पुरस्कृत कलाकृतियों पर विवरणात्मक टिप्पणी
अभिप्सा प्रधान
अभिप्सा की ‘जर्नी 58’ शीर्षक कलाकृति केवल एक जटिल डिजाइन वाले परिदृश्य (लैंडस्केप) के माध्यम से रची गयी एक यात्रा भर नहीं है, बल्कि यह भारत के आदिवासी कला रूपों के माध्यम से सृजित एक यात्रा वृतांत है। अत्यधिक सरलीकृत छवियों वाली इस जटिल पेंटिंग के केंद्र में एक विंटेज कार को बतौर केंद्रीय छवि इस्तेमाल किया गया है, इस तरह से इस कलाकृति में कोई भी कला प्रेमी दर्शक समकालीन और पौराणिक दोनों तरह की कई अन्य दुनियाओं को एक साथ मौजूदगी देख सकता है। इस दुनिया में इंसानों को न्यूनतम आकृतियों के रूप में चित्रित किया गया है जैसा कि वर्ली चित्रों में हम देखते हैं। कलाकृति की अग्रभूमि लोक प्रदर्शनों और लोक जीवन से भरी हुई है। मध्य मैदान पर एक पुरानी कार है जिसमें मंदिर के जुलूसों के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले पारंपरिक घोड़ी नृत्य वाली पुतलियां हैं। पृष्ठभूमि में दर्शक घाटियों और पहाड़ियों में किसी नए उपनगर को बसते हुए देख सकते हैं। आकाश में एक ही समय में विमानों और हनुमान का कब्जा है। इस तरह प्रधान अपनी खास शैली में इन छवियों के माध्यम से किसी कार्निवल की दृश्यावली प्रस्तुत करती हैं।
आकाश बिस्वास
‘द कोरल’ शीर्षक वाली यह कृति पानी के नीचे की दुनिया के प्रति कलाकार आकाश बिस्वास के गहरे लगाव को दर्शाती है, जिससे वह बचपन से परिचित रहे हैं। अंडमान में जन्मे और पले-बढ़े इस कलाकार की कलात्मक संवेदनाओं को विकसित करने में समुद्र की बहुत बड़ी भूमिका रही है। इस कलाकृति की प्रत्येक छवि दर्शाती है कि एंथ्रोपोसीन के मानव-केंद्रित युग ने सभी प्रकार के जीवित जीवों को कैसे प्रभावित किया है। महामारी ने इंसानों के लिए खतरा पैदा कर दिया था, लेकिन सच तो यह है कि मनुष्य स्वयं अन्य जीवन रूपों के लिए वायरस की तरह हो चला है। बिस्वास ने इस विडंबना को अपनी कलाकृति में बखूबी निरूपित किया है, जहां वह मूंगों की चट्टानों को बहुत सारी अज्ञात विभिन्न प्रजातियों के आवास के रूप में देखते हैं।
अनामिका सिंह
‘डिस्टॉरशन ‘ यानि विरूपण हमारे जीवन का एक अंग है। इसका मतलब यह नहीं है कि किसी चीज़ को उसकी पूर्णता या परिभाषा से बाहर धकेल दिया जाए। विरूपण एक परिप्रेक्ष्य मुद्रा है जहां किसी वस्तु, व्यक्ति या घटना के दैनिक अर्थों को सूक्ष्म निरीक्षण से गुजरना पड़ता है ताकि नए अर्थ निकाले जा सकें। अनामिका सिंह के काम में ‘विरूपण’ एक बहु स्तरीय धारणा है जहां पुरुष और महिला संबंधों के साथ-साथ उसके भौतिकवादी और पारलौकिक गुणों की जांच की जाती है। वस्तुओं और नक्शों को कई स्तरों पर एक दूसरे से जोड़ा जाता है ताकि यह संबंध एक मौलिक परत बन जाए और दर्शकों को कलाकृति को करीब से देखने के लिए बाध्य कर दे।
अनस सुल्तान
“मेटामॉरफोसिस” यानी कायापलट एक ऐसा शब्द है जो उस प्रक्रिया के साथ-साथ उसके बाद के स्वरुप को दर्शाता है। अर्थात् यहाँ एक साथ दो स्वरुप अस्तित्व में हैं; पहला, अपने पिछले अस्तित्व की यादें और दूसरा, अपने वर्तमान अस्तित्व के बारे में जागरूकता। सुल्तान की ‘मेटामोर्फोसिस XI’ शीर्षक कलाकृति इस बनने की प्रक्रिया और बन जाने को दर्शाती है। अस्तित्वगत अर्थ में, इस अमूर्त कार्य में भौतिक उपस्थिति के रूप में इसके अस्तित्व की परतें हैं, लेकिन इसके रूपांतरित अर्थ में, इसमें एक गैर-भौतिक तब्दलील की विलक्षण उपस्थिति है। ऐसा प्रतीत होता है कि कलाकार उस भावना के सार तत्व को पकड़ने की कोशिश कर रहा है जिसमें से सामग्री को सौंदर्य संबंधी कारणों से मिटा दिया जाना है।
आरती पालीवाल
एक कुशल सिरेमिक कलाकार पालीवाल प्रकृति और संस्कृति जैसे दो बिंदुओं को मिलाकर कलाकृतियां रच रही हैं, इस क्रम में वह अपनी कलाकृतियों में अपने आलोचनात्मक धार को बरकरार रखते हुए उसे अपने तरीके से प्रस्तुत करती हैं। सिरेमिक कला की सीमाओं को पार करते हुए, चाहे वह कार्यात्मक हो या सजावटी, आरती इसके सौंदर्यवादी पक्ष पर विशेष प्रकाश डालती हैं। हालाँकि, वह अपने काम से आसन्न कार्यात्मक संभावनाओं को नहीं मिटाती है। एक बड़े आकार के कप के अंदर प्रकृति का सम्मिश्रण प्रस्तुत करती हैं, जो घरेलू आराम का प्रतीक है, वह इसकी तुलना चारों ओर बढ़ते ऊँचे भवनों की संरचना के साथ करती हैं, आज की समकालीन वास्तविकता के प्रतिनिधित्व के तौर पर, जहां बेदाग प्रकृति के साथ अपने ही बच्चों द्वारा अतिक्रमण जारी है।
भाऊराव बोडाडे
भाऊराव बोडाडे की ‘शीर्षकहीन’ कलाकृति को कला की परिभाषा की सीमाओं के भीतर समाहित नहीं किया जा सकता है। स्वतंत्रता और पारलौकिक अस्तित्व की खोज में बोडाडे की शीर्षकहीन यह कलाकृति सामग्री और अर्थ को उपस्थिति की एक इकाई में समेट देती है। यह दर्शकों से उनके सौंदर्य संबंधी अवधारणाओं से अनुभवात्मक समानताएं निकालने की मांग करता है। यदि भावना कला के किसी कार्य का अंतिम परिणाम है, तो यह यहाँ बोडाडे की कलाकृति में यह मौजूद है। एक ओर यह उच्च परिप्रेक्ष्य से देखी जाने वाली रंगीन भूमि में बसने की भावना पैदा कर सकता है और दूसरी ओर यह पहले से अनुभव किया गया प्रतीत हो सकता ह। दरअसल यह इस एक कलाकृति में सन्निहित अनुभवात्मक स्मृतियों की एक श्रृंखला है।
चुगुली कुमार साहू
साहू का मूर्तिशिल्प आशा और उम्मीद से भरा हुआ है। मूर्तिशिल्पों में अर्थ निर्माण की प्रक्रिया में अपने परिवेश को समाहित करने की प्रवृत्ति होती है। किसी परिदृश्य या गैलरी में स्थापित, साहू के मूर्तिशिल्पों का उद्देश्य विशालता की भावना को प्रकट करना रहा होगा। पहने गए फ्रॉक और बाल संवारने की शैली से स्पष्ट होता है कि ये सभी चौदह किशोरियां अपने हाथ हवा में ऊपर उठाये हुए एक समूह में खड़ी हैं। स्पेनिश कलाकार गोया की पेंटिंग के विपरीत, यहाँ यह हाथ उछालना भय और आतंक को व्यक्त करने के लिए नहीं है। इसके बजाय साहू लड़कियों के हाथों को एक शाखा से उगने वाले पत्तों या ऊपर उड़ने के लिए तैयार पंखों के जोड़े में बदल देते हैं। अंकुरित होती हुयी या उड़ती हुई ये लड़कियाँ यहाँ आशा और स्वतंत्रता का प्रतिनिधित्व करती हैं। शायद कलाकार अपने इस मूर्तिशिल्प के माध्यम से बालिका शिक्षा को लेकर मौजूदा सरकार की नीतियों को दर्शा रहा है।
दीपक कुमार
‘लाइफ ऑफ माई मदर’ यानी मेरी मां का जीवन कलाकार की तरफ से हर उस मां के लिए श्रद्धा निवेदन है जो अपने परिवार के कल्याण के लिए रोजबरोज बलिदान देती रहती है। दीपक कुमार के इस जल रंग माध्यम की कलाकृति के विस्तृत विवरणों को समझने के लिए बारीकी से अध्ययन करने की आवश्यकता है, जिसे उन्होंने विशिष्ट हरियाणवी पोशाक पहने हुए अपनी आदरणीय माता जी की छवि को दर्शाने के लिए बनाया है। भारतीय परंपरा के अनुरूप, वह अपने परिवार की देखभाल करने वाली और पालन-पोषण करने वाली है। वह परिवार के प्रति अपने लगन और समर्पण से बनाए गए किले में खड़ी है, जिसके चारों तरफ एक भूलभुलैया सा बना हुआ है। कैनवास के पार्श्व में बने बुलबुलों में दिन भर के कामकाज के दौरान उनके विभिन्न रूप देखे जा सकते हैं। इस कलाकृति में कलाकार जहां अपनी मां के बलिदानों को याद करते हुए, उन्हें एक प्रतिष्ठित दर्जा देता है, वहीं वह सूक्ष्मता से ऐसे सामाजिक ताने-बाने की आलोचना भी करता है, जहां समाज द्वारा प्रतिष्ठित मातृत्व किसी महिला के नारीत्व के लिए एक बंधन बन जाता है।
दीपक कुमार
विकास एक अंतहीन प्रक्रिया है। यह युगों-युगों तक चल सकता है। ऐसे में ये सवाल सामने आता है कि हम कर क्या रहे हैं और ये सब हमें कहां ले जा रहा है। गौगुइन ने ये सवाल अलग तरीके से पूछा था। उनका पहला सवाल था: हम कौन हैं? आज हम जानते हैं कि हम कौन हैं। लेकिन बाकी अन्य प्रश्न अनुत्तरित हैं। दीपक कुमार की पेंटिंग में जवाब के बजाय यही सवाल एक बार फिर से खड़े किए गए हैं। ढांचागत विकास और बढ़ती शहरी आबादी के बीच एक हिरन खड़ा है और वह पीछे मुड़कर दर्शकों की ओर देख रहा है। हिरन यहाँ मात्र एक हिरन नहीं बल्कि एक प्राणी है, और प्राणी की इस विस्तृत परिभाषा में यहाँ मनुष्य भी शामिल हैं। विकासवादी विचारधारा के बीच फंसकर, यह वहीं खड़ा-खड़ा, धीमी गति से एक कंकाल में तब्दील होता जा रहा है; जो अंततः आने वाली पीढ़ियों के आश्चर्य की एक वस्तु बनकर आनेवाले दिनों में किसी संग्रहालय में कैद दिखेगा।
जान्हवी खेमका
उस दुनिया से कैसे निपटें जो आपकी बात नहीं सुनती या जहाँ तक आपकी आवाज नहीं पहुंचती? हो सकता है कि खेमका यह सवाल नहीं पूछ रही हो, बल्कि वह खुद को एक सुनने और बोलने में अक्षम व्यक्ति होने के अनुभव में डुबो लेती है, और एक ऐसे संवेदनहीन दुनिया से निपटती है, जो ध्वनि और रोष पैदा करती है, जिसका उस दिव्यांग के लिए कोई मतलब नहीं है। खेमका का वीडियो इंस्टॉलेशन ‘सपना’ एक दिव्यांग व्यक्ति होने के उनके डर और चिंताओं के बारे में है। यहाँ डर आकाशीय बिजली और उसकी गड़गड़ाहट के रूप में सामने आते हैं और अंत में यह उस दिव्यांग तक पहुँचते हैं, लेकिन वह केवल उन दृश्यों को देखती रहती है जो एक तरह से हास्यास्पद हो जाते हैं। बुनुएल की फिल्म की तरह, डर को आँखों से देखा जाता है, यहाँ तक कि इस प्रक्रिया में दृष्टि आंशिक रह जाती है क्योंकि नायक की एक आँख चली जाती है; बंध्याकरण और सिर काटने के प्रतीक के बतौर।
किरण अनिला शेरखाने
‘एलिमेंट्स ऑफ लाइफ’ यानी जीवन के तत्व शीर्षक अपनी कलाकृति में शेरखाने कल्पना की उड़ान भरते हैं और जीवन को कई दृष्टिकोणों से देखते हैं; और यह देखना उनकी छवियों में विभिन्न सुविधाजनक बिंदुओं से अनुभव किया जा सकता जो दर्शकों को उनके कलात्मक इरादे को समझने और व्याख्यायित करने में मदद भी करती है। यह पाँच लोगों की एक पारिवारिक इकाई है जहाँ बीमार व्यक्ति को अन्य सदस्यों द्वारा कसकर पकड़ रखा गया है और इस तरह से उनकी जीवन रेखा को क्षीण होने से बचाये रखा जा रहा है। वहीँ इसमें शामिल एक दूसरा व्यक्ति इस सूक्ष्म सामाजिक इकाई के संतुलन की जाँच करता है जिसे परिवार कहा जाता है। एक के हाथ में रोशनी के लिए एक लालटेन है और ये पूरा समूह पिता और माता द्वारा समर्थित है, ये आकृतियाँ बीच में तीन अन्य आकृतियों के पार्श्व में हैं। एक तरफ दुनिया आशावादी है जैसा कि स्वस्थ पेड़ में दिखाया गया है, दूसरी तरफ यह निराशाजनक रूप से शुष्क और सूख रही है जैसा कि आदमी के कंधे के ऊपर उल्टे ग्लोब में देखा जा सकता है जहां एक पक्षी पानी की एक बूंद के लिए उत्सुकता और बेसब्री से इंतजार कर रहा है।
कुमार जिगीशू
‘अनटाइटल्ड इमोशन्स’ यानी शीर्षकहीन भावनाएं शीर्षक कलाकृति एक डिजिटल फोटोग्राफिक प्रिंट है जो एक संग्रहालय के अंदर एक युवा लड़की द्वारा उसके चिंतन के एक मार्मिक क्षण को दर्शाता है। जिगीशु ने इस निर्णायक क्षण को अपने कैमरे में कैद किया है क्योंकि हो सकता है कि पौराणिक देवी या देवता की इस प्रतिमा के सामने आने से ठीक पहले यह बालिका बहुत प्रसन्नचित्त रही होगी या शायद वह वहां प्रदर्शित प्रदर्शों के बारे में बिल्कुल भी उत्सुक नहीं होगी। कांच की सतह पर बने कई प्रतिबिंब इस फोटोग्राफ को रहस्यमय बनाती है और बालिका का प्रतिबिंब उसके आंतरिक ‘प्रतिबिंब’ के पहलू को उद्घाटित कर देता है। इस बिंदु पर उसका प्रतिबिम्ब वह प्रदर्शित वस्तु के साथ एकाकार हो जाता है और यह फोटोग्राफ्स एक तरह से भारतीय संदर्भ में लड़कियों के देवत्व और वास्तविक दुनिया में उनके विडंबनापूर्ण अस्तित्व के विरोधाभास को बखूबी बयां करता है। कुल मिलाकर ऐसा लगता है कि लड़की के चेहरे पर मिश्रित भावनाएं परिलक्षित हैं।
महेंद्र प्रताप दिनकर
आधुनिकतावादी मूर्तियां रूप और संतुलन के साथ अठखेलियां करती हैं; जाहिर है यहाँ रूप उस संतुलन के अनुरूप होना चाहिए जो अपने आपको एक कला वस्तु के रूप में प्रकट करता है। अक्सर स्थानिक जटिलताएँ या मूर्तियाँ अपने परिवेश के साथ भी अच्छा संतुलन बनाती हैं। दिनकर ने ‘प्रकृति संतुलन-2’ नामक इस कृति में दो रूपों की रचना की है जो रूप और रंग दोनों में एक-दूसरे को संतुलित करते हैं। यहाँ आधार के तौर पर व्यवहृत आकृति लाल बलुआ पत्थर से बना है और इसके ऊपर की संतुलित आकृति को काले संगमरमर में गढ़ा गया है। यह अद्भुत संयोजन इस मूर्तिशिल्प को अत्यधिक दृश्य अपील के साथ एक बेहतरीन आधुनिकतावादी मूर्तिकला में परिणत कर देता है।
नागेश बालाजी गाडेकर
डायोजनीज, जिन्हें सिनोप के डायोजनीज भी कहा जाता है, एक यूनानी दार्शनिक और निंदकवाद के संस्थापकों में से एक थे। यह तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व का दौर था, डायोजनीज दिन के दौरान एक जलती हुई मोमबत्ती के साथ सड़कों पर घूमते रहते थे। जब उनसे पूछा गया तो उन्होंने कहा कि वह एक ईमानदार आदमी की तलाश में हैं। कुछ इसी तरह गाडेकर भी यहाँ ईमानदार आदमी की तलाश में हैं, लेकिन इस बार वह आदमी वह खुद हैं। मैं कौन हूं, यह सवाल अक्सर उन लोगों द्वारा पूछा जाता है जो अस्तित्व संबंधी उलझन में हैं। इस सवाल का जवाब ढूंढना बहुत मुश्किल है क्योंकि हर कदम पर इंसान एक नया इंसान बनता है। जैसा कि हेराक्लीटस कहता है, कोई एक ही नदी में दो बार डुबकी नहीं लगा सकता। क्योंकि अगले ही पल वह नदी वही नदी नहीं रह जाती, कुछ ऐसा ही मनुष्य के साथ भी होता है। हाथ में पोर्टेबल लैंप लिए बिना सिर वाला यह आदमी अपना असली चेहरा खोजने की कलाकार की दुश्चिंता को दर्शाता है। उसके पास अलमारियों में चुनने के लिए चेहरे के कई विकल्प हैं लेकिन वे सभी किसी अन्य के चेहरे हैं। यहाँ कलाकार को अपना खुद का चेहरा स्वयं खोजना होगा। और तलाश जारी है।
नरोत्तम दास
नरोत्तम की कलाकृति का शीर्षक है ‘नववधू’ अर्थात नई दुल्हन। परम प्रतीकात्मकता का उपयोग करते हुए दास एक नवविवाहित महिला के सभी उत्सवों और दुविधाओं को यहाँ दर्शाते हैं। घरेलू और शर्मीली मुद्रा में बैठी यह महिला सभी भौतिक संस्कृतियों से घिरी हुई है। उसके तीन मुख हैं; एक जो उसके अतीत, यानी उसके बचपन और उसके माता-पिता के घर की यादों को देखती है, दूसरी वह जो वर्तमान को देखती है और तीसरी वह जो उस भविष्य को देख रही है जो बिल्कुल अनिश्चित है। ये तीन चेहरे उसके जीवन के तीन चरणों का भी प्रतिनिधित्व कर सकते हैं; एक लड़की के रूप में, एक माँ के रूप में और एक बूढ़ी औरत के रूप में। वह धर्म और समसामयिक विकास से घिरी हुई है; जैसा कि साथ में जगन्नाथ मंदिर और बहुमंजिला इमारतों द्वारा दर्शाया गया है। उसकी तरफ, घरेलू कामकाज और नियमों में उसकी भविष्य की कैद का प्रतीक बहुत सारे पिंजरेनुमा घर देखे जा सकते हैं।
पंकज कुमार सिंह
प्रकृति और प्रकृति की अनिश्चिंतता ऐसी दो अलग-अलग चीजें हैं जो सिंह को उनकी कला के लिए प्रेरित करती हैं। उनका मानना है कि उनकी कला प्रकृति के साथ उनके पूर्ण मिलन से आती है क्योंकि वह खेतों में अपने हाथों से काम करते हैं और पैदल चलते हैं। अपने स्टूडियो में, उनके अनुभव उन्हें घेर लेते हैं और रूपाकारों को बिना बीच में लाये, पूरा अनुभव कैनवस पर अमूर्त आकार ले लेता है। कई बार उन्हें इस बात की परवाह नहीं होती कि वह किस तरह के माध्यम का वे इस्तेमाल करते हैं। उनके इस उदार दृष्टिकोण ने उन्हें अपने कैनवस पर दिलचस्प पैटर्न और संरचनाएं बनाने में मदद की है। ‘ट्रांसफॉर्मेशन ऑफ कॉस्मिक एंटिटी-2’ शीर्षक वाली अपनी मौजूदा कलाकृति में कलाकार खुद को ब्रह्मांड की बड़ी योजनाओं से अपने को जोड़ता है और उस अनुभव को कैनवास पर स्थानांतरित करता है।
पवन कुमार
‘लाइट ऑफ होप II’ शीर्षक कलाकृति अभिलेखीय कागज पर एक फोटोग्राफिक प्रिंट है। वास्तविक जीवन से एक छवि का यह डिजिटल स्थानांतरण दो वास्तविकताओं को दर्शाता है; एक वास्तविकता जिसे कलाकार ने स्वयं और दो अन्य लोगों ने शारीरिक रूप से अनुभव किया है, दूसरी वह वास्तविकता जिसे फोटोग्राफी के माध्यम से स्थानांतरित किया गया है। इन वास्तविकताओं के बीच में एक खाली जगह भी है। इस सीमांत स्थान में ही इस छायाचित्र का अर्थ समाहित है। एक अर्धनिर्मित परित्यक्त इमारत में दो श्रमिकों का घूमना एक प्रकार की अघोषित कैद का ही प्रतीक है। वे इस अधूरे कार्य के बंदी हैं; उन्हें तत्काल परिश्रम से राहत तो मिल गई है लेकिन काम अभी शुरू नहीं हुआ है, जिसके कारण उनके सामने रोजी रोटी का संकट बरकरार है। चित्रात्मक फ्रेम में रिसने वाली रोशनी इसे एक असली रूप देती है। मजदूरों को उम्मीद है कि एक दिन काम फिर से शुरू हो जाएगा और उनकी जिंदगी की गाड़ी फिर से पटरी पर लौट आएगी।
प्रियम तालुकदार
एक अनजानी नदी में वे अपरिचित जल में नौका अभियान पर निकल पड़ते हैं। चित्र में कहीं कोई नाविक नजर नहीं आ रहा है। लेकिन उनको अहंकार और आत्मविश्वास है कि वे यात्रा के दौरान आने वाली किसी भी बाधा को पार कर सकते हैं। इस बीच एक पौराणिक संरचना सामने आती है जो उन्हें आशा से भर देती है। इस नदी के किनारे एक समानांतर दुनिया पनप रही है जहाँ अलौकिक वनस्पतियाँ उगती हैं। यह वस्तुतः मनुष्य के आत्मसंतुष्टि का प्रभुत्व है, जो उसके अंदर रहना ही चाहिए। लेकिन वे अभी तक इलेक्ट्रॉनिक सर्किट से बने समानांतर ब्रह्मांड की प्रभावशाली उपस्थिति को नहीं देख पाए हैं। अभियानकर्ताओं की नजर दूसरी ओर दिख रहे वनवासियों के गांव पर पड़ती है। वे यह समझने में असफल रहते हैं कि यह महज ध्यान भटकाने वाली बात है। तालुकदार का यह वुडकट प्रिंट अपनी इच्छाओं के वशीभूत हो चुके इस समकालीन दुनिया का एक उत्कृष्ट उदाहरण है।
समा कांता रेड्डी
‘आयरन ब्यूटी’ यहाँ एक व्यंग्यपूर्ण शीर्षक है। इस्तरी एक ऐसा उपकरण है जिसका उपयोग सुंदरता बढ़ाने के लिए कपड़ों पर प्रेस करने के लिए किया जाता है। कोयले से गर्म किया जाने वाला लोहे का यह डब्बा अपने आप में सुंदर है लेकिन इसे सौंदर्य चिंतन के लिए एक सुंदर वस्तु के रूप में नहीं लिया जाता है। इस इस्तरी के भीतर से एक उत्पीड़ित सिर उठता है। यद्यपि इसमें सुनहरी चमक है, आग और कोयले के माध्यम से इसका विकास आकृति की अस्तित्व संबंधी पीड़ा को तीव्र करता है। इसका सीधा संबंध इस्तरी करने वाले व्यक्ति के श्रम और कोयला खोदने के लिए खदानों की गहराई में जाने वाले लोगों से है। रेड्डी का कहना है कि गहराई से निकलने वाली सुंदरता में दर्द का एक लंबा इतिहास है और यह भी मानव इतिहास ही है।
सोमेन देबनाथ
‘नॉस्टैल्जिक मेमोरीज़ II’ एक यंत्रवत् संचालित मूर्तिकला संयोजन है। यह मूर्तिकला का काइनेटिक (गतिज) रूप भी हो सकता है। एक मूर्तिकला जो चलती है और ध्वनि उत्पन्न करती है इसलिए यह ध्वनि के साथ संयोजित एक गतिज मूर्तिकला है। साथ ही, इसका आकार किसी गर्भगृह या पवित्र स्थान जैसा है जहां सृजन की शक्ति निवास करती है। बांस के टुकड़ों से बनी चलती-फिरती आकृतियों से ध्वनि निकलती है जो नियमित अंतराल में एक प्रकार के मंत्रोच्चार की तरह गूंजती है। देबनाथ इसे पुरानी यादें कहते हुए निश्चित रूप से ऐसे उपकरण के बारे में सोच रहे होंगे जिसने उन्हें बचपन में विशेष आकर्षित किया होगा। यह एक ऐसी टाइम मशीन है जो किसी को भी समय में पीछे ले जा सकती है, यहाँ तक कि अपनी माँ के गर्भ में भी, जो दुनिया की सबसे सुरक्षित जगह है।