज भी वही सिलसिला जारी है, जहाँ बेवजह मूल्यों की पताका फहराई जाती है। हालाँकि उनकी उपयुक्तता की चर्चा यहाँ सान्दर्भिक नहीं है। पर संजय इन्ही संस्कारों को साथ लिए स्नातक हुए, जिसमे वे यथार्थवादी पोर्ट्रेट बनाना भी बखूबी जानते थे और भारतीय मिथकों पर आधारित रचनाएं भी उतने ही उत्साह और चाव से करते। इन कृतियों में आकार का विघटन या विरूपण, विच्छेद, पुनर्रचना, स्पेस डिवीजन, श्वेत-श्याम रंगों का खेल संजय बड़े ही संयम से विचारपूर्वक कागज पे उतारते। अब जब वे मुंबई पहुंचे तो अपनी इसी कुशलता को तराशने-निखारने लगे। इसी क्रम में विभिन्न भारतीय देवी-देवताओं के चित्रों का अंकन करते-करते उन्हें बोधि प्राप्त हुई। अर्थात सम्मुख ध्यानी रूप में बुद्ध की प्रतिमा मन-मस्तिष्क में उभर आयी जो अगले तीन दशकों तक लगातार सूक्ष्म बदलाव के साथ साकार होती रहीं।

साहिबगंज में रहते हुए संजय कागज़ से सजावट करने में रूचि लेने लगे। अपने करीबी रिश्तेदारों के घर किसी शुभ कार्य या तीज त्योहारों में देवी के मंडप का सजावट करते-करते इस हस्तकला में कुशलता हासिल कर ली। जैसा की स्वाभाविक था इस कार्य में जिला स्तर पर उन्हें अनगिनत पुरस्कार भी मिलते रहे। इस सज-सज्जा की विशेषता यह होती है कि इसके लिए कागज को हाथों से काट-काट कर सजावट के लिए डिज़ाइन बनाया जाता है। इस सबने जहाँ संजय की एकाग्रता में वृद्धि की वहीँ क्राफ़्ट के प्रति उनका लगाव भी स्थापित होता चला गया। आज भी गौर से देखने पर उनकी कलाकृतियों में ये सभी गुण एकसाथ समाहित दीखते हैं। अलबत्ता इस क्रम में वे डिज़ाइन या कलाकृति की गुणवत्ता में कभी कोई कमी नहीं आने देते। आगे चलकर इन्ही मूलभूत गुणों का आचरण उनके सुदीर्घ कला जीवन का हिस्सा बन चुकी नज़र आती है।

कॉलेज के दिनों में संजय कुमार, सुनील कुमार (आर्ट डायरेक्टर, प्रिंट मीडिया ),और अंतरराष्ट्रीय ख्याति के कलाकार सुबोध गुप्ता ये तीनों सहपाठी रहे, जो एकसाथ के रूम नं. 04 में रहते। इन सबों की कोशिश रहती कि राज्य या राज्य के बाहर से आये वरिष्ठ कलाकारों के ठहरने आदि की समुचित व्यवस्था हो, अक्सर इन कलाकारों को अपने कमरे में ही रुकने की व्यवस्था करते। और इस अतिथि कलाकार से दिल्ली और देशभर के कलाक्षेत्र की जानकारी प्राप्त करते और कला विषय पर बातचीत करते। इन तीनों से पहले शैलेन्द्र कुमार और संजीव सिन्हा जैसे कलाकार इस रूम नं 4 में रह चुके थे जो संजय और अन्य सभी जूनियर छात्रों के लिए कला निर्माण के लिए ऊर्जास्रोत थे।

पटना कॉलेज के दिनों में भी संजय अपने काम के प्रति जिद्द और निष्ठा के साथ-साथ अपने सृजन मूल्यों के प्रति दृढ रहे। तत्कालीन नयापन और परंपरा के विषय में जब भी कलाकार मित्रों में बहस होती तो संजय पूरी तार्किकता से अपनी बात रखते और उसे अपने विवेक से सिद्ध भी करते। कतिपय अपनी इसी दृढ़ता की वजह से उन्हें न केवल पटना में, मुंबई में भी चंद मित्रों द्वारा स्वभावतः विक्षिप्त माना जाने लगा।

कला धर्म की ओर :

अब छात्र जीवन से ही संजय की जो तर्कसंगत वृत्ति बनती गयी उसके कारण संजय आगे भी सृजन (कला) मूल्यों का निर्धारण करते रहे। यानी अपनी संकल्पना के आधार पर वे बीसवीं सदी के आधुनिकतावादी ही रहे। इक्कीसवी सदी की समकालीन कला के प्रायोगिक तंत्र और विषयों से कभी ठीक से जुड़ नहीं पाए । वहीँ दूसरी तरफ स्वयं में समाज और कला के माध्यम से अभिव्यक्ती के अभिनव प्रयोग निरंतर करते रहे। ‘भिक्षा पात्र’ हो या मुंबई के ताज होटल की हिंसा (२००८) के बाद निर्मित “गन्स एंड बाउल” शिल्प,  इन कलाकृतियों में सामाजिक घटना और व्यवस्था के प्रति उनकी संवेदनशीलता तीव्र और स्पष्ट रूप से उभर कर मुखरित हुयी है। वस्तुतः समाज में कला की भूमिका जहाँ समाज के लिए एक आईना बनने, उसे जागरूक करने और संवेदनशीलता का अनुभव कराते हुए मनोरंजन करना भी है। संजय इन सारे भूमिकाओं को निभाते हुए अपने कला धर्म के प्रति तत्पर बने रहने को प्रयासरत रहते हैं। अलबत्ता उनका यह प्रयास कभी अदृश्य तो कभी दृश्य रूप में हमें देखने को मिलता है।

बतौर कलाकार अपनी इन भूमिकाओं को निभाते एक व्यक्ति के रूप में संजय अपनी शिक्षा भूमि से भी बराबर जुड़े रहें हैं। कला महाविद्यालय,पटना में संभावना – आर्ट कैंप का आयोजन हो या किसी अन्य तौर पर अपने कर्त्तव्य का पालन, निरंतर करते ही आये हैं। एक कलाकार के रूप में संजय अपने काम (चित्र निर्मिती) के प्रति बड़े संयमी और स्थिरचित्त के हैं। उनमें यह गुण अपने गाँव में छठ पूजा, दुर्गा-पूजा जैसे आयोजनों के दौरान; कागज के शिल्प बनाने के दौरान समाहित हुआ, जो आगे चलकर लगातार उपयोगी साबित होता रहा। चारकोल माध्यम में अपनी कलाकृतियां बनाते समय संजय जिस सुरुचिपूर्ण कलात्मक भूमिका निभाते हैं, उसके लिए जिस संयम-एकाग्रता और तन्मयता की आवश्यकता है वह किसी अन्य के लिए सहज संभव नहीं लगता। जल्दबाज़ी या लापरवाही की कोई गुंजाइश यहाँ नहीं ही है। किसी चित्र को बनाते समय अगर कुछ भी अनचाहा निशान बन जाए तो वे उस चित्र को नए सिरे से रचने में लग जाते हैं; किसी दूसरे कागज़ पर। उनके व्यक्तिगत स्वभाव में समझौता नहीं करने की जो बुनियाद है, वही उनके चित्र-निर्माण में भी लागू होता है। अलबत्ता इस बीच चित्र बनाने की क्रिया-प्रक्रिया में कुछ बदलाव भी आते रहे हैं। जिसे हम कला की आंतरिक समझ और समाज के प्रति संवेदनशीलता के बूते महसूस कर सकते हैं , या कहें कि इन मनःस्थितियां में हमें दिखाई देने लगते हैं।

कलाकृति निर्माण की समय रेखा (टाइम लाइन) :

संजय कुमार की पहचान अपने लम्बी गर्दन वाले (वह जिसे सुराहीदार गले का रूपक मानते हैं), अधखुले नयन और सम्मुख भाव सहित बुद्ध के कारण बनती है। परंतु इस रूपक के स्थापित होने से पहले और बाद में समय समय पर बदलाव भी देखने को मिलते हैं जो कुछ इस प्रकार हैं:

  1. अपने छात्र जीवन में संजय जिस अमूर्तन को अपनाते हैं, वहां ज्यामितीय रूपाकारों का अनुशरण करते हैं ।
  2. उन्ही दिनों वे पुरातन कथाओं से प्रेरणा लेकर महाभारत या अन्य कहानियों के कुछ विशेष घटनाओं का वर्णन भी करते हैं एवं इस दौर में उन्होंने कुछ व्यक्तिचित्र भी बनाये।
  3. मुंबई में कुछ समय गुजारने के बाद सम्मुख बुद्ध की जो प्रतिमा उभर कर आयी जो उनकी पहचान बन गयी।
  4. आगे चलकर सम्मुख बुद्ध के साथ-साथ पार्श्वभूमि में जातक कथाओं का भी प्रवेश हुआ और कुछ चुनिंदा चित्रों में मिथिला (मधुबनी) कलाकारों ने भी सहभाग किया।
  5. जातक कथाओं के अलावा महाभारत और रामायण के सन्दर्भ कथा के अनुरूप अंकन भी इनकी रचनाओं में देखने को मिलता है। अमर चित्र कथा श्रृंखला जैसे अंकन इन चित्रों के पार्श्वभूमि में दिखती है।
  6. 2004 आते-आते बुद्ध के भिक्षापात्र की आकृति शुरुआत में कलाकृतियों में आती है जो फिर एक विशाल स्वतन्त्र शिल्प के तौर पर हमारे सामने आता है। एक कलाकार का उत्तेजना से भरा चंचल मन उनके धातु में ढले विशाल पात्र बनाने के निर्णय में परिलक्षित होता है ; जहाँ संजय उपलब्ध सारे संसाधन लगा कर अपने जीवन के सबसे बड़े प्रयोग में जुट जाते हैं। इस प्रयोग से पाँच पात्र बनकर तैयार होते हैं जिनमे से एक बिहार संग्रहालय में ‘भिक्षा पात्र’ नाम से स्थापन-शिल्प के रूप में और तीन शिल्पों की एक इकाई भारत के बड़े उद्यमी मुकेश अम्बानी के कला संचय में शामिल है।
  7. इसके अलावा ‘प्रज्ञा शील करुणा’, ‘महाबोधि’, ‘माँ तारा’, और ‘कालचक्र’ जैसे प्रायोगिक स्वतंत्र चित्र भी बने हैं । माँ तारा का यह चित्र फोटोग्राफी प्रिंट के ऊपर सुनहरे लेपन से बना एक विशेष चित्र है जो संजय के नियमित चित्रों से बिल्कुल भिन्न है।

“इन सभी कलाकृतियों में अगर कोई समानता है तो वह है काले रंग की अनिवार्य उपस्थिति। मध्य चाहे चारकोल हो या कुछ अन्य, उसका प्रमुख वर्ण केवल श्याम (काला) ही रहा है। “

संजय अपने बुद्ध की कल्पना में एक विशेष भाव देखते हैं जो संन्यास के पूर्व के युवराज सिद्धार्थ की है। यहाँ बुद्ध को वे आध्यात्मिक विश्व के सिंहासन पर बैठे एक सम्राट के रूप में देखते हैं। इसलिए यहाँ वे आभूषणों से सजे हैं जो आध्यात्मिक सम्पन्नता का प्रतीक हैं। उनकी नाज़ुक स्त्री समान लम्बी गर्दन उनके अंदर के ममत्व और मृदुता का संकेत देते हैं जो दर्शकों को पितृसत्ता के गंभीर भाव से मुक्त करता है। भारतीय शिल्प परंपरा यही बताता है कि अपने इष्ट देव को आप अपने मनचाहे रूप में देख और उनका मनन कर सकते हैं। विदित हो कि हीनयान के समय से ही बुद्ध मानव रूप में व्यक्त किये गये जो विभिन्न कथाओं के अनुसार भिन्न मुद्रा धारण किए नज़र आते हैं। संजय इसी भाव से अपने बुद्ध को एक आधुनिक रूप में व्यक्त करते हैं और उनके तात्विक विचारों का जीवन में अपनाते हैं।

चित्र से शिल्प: द्विआयामी से त्रिआयामी की यात्रा और भिक्षा पात्र :

2006 -7 में उनके हाथ भिक्षा पात्र का जो नमूना आया वह काफी दिनों तक उनके घर में रखा रहा।  परिणाम ये हुआ कि कुछ ही दिनों में यह उनके चित्रसंकेत का आवश्यक भाग बन गया। ऐसे ही किसी मौके पर एक दिमागी तरंग पर सवार ‘बड़ा पात्र’ बनाने की कल्पना कुछ इस तरह सर चढ़ गया कि संजय धातु का एक अखंड शिल्प ढालने की ठान बैठे। अंततः तक़रीबन दो साल के प्रयास और एक गंभीर विफलता के बाद साकार हुआ उनका यह ‘भिक्षा पात्र ‘। यह पात्र वास्तविक आकार से विशाल होते हुए ऐतिहासिक रूप से नालंदा, अजंता के स्थापत्य से अपने को जोड़ता है। बिहार संग्रहालय में इसे एक स्थापन-शिल्प के रूप में सुनियोजित मंच पर रचा गया है। मंच के बीचोंबीच रखे पात्र की परिक्रमा करते हुए पीतल में ढले असंख्य भिक्षु आकृति रचे गये हैं। पात्र के बाहरी सतह पर नालंदा के अवशेषों से मिलती जुलती ईंटो की रचना का अनुसरण किया गया है। वहीँ पात्र के आंतरिक दीवार पर अजंता के गुफ़ा क्र. 7 के बाहरी दीवार पर बनी अनगिनत ध्यानी भिक्षु/बोधिसत्व के समान छोटी-छोटी प्रतिमाएं उकेरी गयीं हैं, जो पात्र के केंद्र में अदृश्य बुद्ध का आभास कराती हैं। यह सब कुछ इस शिल्प के समक्ष आने वाले हर दर्शक को परिक्रमा के लिए प्रेरित भी करता है। इस विशेष योजना के चलते किसी भी दर्शक को पूरे आकार का शांतचित्त से अनुभव करते हुए एक विलक्षण अनुभूति का अहसास कराता है जो उसे अपने आतंरिक भाव से जोड़ता है।

प्रदर्शनी के दौरान स्कूली बच्चों के साथ संजय कुमार

कलाकार और समाज :

कलाकार एक व्यक्ति के रूप में समाज को क्या देता इसे स्थूल और सूक्ष्म दोनों ही तरह से तौला जा सकता है। पर समाज की अपनी प्रतिक्रिया कलाकार को निशब्द कर अचरज में डाल सकती है। बोधगया में हुए एक कला आयोजन में संजय अपने चित्र रूप के बुद्ध को स्थानीय कुम्हारों के सहयोग से एक बड़े मूर्ति रूप में साकार कर रहे थे। एक ऐसी घटना हो गयी जो समाज के समझदारी, नयेपन को स्वीकार करने की खुली मानसिकता, आधुनिकता और परंपरा के बीच का चुनाव, इन सभी की कसौटी पर खड़ी हो गयी थी। बनते हुए मूर्ति को देखने आये श्रद्धालुओं में मतभेद हो गया और बुद्ध की अपारंपरिक गर्दन (सुराही गला) को लेकर बहस के चलते मूर्ति का निर्माण बंद करना पड़ा। जबकि भी यह भी एक तथ्य है कि ऐतिहासिक तौर पर बुद्ध स्वयं अपनी मानव रूपी मूर्ति के विरोध में थे। किन्तु कालांतर में ऐसी स्थिति बनी कि उनकी साकार मूर्ति ही विश्व में शांति का प्रतीक बन कर घर- घर में पहुंच गई। जाहिर है ऐसी दुविधाजनक स्थिति में कलाकार अपनी कल्पना को आधार बनाये या परंपरा का साथ दे? एक अनुत्तरित सा सवाल बनकर रह जाता है।

कलाकार भले ही एकांत में कार्य करना पसंद करते हैं, पर जब व्यावहारिक धरातल पर उतरना होता है तो समाज से कहीं न कहीं जुड़ना ही पड़ता है। संजय भी कुछ हद तक अपने में ही मशगूल रहने वाले इंसान है। पर अपने इर्द गिर्द के समाज से सदैव जुड़े रहें हैं। अपनी शिक्षा भूमि पटना कॉलेज के लिए संजय बराबर प्रयास करते रहें है कि युवा कलाकारों को सही दिशा और बोध मिल सके। इसीलिए  संभावना (२००८, २०११, २०१३) का आयोजन उन्होंने यहाँ किया। पटना शहर में उन्होंने कलाकारों के बीच आपसी वैचारिक संवाद के माहौल की कमी पायी है, जिसमें आजतक भी कोई खास सकारात्मक बदलाव होता नहीं दिख रहा है। इस स्थिति में सुधार लाने के लिए अपने व्यक्तिगत संसाधनों का इस्तेमाल कर अंतिम वर्ष के छात्रों के लिए संभावना आर्ट-कैंप का आयोजन समय-समय पर वे करते आये हैं। इस कैंप के दरम्यान छात्र बिना किसी शैक्षिक दबाव के चित्र निर्माण करते और एक दूसरे के साथ संवाद भी साधते। इस बीच कलाकार, इतिहासकार, विशेषज्ञ युवा कलाकारों के साथ चर्चा में स्वयं भी शामिल होते और अपनी कला प्रस्तुति को व्याख्यायित करने का प्रयास करते। समाज में कला और कलाकार का स्तर ऊंचा बनाये रखने के लिए अनुकूल माहौल आवश्यक है। इसी विश्वास को बनाये रखने के लिए संजय ने आर्ट्स कॉलेज में प्रिंटमेकिंग मशीन के अभाव को महसूस करते हुए, एक नयी मशीन और साथ में उससे जुड़ी आवश्यक सामग्री की व्यवस्था की; जिसे आज भी वहां के छात्र इस्तेमाल करते हैं।

अपने समाज से जुड़े रहकर, बुद्ध और रजनीश के विचार तत्वों का स्वीकार करते हुए इन्होंने कला जगत में अपनी विशेष पहचान को अपने अथक परिश्रम से साकार किया है। इस प्रक्रिया में उन्होंने कला मूल्य (कला के मानक) और सामाजिक मूल्य (सामाजिक मानक) दोनों को लगातार जोड़े रखा। साथ ही अपनी खुद की कार्यप्रणाली को अनुभव-संवेदनशीलता, सहृदय, एवम तर्कसंगत तरीके से साकार करते रहे हैं। सामाजिक समरसता के प्रति अपनी भूमिका निभाते हुए आज भी संजय कुमार संकल्प शिल्प (इंस्टॉलेशन) के निर्माण कार्य में संलग्न नज़र आते हैं।

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