आज से लगभग तीन-चार दशक पहले के दौर को याद करें तो बिहार के ग्रामीण अंचल में खादी वस्त्रों का उपयोग बहुतायत में देखा जाता था । इतना ही नहीं लगभग हर गाँव में चरखे से सूत कातने का चलन भी मौजूद था । किन्तु देखते – देखते यह परंपरा विस्मृत होती चली गयी, लेकिन अब एक और बदलाव हमारे सामने है जब खादी एक बार फिर से हमारे पहनावे में शामिल हो चूका है । बहरहाल प्रस्तुत है बिहार में खादी के इतिहास और वर्तमान को रेखांकित करता अशोक कुमार सिन्हा का यह विस्तृत आलेख…
खादी शब्द ’’खददर’’ से लिया गया है, जिसका मतलब होता है हाथ से बुना हुआ कपड़ा। भारत में इसका लंबा इतिहास रहा है। छठी शताब्दी के दौरान, चीन के हवेनत्सांग के यात्रा-संस्मरण में खादी कपड़े का वर्णन है। 12वीं शताब्दी में मार्को पोलो द्वारा खादी वस्त्र का वर्णन किया गया है। उन्होंने लिखा है कि बंगाल, जिसमें बिहार भी शामिल था, में खादी मलमल के नाम से जाना जाने वाला कपड़ा मकड़ी के जाले जैसा अत्यन्त बारीक व बेहतरीन होता है। रोम के लोग मलमल के बड़े प्रशंसक थे और उसका बड़ी मात्रा में आयात करते थे। मुगल काल में औरंगजेब के युग के दौरान कोमिला की खादी को मूल्यवान वस्त्र के रूप में जाना जाता था।
खादी के कपड़े काफी आरामदायक होते हैं। ये शरीर को सर्दी में गरम और गर्मी में ठण्डा रखते हैं। क्योंकि खादी धागों की बुनाई में प्रयोग किया जाने वाला करघा क्रमबद्ध तरीके से धागों की धारियाँ बनाता है, जिससे शरीर को अधिक से अधिक हवा लगती है। उन धागों मे अधिक अंतराल होता है, जो पसीने को सोख लेता है और पहनने वालों को ठण्डा रखता है। खादी फैब्रिक के लिए यार्न हाथ से बुना जाता है, जिसमें मिलों या विद्युत करघे में निर्मित कपड़े के बजाए समय अधिक लगता है। फलस्वरूप प्रत्येक धुलाई के बाद कपड़े का सौंदर्य बढ़ जाता है। सर्दियों के मौसम में उल्टा होता है। कपास गर्मी का बुरा संवाहक है। फलस्वरूप यह गर्मी को शरीर से बाहर निकलने से रोकता है। खादी केवल प्राकृतिक रेशों अर्थात रूई, रेशम तथा ऊन का उपयोग करके बनती है। इसलिए यह पर्यावरण के भी अनुकूल है। पहले खादी का इस्तेमाल सिर्फ पारम्परिक परिधान यथा साड़ी, सलवार, सूटस, कमीज, पायजामा आदि के लिए किया जाता था। लेकिन अब बाजार की माँग के अनुरूप स्टाइलिश पहनावे जैसे मिनी स्कर्ट, टाप्स और टयूनिक इत्यादि के लिए भी बड़े पैमाने पर उत्पादित हो रहे हैं। खादी अब सिर्फ गरीबों की ही पोशाक नहीं है, ऊँचे दर्जे के लोग भी इसे खूब शान से पहन रहे हैं।
अंग्रेजों के आगमन के समय तक बिहार की अर्थव्यवस्था के तीन महत्वपूर्ण अंग थे- कृषि, वस्त्र एवं व्यापार। तब बिहार के प्रत्येक गाँव में हथकरघा पर वस्त्र निर्माण होता था। पटना सिटी, बिहार शरीफ, आरा, गया, भागलपुर, मुंगेर, शेखपुरा इत्यादि वस्त्र निर्माण के बड़े केन्द्र थे। अंग्रेजों ने आते ही इन पर हमला बोला। फलस्वरूप इनके उत्पादन और विपणन में लगी आबादी का एक बड़ा हिस्सा बेरोजगार हो गया और फौज की वर्दी पहनकर सिपाही बन गया। 1857 की क्रांति के समय बहादुरशाह जफर और कुंवर सिंह ने सोनपुर मेला में मीटिंग के दौरान जो इश्तिहार निकाला था, उसमें इस तबाही का जिक्र करते हुए लिखा गया था कि ब्रिटिश हुकूमत ने सभी बढ़ियाँ और बेशकीमती चीजें यथा खादी एवं रेशमी वस्त्र, नील का कपड़ा तथा अन्य सामग्रियों के तिजारत पर अपना हक जमा लिया है और सिर्फ मामूली चीजों का व्यापार यहाँ के लोगों के लिए छोड़ दिया है।
राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी और खादी उद्योग जैसे एक दूसरे के पर्याय बन चुके हैं। लेकिन यह बात बहुत कम लोगों को मालूम है कि गाँधी जी को खादी से बने कपड़ों का प्रयोग करने की प्रेरणा बिहार में ही मिली थी। दक्षिण अफ्रीका में सफल सत्याग्रह आन्दोलन कर 1915 के जनवरी में वे भारत लौटे थे और 1917 में ’’चम्पारण आन्दोलन’’ में कूद पड़े थे। उस समय तक देश की अर्थव्यवस्था चौपट हो चुकी थी। सिले-सिलाये कपड़े विदेशों से आते थे, जो काफी महँगे होने के कारण आम आदमी की पहुँच से बाहर थे। गाँधी जी ने उस समय की स्थिति का वर्णन अपनी आत्मकथा ’’सत्य के प्रयोग में’’ इस प्रकार किया है-’’चम्पारण का भीतिहरवा एक छोटा सा गाँव था। वहाँ कुछ बहनों के कपड़े बहुत मैले दिखाई पड़े। इन बहनों को कपड़े बदलने के बारे में समझाने के लिए मैंने कस्तूरबा बाई से कहा। उसने उन बहनों से बात की। उनमें से एक बहन कस्तूरबा बाई को अपनी झोपड़ी में ले गई और बोली,
’’आप देखिये, यहाँ कोई पेटी या आलमीरा नहीं है, जिसमें कपड़े बंद हो। मेरे पास यही एक साड़ी है, जो मैंने पहन रखी है। इसे मैं कैसे धो सकती हूँ। महात्मा जी से कहिये कि कपड़े दिलवायें। उस दशा में रोज नहाने और कपड़े बदलने को तैयार रहूँगी।’’
इस घटना ने गाँधी जी की आँखें खोल दी। उन्होंने महसूस किया कि भारत के गाँवों की बदहाली को दूर करने की तत्कालिक आवश्यकता है। काफी चिन्तन मनन के बाद वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि भारत में कृषि के बाद हस्तकरघा ही एक ऐसा क्षेत्र है, जो गाँवों की बदहाली को खुशहाली में बदल सकता है। हालाकि धरेलू उत्पादों और उत्पादन इकाइयों को नया जीवन प्रदान करने के लिए 7 अगस्त, 1905 को ही भारत में स्वदेशी आन्दोलन शुरू हो चुका था। लेकिन वह ढ़ीला-ढ़ाला चल रहा था। गाँधी जी ने हथकरघा एवं खादी को बढ़ावा देने के उद्देश्य से स्वदेशी आन्दोलन को तेज करने का निर्णय लिया। उन्होंने आहवान किया कि देश का हर व्यक्ति कम से कम एक घंटा प्रतिदिन चरखा काटे। हालाँकि गाँधी जी को चरखे की खोज में काफी दिनों तक भटकना पड़ा था।
बड़े प्रयत्न के बाद उन्हें कुछ बुनकर हाथ लगे थे। तब का पारम्परिक चरखा एक बड़े चक्र और तकुए वाला था। उसे कहीं ले जाना कठिन था। गाँधी जी अपने साबरमती आश्रम में चरखे पर लगातार प्रयोग करते रहे। एक की जगह दो चक्र लगाया- एक बड़ा और एक छोटा। तब जाकर एक पोर्टेबल चरखा विकसित हुआ, जिसका नाम उन्होंने यरवदा चक्र रखा। गाँधी जी ने उस चरखे पर खुद कताई शुरू की और कार्यकर्ताओं को भी अनुसरण करने के लिए प्रेरित किया। गाँधी जी ने यह नियम भी बनाया कि खादी की कीमत में व्यवस्था पर 6.15 फीसदी से अधिक खर्च न हो ताकि बुनकरों और कतिनों को ज्यादा से ज्यादा आमदनी हो सके। इस तरह खद्दर या खादी आन्दोलन अस्तित्व में आया।
शीघ्र ही हथकरघा एवं खादी का प्रयोग और विदेशी सामानों का बहिष्कार उनके शांतिपूर्ण आन्दोलन का महत्वपूर्ण हिस्सा बन गया। 16 अगस्त, 1921 को पटना में अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी का अधिवेशन हुआ, जिसमें महात्मा गाँधी भी उपस्थित थे। बैठक में विदेशी वस्तुओं, विशेषकर कपड़ों के बहिष्कार का सर्वसम्मत निर्णय लिया गया। उस समय भागलपुर राज्य का प्रमुख वस्त्र उत्पादन एवं बिक्री केन्द्र था। लाला लाजपत राय ने भागलपुर में बहिष्कार आन्दोलन का नेतृत्व किया था। कुछ ही महीनों में इस आन्दोलन ने जोर पकड़ लिया। फलस्वरूप स्वदेशी कपड़े की माँग बढ़नी शुरू हो गयी। उस दौरान 10 रूपया में मिलने वाला खद्दर का एक अदद कपड़ा 15 रूपया में मिलने लगा था।
अखिल भारतीय काँग्रेस कमेटी ने खादी विभाग का निर्माण किया। दिसम्बर, 1921 में अखिल भारतीय काँग्रेस कमेटी के पटना अधिवेशन में पारित प्रस्ताव के आलोक में अखिल भारतीय चरखा संघ की स्थापना हुई। जिसके बिहार शाखा के एजेन्ट डा. राजेन्द्र प्रसाद तथा लक्ष्मी नारायण मंत्री नियुक्त हुए। इस प्रकार 1925 से लेकर 1947 तक बिहार समेत पूरे देश में खादी का काम अखिल भारतीय चरखा संघ के तत्वाधान में चलता रहा। उस दौरान बापू लगातार यह कहते रहे कि अकेला चरखा ही हमारी आजादी और उसके बाद आजाद भारत में रामराज्य लाने की क्षमता रखता है।
आजादी के बाद के वर्षों में खादी के प्रचार-प्रसार पर खूब जोर रहा। आजाद भारत की सरकार ने यह महसूस किया कि खादी और ग्रामोद्योग परस्पर एक दूसरे के पूरक है। इसलिए सम्पूर्ण देश में खादी एवं ग्रामोद्योग के सघन प्रचार-प्रसार हेतु भारत सरकार द्वारा अधिनियम विशेष के तहत वर्ष 1956 में खादी एवं ग्रामोद्योग कमीशन की स्थापना की गई। उसी क्रम में बिहार में भी खादी और ग्रामोद्योग को संगठित और विकसित करने तथा उसके उदेश्यों को कार्यान्वित करने के निमित बिहार राज्य खादी ग्रामोद्योग बोर्ड का गठन एक्ट, 1956 के तहत हुआ। बिहार राज्य खादी ग्रामोद्योग बोर्ड की बैठक दिनांक 23.10.1956 को तत्कालीन उद्योग मंत्री श्री एम.पी.सिन्हा के कार्यालय कक्ष में हुई थी, जिसमें लिए गये निर्णय के मुताबिक खादी बोर्ड का कार्यालय तत्कालीन विधायक श्रीमती मनोरमा देवी के बोरिंग रोड स्थित घर में खोला गया। उस बैठक में उद्योग विभाग के उप निदेशक श्री जे.पी. श्रीवास्तव की सेवा मुख्य कार्यपालक पदाधिकारी के रूप में लेने के साथ-साथ विकास पदाधिकारी के तीन पद और 22 अन्य पदों की भी स्वीकृति दी गई। खादी बोर्ड की नियमावली वर्ष 1978 में तैयार की गई, जिसमें बोर्ड के कृत्य, अधिकार एवं दायित्वों का उल्लेख है।
1956-57 तक देश के विभिन्न राज्यों में खादी एवं ग्रामोद्योग संघ का गठन हो चुका था, जिसमें 242 पंजीकृत और करीब 60 सहकारी संस्थाएँ थीं। लेकिन बाद के वर्षों में खादी संस्थाएँ बाजार की जरूरतों के मुताबिक खुद को नहीं ढाल सकी। कतिन और बुनकर पुराने और परम्परागत चरखों पर ही काम करते रहे। पुराने चरखों से कतिन को पर्याप्त आमदनी नहीं हो पाती थी। कताई के बाद बुनाई, सूत की रंगाई और कपड़े का तैयार करने की तकनीक भी काफी हद तक पुरानी थी। रंगाई और परिधान के मामले में भी गुणवत्ता और मूल्यवर्घन सीमित था। परिणामस्वरूप खादी उद्योग सिकुड़ता चला गया और दूसरी तरफ सिंथेटिक धागे के निर्माण में रियायत के चलते लोगों का पसंद सिंथेटिक कपड़ा हो गया।
2010 के दशक में केन्द्र की नरेन्द्र मोदी सरकार ने ग्रामीण स्वरोजगार और आत्मनिर्भरता बढ़ाने के लिए आक्रमक रूप से खादी एवं ग्रामोद्योग को बढ़ावा देना शुरू किया। उनकी पहल पर स्वदेशी आन्दोलन की याद में 7 अगस्त को राष्ट्रीय हथकरघा दिवस मनाने की शुरूआत की गई। 7 अगस्त, 2015 को हथकरघा दिवस का उद्घाटन करते हुए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने आह्वान किया था कि सभी परिवार घर में कम कम एक खादी और एक हथकरघा का उत्पाद जरूर रखे। तत्पाश्चात खादी को एक नये रूप-रंग में गलैमर के साथ बाजार में प्रस्तुत किया गया। फलस्वरूप खादी संस्थाओं को पुनर्जीवन मिला। वर्तमान में देशभर में खादी से जुड़े तकरीबन 6000 पंजीकृत संस्थान और 32600 सहकारी संस्थान हैं। खादी आज दस लाख से भी अधिक लोगों के जीविकोपार्जन का स्त्रोत है, जिसमें पूरे देश में फैले कतिन बुनकर और अन्य कारीगर कार्यरत हैं।
विगत वर्ष के दौरान खादी का उत्पादन तेजी से बढ़कर 1000 करोड़ रूपये का हो गया है। खादी संस्थाओं की संख्या के मामले में उत्तर प्रदेश का पहला स्थान है, इसके बाद पश्चिम बंगाल, केरल, गुजरात और बिहार का स्थान है। गुजरात और राजस्थान खादी के लिए प्रसिद्ध है, जबकि हरियाणा, हिमाचल और जम्मू एवं कश्मीर उनी कपड़े के लिए जाने जाते हैं। बिहार ने खादी को रेशम के साथ जोड़कर अपना खुद का ब्रांड विकसित किया है। खादी रेशम में खादी और रेशम का अनुपात 50:50 होता है। यह वस्त्र देखने में राजसी और समृद्ध लगता है। खादी रेशम से बनाये जाने वाले विभिन्न परिधानों में सलवार, समीज, कुर्ता, पायजामा, दुपट्टा वेस्ट और जैकेट शामिल है।
बिहार में खादी क्षेत्र का विकास राज्य के सम्पूर्ण विकास के लिए खास अहम है। क्योंकि राज्य की अर्थव्यवस्था कृषि प्रधान है और इसकी अधिकांश आबादी गाँवों में रहती है। उन ग्रामीण क्षेत्रों में खादी एवं ग्रामोद्योगी गतिविधियों के लिए व्यापक अवसर एवं संभावनाएं हैं, क्योंकि इस कार्य में सरल तकनीक एवं न्यूनतम पूँजी निवेश की आवश्यकता होती है। विशेष रूप से समाज के कमजोर वर्गों और महिलाओं के बीच रोजगार पैदा करने की इसमें क्षमता है। इसलिए मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की अगुवाई वाली बिहार सरकार ने खादी एवं ग्रामोद्योग प्रक्षेत्र के विकास पर पूरा ध्यान दिया है। वर्तमान में बिहार में कुल 82 खादी संस्थाएँ कार्यरत है, जिन्हें वित्तीय लाभ प्रदान करने के लिए बिहार राज्य खादी ग्रामोद्योग बोर्ड के माध्यम से करीब 44 करोड़ रूपये की लागत से खादी पुर्नरूद्धार योजना शुरू की गई है। इस योजनान्तर्गत नई तकनीक से विकसित हजारों मल्टी काउन्टर त्रिपुरारी माडल, न्यू माडल एवं कटिया चरखा का वितरण खादी संस्थाओं के बीच किया गया है। साथ ही उन्हें कार्यशील पूंजी भी उपलब्ध करायी जा रही है।
खादी एवं ग्रामोद्योग क्षेत्र के समग्र विकास और ग्रामीण जनता को सतत रोजगार करने के लिए खादी कारीगर की उत्पादकता और प्रतिस्पर्धात्मकता को बढ़ावा दिया जा रहा है। खादी बोर्ड संस्थाओं के लिए सुविधा प्रदाता की भूमिका निभाने के साथ-साथ उनके उत्पादों के बेहतर विपणन के लिए मार्ग दर्शक का भी काम कर रहा है। बिहार राज्य खादी बोर्ड द्वारा पटना में निर्मित ’’खादी मॉल’’ ने कोरोना काल की मंदी के बावजूद रिकाड बिक्री दर्ज की है। खादी मॉल, पटना की सफलता से प्रेरित होकर उद्योग मंत्री सैयद शाहनवाज हुसैन ने राज्य के नौ अन्य बड़े शहरों में भी खादी मॉल बनाने का आदेश दिया है। गया, पूर्णिया, मुजफ्फरपुर, दरभंगा, भागलपुर और छपरा में मॉल निर्माण की दिशा में कारवाई प्रारंभ कर दी गई है।
खादी एवं ग्रामोद्योग इकाइयों को कलस्टर आधारित पद्धति से सार्वजनिक सुविधा देने के लिए मुख्यमंत्री कलस्टर योजना के तहत मधुबनी के राजनगर प्रखंड में सामान्य सुविधा केन्द्र का निर्माण प्रस्तावित है। इस केन्द्र में कच्चे माल, धागे की उपलब्धता, कौशल उन्नयन के लिए प्रशिक्षण, गुणवत्ता नियंत्रण, जाँच सुविधाएँ, विपणन संवर्धन, रंगाई-छपाई, पैकेजिंग तथा डिजाइन इत्यादि की सुविधा दी जायेगी। बोर्ड द्वारा खादी उत्पादों को ’’बिहार खादी’’ नाम के अधीन बेचने की पहल की गई है और उपभोक्ताओं के हर वर्ग तक पहुँच बनाने के लिए बिहार खादी का अपना ई-कामर्स प्लेटफार्म विकसित किया गया है। पटना में एक आकर्षक ’’मोबाईल-सेल्स-वैन’’ की सेवा प्रारंभ की गई है, जिसके माध्यम से खादी और ग्रामोद्योग उत्पादों की बिक्री की जा रही है। बोर्ड निरन्तर प्रयासरत है कि अपने ब्रान्ड संवर्धन, गुणवत्ता नियंत्रण और मानकीकरण की निविष्टयों के समुचित उपयोग के माध्यम से प्रतिस्पर्धी मूल्य पर गुणवत्तायुक्त उत्पादों को ग्राहकों तक पहुँचा सके। इसके लिए राज्य के कतिनों और बुनकरों को डिजाइन, रंगाई और छपाई का प्रशिक्षण दिया जा रहा है ताकि वे बाजार की मांग के अनुरूप खादी वस्त्रों का उत्पादन कर सकें।
उम्मीद है कि विगत वर्षों के दौरान प्रारंभ की गई। इन नई योजनाओं के कारण बिहार का खादी एवं ग्रामोद्योग क्षेत्र सफलता की नई ऊँचाइयों को छुएगा और आने वाले वर्षों में रोजगार सृजन के क्षेत्र में सराहनीय भूमिका निभायेगा।