कृष्ण खन्ना: सौ वर्षों की कलायात्रा

5 जुलाई 1925 को लायलपुर (अब पाकिस्तान में फै़सलाबाद) में जन्मे कृष्ण खन्ना भारतीय आधुनिक कला के उन विलक्षण हस्ताक्षरों में से हैं, जिन्होंने कला को केवल चित्रण नहीं, बल्कि एक सामाजिक और संवेदनात्मक वक्तव्य के रूप में देखा। आज, जब वे अपने जीवन का शतक पूरा कर चुके हैं, यह अवसर केवल उनके दीर्घायु होने का उत्सव नहीं, बल्कि भारतीय कला की उस जटिल यात्रा का स्मरण भी है, जिसकी अनेक दिशाएँ उन्होंने स्वयं निर्मित कीं।

कृष्ण खन्ना का कलात्मक जीवन प्रगतिशील कलाकार समूह (Progressive Artists’ Group) के बाद के दौर में भारतीय कला के पुनर्निर्माण से जुड़ा रहा है। उन्होंने बंबई में बैंक की नौकरी करते हुए भी चित्रकला को न केवल जीवित रखा, बल्कि उसमें सामाजिक यथार्थ और मानवीय पीड़ा के रंग भरते रहे। उनकी कला किसी एक शैली तक सीमित नहीं रही — वह अमूर्तन, प्रतीकात्मकता और सामाजिक यथार्थ के बीच संवाद रचती रही।

उनकी सबसे उल्लेखनीय शृंखलाओं में “बैंडवाले” (Bandwallahs) की चित्रमालाएँ हैं, जो भारतीय उपनगरों की गूंजती हुई सांस्कृतिक ध्वनियों को दृश्य में बदल देती हैं। ये चित्र न केवल दृष्टिगत सौंदर्य से भरपूर हैं, बल्कि श्रमशील वर्गों की गरिमा और सामाजिक व्यंग्य को भी चित्रित करते हैं। इसी तरह, उनकी महाभारत-प्रेरित चित्रकला, जैसे “The Game II”, पौराणिक कथाओं को समकालीन राजनीतिक संदर्भों में ढालने का असाधारण प्रयास है।

उनकी कला में वर्ण और रूप का प्रयोग अत्यंत गहन है — एक ओर चमकीले रंगों से जनजीवन का उत्सव रचते हैं, वहीं दूसरी ओर तीव्र रेखाओं और छायाओं से सामाजिक टकरावों की कथा कहते हैं। कृष्ण खन्ना के चित्रों में हमें एक ऐसा दृष्टिकोण मिलता है जिसमें भारतीय जीवन का जटिल यथार्थ भी है और एक मानवीय आदर्श की खोज भी।

उन्होंने न केवल भारतीय बल्कि वैश्विक कलाजगत में भी अपनी विशिष्ट पहचान बनाई। उनकी कृतियाँ लंदन, न्यू यॉर्क और बर्लिन जैसे कला केन्द्रों में प्रदर्शित हो चुकी हैं। उन्हें पद्मश्री (1990) और पद्मभूषण (2011) जैसे उच्च राष्ट्रीय सम्मानों से सम्मानित किया गया, जो उनके कला में योगदान की व्यापक स्वीकृति का प्रमाण हैं।

आज, कृष्ण खन्ना केवल एक कलाकार नहीं, बल्कि एक द्रष्टा हैं — जिन्होंने विभाजन, शहरीकरण, वर्गभेद और सांस्कृतिक संक्रमण को अपनी चित्रभाषा में आत्मसात किया है। सौ वर्ष की यह यात्रा केवल जीवन की नहीं, बल्कि भारतीय कला के आत्मबोध की यात्रा भी है, जिसमें कृष्ण खन्ना जैसे कलाकार हमारे मार्गदर्शक रहे हैं।

उनकी कला हमें यह स्मरण कराती है कि रंगों की सबसे बड़ी शक्ति दृश्य सौंदर्य में नहीं, बल्कि अदृश्य संवेदना को स्वर देने में होती है।

स्रोत : chatgpt

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