किसी कलाकार द्वारा फोटोग्राफी को माध्यम बनाकर सृजन की बात आती है तो विश्व इतिहास में एक अग्रणी नाम मैन रे (1890-1976) का आता है। अमेरिकी मूल के इस पेरिस निवासी कलाकार को दादावाद और अतियथार्थवाद के आरम्भिक कलाकारों में गिना जाता है। 1925 में पेरिस के गैलरी पियरे में जिस पहली अतियथार्थवादी प्रदर्शनी का आयोजन हुआ था। उसमें जीन अर्प, मैक्स अर्न्स्ट, आंद्रे मेसन, जोन मिरो एवं पाब्लो पिकासो के साथ मैन रे की कृतियां भी शामिल थीं। हालंकि फोटोग्राफी के क्षेत्र में उनकी प्रसिद्धि अपनी अवांगर्द फोटोग्राफी से मिली, किन्तु उन्होंने फैशन और पोट्र्रेट फोटोग्राफी में भी अपना योगदान दिया। कतिपय इन्हीं कारणों से प्रसिद्ध पत्रिका ‘आर्ट न्यूज’ ने बीसवीं सदी में कला की समीक्षा करते हुए मैन रे को पच्चीस प्रभावशाली कलाकारों की सूची में शामिल किया। जिसमें उनके उल्लेखनीय कैमरा-वर्क और डार्क-रूम प्रयोग का हवाला दिया गया। आशय यह कि एक कलाकार के तौर पर उनकी उपलब्धि में उनकी फोटोग्राफी का भी योगदान था।
नहीं जानता कि वर्ष 1980 में पटना के कला महाविद्यालय में छात्र के तौर पर अपनी पढाई शुरू करने वाले शैलेन्द्र ने तब मैन रे का नाम सुना भी था या नहीं। अलबत्ता इतना जरूर था कि कला महाविद्यालय में आने के पहले से फोटोग्राफी की थोड़ी बहुत समझ इस युवा में आ चुकी थी। इतना ही नहीं अपने स्कूली दिनों में ही कैमरे पर हाथ भी आजमा चुके थे। बहरहाल अपना जुड़ाव तो इस कला महाविद्यालय से वर्ष 1981 से हो पाया। इस तरह से शैलेन्द्र मुझसे एक साल सीनियर थे। और उनका बैच बैचलर ऑफ फाइन आर्ट का पहला बैच था। इससे पहले यहां डिप्लोमा की पढाई होती थी। बहरहाल उस दौर में हम छात्रों के बीच आधुनिक या समकालीन कला को लेकर एक रूझान पैदा होने लगा था। छात्रों का एक बड़ा वर्ग जहां अपनी प्राथमिकता सिर्फ पढाई पूरी कर एक अदद नौकरी तक सीमित किये हुए था। वहीं चंद गिने-चुने छात्र ऐसे भी थे जो अपने गुरुजनों व सीनियर छात्रों से प्रभावित होकर कला अभिव्यक्ति दर्ज कराने लगे थे। यहां तक कि बिना किसी उपयुक्त संसाधन के स्थानीय स्तर पर कला-प्रदर्शनियों का आयोजन भी होने लगा था। तो साथ ही राज्य से बाहर की कला-प्रदर्शनियों में भागीदारी भी निभाई जाने लगी थी। यहां तक कि ललित कला अकादमी, नई दिल्ली की राष्ट्रीय प्रदर्शनी एवं त्रैवार्षिकी के अवसर पर दिल्ली आकर प्रदर्शनी देखने का सिलसिला भी चल निकला था। इन सब मामलों में तब भी शैलेन्द्र कुमार की सक्रिय भागीदारी हुआ करती थी। उस दौर में उनके बनाए रेखांकनों की चर्चा हम छात्रों के बीच होती ही थी। खासकर उनका घंटों धैर्यपूर्वक बैठकर निब वाले पेन और चाइनीज इंक से किया जाने वाले रेखांकन की। आज भले ही यह बात सहज सामान्य लगे किन्तु तरूणाई की उस उम्र में उतना धैर्य, आसान कत्तई नहीं था।
लेकिन कुछ ही दिन बीते होंगे कि उनकी प्राथमिकता में फोटोग्राफी आ गई या आती चली गई। वहीं बाकी अन्य साथी कलाकार अपने-अपने तरीके से चित्र और मूर्तियां बनाने से लेकर छापाचित्रों में लगे रहे। जहां तक याद आता है उस दौर में यदा-कदा फोटोग्राफी की प्रदर्शनियां भी आयोजित होती थीं। किन्तु फिर भी हम में से अधिकांश इसे स्मृतियों को संजोने भर का माध्यम ही मानते रहे। हां एक और महत्व इसका पता था कि किसी भी तरह का फॉर्म वगैरह भरने के लिए भी इसकी अनिवार्यता है। कला प्रदर्शनियों में हालांकि फोटोग्राफ भी प्रदर्शित होने लगे थे, लेकिन यह बस नाम भर की उपस्थिति होती थी। अलबत्ता न्यूज फोटोग्राफी को लेकर आम-समाज से लेकर कला-समाज में भी चर्चा हो जाया करती थी। हमारे यहां के कुछ पूर्ववर्ती छात्र उन दिनों पटना से प्रकाशित होने वाले दैनिक समाचार पत्र के छायाकार होते थे। बाद के वर्षों में भी कुछ छात्रों ने उनका ही अनुसरण किया और मीडिया फोटोग्राफर या कहें कि प्रेस फोटोग्राफर बन गए। किन्तु आर्ट फोटोग्राफर जैसा शब्द कॉलेज के बाद के वर्षों तक भी अटपटा सा ही लगता था। ऐसे में शैलेन्द्र का यह जुड़ाव कैसे कायम रहा, यह तो बेहतर वही बता सकते हैं। किन्तु शैलेन्द्र अब अपनी विशिष्ट कलात्मक फोटोग्राफी के लिए जाने जाते हैं, यह तो आज सबको पता है। खुद अपनी बात करूं तो यदा-कदा शैलेन्द्र के छायाचित्र देखता रहा। कुछ वर्ष पूर्व जब उन्होंने पटना में अपनी एकल प्रदर्शनी लगाई तो उनके विगत चार दशकों से अधिक के कला-कर्म को कुछ और नजदीक से समझ पाया। यहां यह स्पष्ट कर दूं कि तमाम आत्मीय संबंधों के बावजूद हमारे बीच एक भौतिक दूरी बनी रही। जिसका एकमात्र कारण हम दोनों का देश के अलग-अलग शहरों में कार्यरत रहना रहा।
वर्ष 2018 में आयोजित बोधगया बिनाले में शैलेन्द्र के छायाचित्र भी शामिल थे। इस आयोजन से जुड़े होने की वजह से मुझे प्रदर्शित किए जाने के क्रम में ही उस चित्र या कहें कलाकृति को देखने का सुअवसर मिला। मेरे लिए वह अद्भूत और अविस्मरणीय पल था। दरअसल प्राचीन मगध की वास्तुकला में टेराकोटा टाइल्स का भरपूर उपयोग हुआ है। नालंदा व विक्रमशिला के भग्नावशेषों से लेकर तमाम अन्य पुरास्थलों पर आज भी उसके साक्ष्य बिखरे पड़े हैं। शैलेन्द्र ने उन तमाम जगहों पर जाकर उसकी फोटोग्राफी की और उसे कंप्यूटर की मदद से संयोजित किया। इतना ही नहीं फोटोशॉप जैसी आधुनिक तकनीक की मदद से उसे और प्रभावी भी बनाया। कुल मिलाकर यह अपने इतिहास के गौरवशाली परंपरा से रूबरू होने जैसा अनुभव था। जो अहसास शायद उन टेराकोटा पैनल्स को अलग-अलग अपने मूल स्थान पर देखकर उतने प्रभावी ढंग से होना संभव नहीं था। इसके बाद जब भी मौका मिला उनके विशाल संग्रह से परिचित होता रहा। किन्तु ज्यादातर मौकों पर मोबाइल या कंप्यूटर के स्क्रीन पर ही उन तस्वीरों को देख पाया था। हालांकि कुछ बड़े आकार के प्रिंट्स भी इस बीच देखने को मिले। किन्तु यह बात तो माननी ही होगी कि किसी भी कलाकृति को किसी बड़ी दीर्घा में देखना एक खास चाक्षुष अनुभव है। ऐसे में इस तरह के अवसर की प्रतीक्षा कलाकार और कला-प्रेमी दोनों को रहती है। संयोग से बिहार म्यूजियम, पटना के सौजन्य से यह अवसर हमें मिल रहा है। मेरा दृढ विश्वास है कि इस पुनरावलोकन प्रदर्शनी में शैलेन्द्र की कलाकृतियों के साथ-साथ उनके कलात्मक छायाचित्र आम दर्शको से लेकर कलाकारों व कलाविदों को पसंद आएंगे।
बात उनके उन रेखाचित्रों की करें जो उन्होंने ब्राोमाइड पेपर पर अपने शुरूआती दिनों मे किए हैं। इक्कीसवीं सदी की कला में न्यू मीडिया के आगमन के बाद भले ही अब यह आम चलन बन चुका हो। किन्तु जिस दौर में शैलेन्द्र ने इसे अपनाया था, तब हममें से बहुतों ने इस तरह के किसी प्रयोग के बारे में कल्पना भी नहीं की थी। उनके टेराकोटा पैनल्स वाले चित्रों की तरह का ही एक अन्य महत्वपूर्ण चित्र-संग्रह चौंसठ योगिनी के मूर्तिशिल्प भी हैं। जो उन्होंने हीरापुर, भुवनेश्वर के प्रसिद्ध महामाया मन्दिर जाकर किए है। इसी तरह अहमदाबाद के प्रसिद्ध रानी का बाव एवं अन्य ऐतिहासिक धरोहरों को भी उन्होंने अपने कैमरे की निगाह से देखा, संवारा और संजोया है। इतना ही नहीं देव, औरंगाबाद, बिहार के चर्चित छठ पूजा, हरिद्वार कुंभ, सोनपुर मेला से लेकर तमाम धार्मिक आयोजनों को समेटे हुए उनके छायाचित्र भी यहां प्रदर्शित हैं। इस चर्चा में उनके बनारस श्रृंखला के छायाचित्रों की बात करें तो भले ही आपने दर्जनों बार बनारस के उन घाटों को देखा हो। किन्तु मेरा दावा है कि जिस संयोजन के साथ शैलेन्द्र ने उसे यहां प्रदर्शित किया है, वह उसकी सुंदरता, भव्यता और ऐतिहासिकता को एक नया आयाम देती है।
बिहार में रेत खनन और रेत माफिया के किस्से आपने बहुत सुने होंगे, किन्तु तमाम जोखिम मोल लेकर की गई उसकी ऐसी फोटोग्राफी देखने का यह पहला अवसर होगा। जिन नयनाभिराम दृश्यों में उसके पीछे की भयावहता और इंसान की मजबूरी वाली व्यथा-कथा भी सन्निहित है। कुछ यही अहसास गुजरात के समुद्र तट की उन तस्वीरों में भी है जो नमक के व्यापार से जुड़े कारोबार की अन्र्तकथा बयां करते हैं। यहां अंडमान के मनभावन नजारे भी मिलेंगे तो झारखंड के जनजातीय समाज के परिचित-अपरिचित पहलुओं से भी आपका सामना होगा। कुल मिलाकर कलाकार/छायाकर शैलेन्द्र की लगभग बयालीस वर्षों की उस कला यात्रा से आप मुखातिब होंगे। जिसके पीछे दशकों के अनुभव, जिद, जुनून से लेकर तकनीकी दक्षता और सबसे बढकर समर्पण का योगदान है। कह नहीं सकता कि हमारा कला इतिहास आनेवाले दिनों में शैलेन्द्र जैसे कलाकार/ छायाकार को किस रूप में याद रखेगा। किन्तु इतना तो कहा ही जा सकता है कि आज की तारीख में जो मुकाम उन्होंने हासिल किया है वह सहज या सामान्य नहीं है। खासकर उस दौर में जब आज भी बिहार के अभिजात वर्ग से लेकर सामान्य जन के बीच कला व कलाकार के प्रति कोई विशेष अभिरूचि देखी नहीं जाती हो। बहरहाल इस आयोजन के लिए कलाकार व आयोजक से लेकर उन चंद कला-प्रेमी दर्शकों का साधुवाद। जिनकी वजह से ऐसे आयोजन की अपेक्षा भविष्य में भी बनी रहेगी।
-सुमन कुमार सिंह
कलाकार/ कला लेखक
26 मई 2022
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सभी संलग्न छायाचित्र शैलेन्द्र कुमार की मंदिर श्रृंखला से।