भारतीय आधुनिक शिल्प शताब्दी : मास्टर्स शिल्पकारों की ऐतिहासिक प्रदर्शनी 

गत दिनों दिल्ली में आयोजित ऐतिहासिक कला प्रदर्शनी पर एक रिपोर्ट पढ़िये जिससे आधुनिक स्कल्पचर का इतिहास समझा जा सकता है। –

-विमल कुमार
वरिष्ठ कवि पत्रकार
हर सभ्यता के उद्भव और विकास  साथ-साथ उसकी कला  यात्रा भी साथ-साथ चलती है। कोई भी सभ्यता बिना अपनी कला के जीवित नहीं रह सकती है। दोनों का एक अन्योन्याश्रय सम्बंध है। चाहे नृत्य हो संगीत हो, चित्रकला हो, नाट्य कला हो और वाचिक परम्परा का साहित्य हो, सब का विकास एक साथ हुआ है, एक दूसरे के समानांतर। इसमें मूर्तिकला भी शामिल है। शायद यही कारण है सभ्यता के गर्भ में ही कला के बीज  होते हैं। अपने देश की बात करें तो मोहनजोदोडो की  हड़प्पा कालीन सभ्यता में भी अपनी कला के दर्शन दिखाई देते हैं। यही कारण है कि हम वहां अनाम शिल्पकारों की  टेराकोटा कलाकृतियां पाते हैं। उसके बाद मूर्तिकारों की एक कला यात्रा ही शुरू होती है, जो हमें बौद्धकालीन मौर्य कालीन गुप्तकालीन युग और उसके बाद के इतिहास में दिखाई देती है।आप उसकी  एक झलक कभी बौद्धकालीन मूर्तियों, अजंता एलोरा की गुफाओं, कभी महाबलीपुरम, कभी खजुराहो में देख सकते हैं I लेकिन आधुनिक भारतीय मूर्तिकला का इतिहास भी अब लगभग 100 साल पुराना हो चुका है,उसकी एक शताब्दी गुजर चुकी है I यानी पूरी बीसवी सदी इसकी साक्षी रही।
अब आधुनिक मूर्ति कला के विभिन्न चरणों को समझने बुझने और समझाने बुझाने की कोशिश  शुरू हुई  है । अभी इस पर काम होना बाकी है कि भारतीय मूर्तिकारों  शिल्पकारों ने हमारी आधुनिक संवेदनाओं, जीवन और मिजाज को किस तरह पकड़ा है और इन सौ सालों में कला को, समाज को और राष्ट्र को क्या दिया है। पिछले दिनों इस आकलन की कोशिश के तहत प्रोग्रेसिव आर्ट गैलरी और रजा  फाऊंडेशन ने त्रिवेणी कला संगम के श्रीधरनी आर्ट गैलरी में एक अनोखी प्रदर्शनी का आयोजन किया I जिसमें गत 100 वर्षों की मूर्ति कला को सामूहिक रूप से पेश किया गया। इसे क्यूरेट किया है प्रसिद्ध कला समीक्षक यशोधरा डालमिया जो रज़ा साहब की एक महत्वपूर्ण जीवनी भी लिख चुकी हैं। इसमें प्रदर्शित कला कृतियाँ प्रोग्रेसिव आर्ट गैलरी के मालिक आर. एन. सिंह के खजाने से निकली हैं। वे वर्षों से इन मास्टर्स की कृतियाँ जमा करते रहे हैं।
आज इन कृतियों को देख कर लगता है कि वे कितनी महत्वपूर्ण दुर्लभ और बहुमूल्य कृतियाँ हैं। यह प्रदर्शनी  हमारे समय के मास्टर्स आर्टिस्टों की एक ऐतिहासिक प्रदर्शनी है । गत  40 वर्षों में ऐसी कोई प्रदर्शनी कम से कम दिल्ली में तो नहीं देखी गई थी जिसमें आधुनिक मूर्ति कला के विभिन्न रूपों और छवियों को एक जगह पेश किया गया हो। यह भारतीय समाज और कला का प्रतिबिंब है। मूर्तियां भी बहुत कुछ कहती और बताती हैं। उन्हें सुनने और समझने की जरूरत है। उंनसे संवाद करने की जरूरत है। यूं तो हम कला प्रेमी कभी किसी प्रदर्शनी में रामकिंकर बैज से लेकर सोमनाथ होर, मीरा मुखर्जी, मकबूल फिदा हुसैन, कृष्ण खन्ना, अमनरनाथ सहगल,सतीश गुजराल, अकबर पद्मसी और  हिम्मत शाह जैसे अनेक मास्टर्स आर्टिस्ट की मूर्ति कला चित्रकला को देखते परखते रहे हैं; लेकिन  इस प्रदर्शनी की खासियत यह थी कि इसमें 24 कलाकारों की 46 कलाकृतियों को एक साथ प्रदर्शित किया गया है। ये एक युग को रेखांकित करती है।
इस प्रदर्शनी का शीर्षक ही sculpting century है यानी एक शताब्दि इसमें गढ़ी गयी है और यह भारत की एक शताब्दी  मूर्ति शिल्प में उकेरी गई है। इन 24 कलाकारों में तो 14 ऐसे कलाकार हैं  जिनके 100 साल पूरे हो चुके हैं, जो हमारी आधुनिक कला के विरासत बन गए हैं। शेष 14 कलाकारों में भी सभी दिग्गज और प्रतिष्ठित कलाकार शामिल हैं जिनमें गुलाम मोहम्मद शेख हैं तो मृणालिनी मुखर्जी भी हैं जो अब नहीं रहीं। अगर उम्र के हिसाब से बात करें तो इसमें शामिल कलाकारों में के. एस. राधाकृष्णन इस प्रदर्शनी के सबसे युवा हैं लेकिन उनकी भी उम्र करीब 70 वर्ष हो चली है और वे भी अब वरिष्ठ कलाकार के रूप में जाने जाते है।।इस प्रदर्शनी में  शामिल  46 कलाकृतियों को देखना आधुनिक भारतीय मूर्ति कला की यात्रा से गुजरना है,  उसके विभिन्न पड़ावों को देखना है , उसमें हुए प्रयोगों और नवाचारों को देखना है।
यह सारे  स्कल्पचर विभिन्न मीडियम में बने हैं जिसमे  ब्रॉन्ज, काष्ठ,टेराकोटा एवम अन्य सामग्री को देखा जा सकता है। इसमें परंपरा आधुनिकता और समकालीनता का भी मेल है, साथ ही इस प्रदर्शनी में लोक कला की संवेदना कहीं कहीं  दिखाई देती है। कहीं कहीं जन जीवन भी है। यह प्रदर्शनी पूरी भारतीय संस्कृति समाज और जीवन को एक साथ प्रदर्शित करती है। इसमें जहां एक तरफ बांसुरी बजाते हुए कृष्ण है, तो लोक नर्तकियां हैं वही टैगोर भी हैं और जेआरडी टाटा भी हैं । इनमें जाता पिसती औरतें शामिल है तो मुर्गे भी हैं बैंड बजानेवाला भी है। इनमें हिम्मत शाह के बने हुए चेहरे और मुखोटे भी शामिल हैं जो व्यक्ति की विभिन्न मुद्राओं और रूपों को प्रदर्शित करते हैं। इस पद्धति में हुसैन के लकड़ी के बने घोड़े भी हैं रज़ा साहब की एक नन्ही सी मेज भी है। प्रसिद्ध राजनीतिक चिंतक आशीष नंदी, अशोक वाजपेयी और यधोधरा डालमिया ने इस प्रदर्शनी का मिलकर उद्घाटन किया और एक कैटलॉग भी जारी किया गया I जिसमें यधोधरा जी ने एक महत्वपूर्ण भूमिका लिखी है जिसे पढ़कर इस शिल्प शताब्दी को समझा जा सकता है।
-विमल कुमार 
वरिष्ठ कवि पत्रकार

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