विगत 25 जनवरी को गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर वर्ष 2023 के पद्म पुरस्कारों की घोषणा की गई। इस बार इसके तहत 6 पद्म विभूषण, 9 पद्मभूषण एवं 91 पद्मश्री पुरस्कार दिए जाएंगे। इन 106 पुरस्कृत होने वालों में 19 महिलाएं भी हैं, वहीं मरणोपरांत मिले पुरस्कारों की संख्या 7 हैं। पुरस्कारों की इस सूची में बिहार से जो तीन नाम हैं उनमें पेपर मैसी शिल्प के लिए मिथिलांचल की सुभद्रा देवी एवं वस्त्रशिल्प के लिए कपिल देव प्रसाद शामिल हैं। विदित हो कि नालंदा जिले का बसवन बिगहा गांव अपने बावन बूटी वस्त्र शिल्प के लिए प्रसिद्ध है। माना जाता है कि यहां यह परंपरा सदियों से यहां चली आ रही है। इतिहास में हमें मगध की बौद्धिक एवं सांस्कृतिक समृद्धता की भरपूर चर्चा मिलती है। इसीलिए इस वस्त्रशिल्प परंपरा को बौद्ध काल से भी जोड़ के देखा जाता है। बहरहाल अठ्ठारहवीं सदी की औद्योगिक क्रांति का खामियाजा हमारे हस्तशिल्प को कितना और किस रूप में भुगतना पड़ा है, इस तथ्य से हम सभी भली-भाति अवगत हैं। किन्तु इन सबके बावजूद नालंदा स्थित बुनकरों के इस गांव यानी बसवन बिगहा ने इतिहास में वर्णित इस कला को जिन्दा रख रखा है। कपिल देव प्रसाद के परिवार में इस परंपरा के शुरूआत का श्रेय उनके दादा दादा शनिचर तांती को जाता है। उनके बाद कपिलदेव के पिता हरि तांती ने इस सिलसिले को आगे बढ़ाया। कपिलदेव प्रसाद ने अपने पुरखों की इस परंपरा को अपने किशोरावस्था में ही रोजगार का जरिया बना लिया। आज वे युवाओं को इसकी ट्रेनिंग देकर स्वरोजगार के अवसर उपलब्ध करा रहे हैं।
कपिलदेव प्रसाद को पद्मश्री पुरस्कार के लिए चयनित होने की घोषणा के उपरांत बिहार म्यूजियम, पटना के वर्तमान अपर निदेशक अशोक कुमार सिन्हा ने अपने उद्गार इन शब्दों में व्यक्त किया -:
‘बावन बूटी शिल्प के मरणासन्न अवस्था में होने की चर्चा के बीच उसके मुख्य बुनकर कपिलदेव प्रसाद को पद्मश्री सम्मान देने की भारत सरकार की घोषणा राहत देने वाली है। विगत एक दशक से कपिलदेव प्रसाद जी से मेरा निकट का संबंध रहा है और इस दौरान मैंने उन्हें बावन बूटी के लिए निरंतर संघर्षरत देखा है। मुझे उम्मीद और विश्वास है कि पद्मश्री सम्मान से उनके अभियान और संघर्ष का सार्थक परिणाम निकलेगा । मेरा मानना है कि कपिलदेव जी प्रसाद जैसा सामान्यजन लेकिन अपनी कला के लिए समर्पित बुनकर को पद्मश्री सम्मान से उस सम्मान की विश्वसनीयता भी बढ़ी है।’
विदित हो कि अशोक सिन्हा उपेन्द्र महारथी शिल्प संस्थान, पटना के सेवानिवृत निदेशक भी हैं। अपने कार्यकाल में बिहार की लोककला एवं हस्तशिल्प के संरक्षण और संवर्द्धन के लिए देश भर में जाने जाते हैं। लोक-कलाकारों एवं हस्तशिल्पियों से अपने कार्यकाल में जो आत्मीयता उन्होंने विकसित की, वह आज भी बरकरार है। यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि खास तरह के एक जैसे 52 टांकों की यह कला बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के गृह जिले नालंदा के गांव बसवन बिगहा की विशेष पहचान हैं। आज इस ऐतिहासिक गांव के निवासी कपिल देव प्रसाद की देश में विशेष पहचान इसलिए भी है, कि उन्होंने बाप-दादा से सीखे हुनर को लोगों में बांटकर रोजगार का एक सशक्त माध्यम विकसित कर दिया। बावन बूटी मूलत: एक तरह की बुनकर कला है। सूती या तसर के कपड़े पर हाथ से एक जैसी 52 बूटियां यानि मोटिफ टांके जाने के कारण इसे बावन बूटी कहा जाता है। इन बूटियों में बौद्ध धर्म-संस्कृति के प्रतीक चिह्नों की बहुत बारीक कारीगरी होती है। विदित हो कि भगवान बुद्ध के परिनिर्वाण के बाद भी अरसे तक बौद्ध धर्म में बुद्ध की प्रतिमाओं का चलन शुरु नहीं हुआ था। ऐसे में बुद्ध से जुड़े जिन प्रतीक चिन्हों को आरंभिक दौर में अपनाया गया, वह थे धर्मचक्र, बोधिवृक्ष, कमल और बौद्ध स्तूप। बावन बूटी में कमल का फूल, बोधि वृक्ष, बैल, त्रिशूल, सुनहरी मछली, धर्म चक्र, खजाना, फूलदान, पारसोल और शंख जैसे प्रतीक चिह्न ज्यादा मिलते हैं। वैसे तो इन दिनों बाजार में बावन बूटी की साड़ियां सबसे ज्यादा डिमांड में रहती हैं, किन्तु पुराने जानकारों का कहना है कि पहले बावन बूटी वाले चादर और पर्दों का चलन कुछ ज्यादा ही था। इस विधा को देश के प्रथम राष्ट्रपति भारत रत्न डॉ. राजेंद्र प्रसाद का विशेष संरक्षण और प्रोत्साहन भी मिला था। राष्ट्रपति के तौर पर अपने कार्यकाल में उन्होंने अपने निवास में इस शिल्प से निर्मित परदों को अपनाया। यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि बिहार की लोककला और हस्तशिल्प को दुनिया भर में पहचान दिलाने में पद्मश्री उपेंद्र महारथी का विशेष योगदान रहा है। इस बावनबूटी शिल्प से जुड़े बुनकरों को भी उपेंद्र महारथी का सहयोग मिला। इन्हीं कारणों से कुछ वर्ष पूर्व जब राष्ट्रीय आधुनिक कला दीर्घा, नयी दिल्ली में जब उपेंद्र महारथी पर विशेष प्रदर्शनी का आयोजन किया गया, तब इस शिल्प से बने वस्त्रों को भी यहाँ विशेष रूप से प्रदर्शित किया गया था।
जो चीजें इस वस्त्रशिल्प परंपरा को विशेष बनाती है वह है, इसकी बुनावट। इस शिल्प को हथकरघे के खड़े तानों से तैयार किया जाता है। बुनकर इसके बाना पर अपनी कारीगरी दिखाते हैं। मूल भाव को उत्पाद में एक अतिरिक्त बाना देकर व्यक्त किया जाता है। इसमें 6 गज लम्बी साड़ी, चादर व पर्दे पर सौन्दर्यबोध के लिए 52 भावों को उकेरा जाता है। इस कला से जुड़े बुनकरों का मानना है कि बावन शब्द की जड़े भारतीय वांग्मय में है। जहां भगवान विष्णु के वामन अवतार का जिक्र है। इस अवतार में उनका आकार मात्र 52 ऊंगलियों का था, किन्तु अपने तीन डग से उन्होंने पूरे ब्रह्माण्ड को माप लिया था। अपने प्रारंभिक दिनों को याद करते हुए कपिलदेव प्रसाद एक स्थानीय अखबार के संवाददाता को बताते हैं-
“उस वक्त बिहार शरीफ स्थित नवरत्न महल में सरकारी बुनकर स्कूल खुला था। यह स्कूल हाफ टाइम था, जहां नियमित पढ़ाई जारी रखते हुए बच्चे बुनकरी सीखते थे। 1990 में स्कूल बंद हो गया तो बसवन बिगहा प्राथमिक बुनकर सहयोग समिति का गठन किया गया। यह समिति बेरोजगारों को प्रशिक्षण देकर उन्हें स्वरोजगार के लिए प्रेरित करती है। आत्मनिर्भर भारत अभियान से जुड़कर लोग आज भी इसका ज्यादा फायदा उठा रहे हैं। पिछले साल बावन बूटी साड़ी को जीआई टैग मिलने की प्रक्रिया शुरू होने पर इसकी चर्चा खूब हुई थी, लेकिन असल समस्या अब भी कायम है कि बड़े बाजारों में हजारों रुपए में बिकने वाली इस कारीगरी के लिए इसके कारीगरों को उचित मेहनताना नहीं मिल पाता है। मशीनी कपड़ों के बाजार में बावन बूटी की जानकारी कम ही लोगों को थी, लेकिन उम्मीद है पद्मश्री पुरस्कार के साथ अब यह पूरे देश में खोजा जाएगा।”
जाहिर है आज पूरा बिहार कपिलदेव प्रसाद की इस उपलब्धि पर गौरवान्वित है। आलेखन डॉट इन और इसके पाठकों की तरफ से कपिलदेव जी को हार्दिक बधाई एवं शुभकामनायें …