मगही महोत्सव : सामाजिक सांस्कृतिक बदलाव की पहल

मगध का इतिहास अत्यंत समृद्ध रहा है, ज्ञान, अध्यात्म, धर्म और दर्शन से लेकर कला-संस्कृति के मामले में लगभग अट्ठारह सौ साल तक I उस दौर में इसे दक्षिण एशिया का गौरव बने रहने का अवसर मिला है I ईसा पूर्व मौर्य काल से लेकर बारहवीं सदी तक के पाल काल तक यह सिलसिला चलता रहा I यह तो हुयी इतिहास की बात, किन्तु वर्तमान में हाल के वर्षों में कोई विशेष सामाजिक सांस्कृतिक पहल इस इलाके में नहीं देखी जा रही थी I अपेक्षाकृत भोजपुरी और मिथिलांचल की तुलना में I यूं तो हम बचपन से सुनते आ रहे हैं कि बिहार आंदोलनों की धरती रही है I वैसे ऐतिहासिक दस्तावेज भी इसकी पुष्टि करते नज़र आते हैं I किन्तु अपने उम्र के साठोत्तरी तक आते -आते महसूस करने लगा था कि आन्दोलन जैसे शब्द अब केवल राजनैतिक हथियार बन कर रह गए थे I इसके सामाजिक और सांस्कृतिक पहलू जातीय विभाजन की भेंट चढ़ चुके थे I निःसंदेह यह सब सत्तापोषित था, किन्तु इसके बदलाव के लिए सामाजिक पहल लगभग नदारद था I

देखते-देखते स्थिति यहाँ तक आ पहुंची थी कि अपने महान पुरखों को भी हमने जातीय आधार पर विभाजित कर दिया था I किसी महान योद्धा, सम्राट और साहित्यकार को भी हमने अपनी छद्म जातीय अस्मिता का आधार बनाकर रख दिया था I सामाजिक पहल या आन्दोलन अब जातीय एकता सम्मेलनों में बदल चुकी थी I फैशन सा बन गया था कि अपनी जाति को संगठित करने का नारा दो, और फिर कुछ रैलियों और सम्मेलनों के बाद ; उनके वोट की सौदेबाजी करो I और यह सब करने के बाद अगर सांसदी, विधायकी और मंत्रिपद वगैरह मिल गया तो फिर तो बल्ले-बल्ले I

बाएं से सुमन कुमार सिंह, अशोक कुमार सिन्हा, विनय कुमार और संजीव मुकेश

इस दौर में सिर्फ बिहार में ही नहीं देश के अधिकांश हिस्सों में अपनी-अपनी जाति के नायक के तौर पर अपराधियों के महिमामंडन का क्रेज़ बनता चला गया I जिसकी चपेट में हर समुदाय के युवा आते चले गए I इन स्थितियों को देख सुनकर कितनी भी कोफ़्त होती हो, इससे बचने का रास्ता मुश्किल सा लग रहा था I अलबत्ता इस घनघोर निराशा के दौर में पंजवार का भोजपुरी सम्मलेन और सिताब दियारा में आयोजित होनेवाले भोजपुरी समारोह जैसी पहल कि जानकारी मिलती रहती थी I संयोग से एक बार सिताब दियारा में आयोजित कार्यक्रम में भागीदारी का अवसर भी पी. राज सिंह जी के सौजन्य से मिला I इससे पूर्व “कैनवस” संस्था द्वारा आयोजित “बोधगया बिनाले” जैसे आयोजन में दो बार भागीदारी निभा चूका था I किन्तु एक तो यह कला आयोजन था साथ ही यह अंतर्राष्ट्रीय आयोजन की कोशिश थी I बहरहाल इस बार की अपनी बिहार यात्रा की पहली उपलब्धि अपने शहर बेगुसराय स्थित बिहट में आयोजित “रंग-संगम” में भाग लेने का सुअवसर रहा I इस बीच राष्ट्रीय पुस्तक न्यास द्वारा आयोजित “पुस्तक महोत्सव” में भी दो दिन बिताने और नए-पुराने मित्रों का सान्निध्य मिला I

सहपाठी परमानन्द सिंह एवं भाई मनोज बच्चन के साथ

इसी दौरान भाई रविशंकर उपाध्याय ने “मगही महोत्सव ” के आयोजन में भागीदारी के लिए आमंत्रित किया I रवि भाई से पहला परिचय जब हुआ था उनदिनों वे किसी स्थानीय अख़बार के संवाददाता हुआ करते थे I उसके बाद से सोशल मीडिया के जरिये यह संपर्क बना रहा I उनके अन्दर स्थानीय इतिहास से लेकर पुरातत्व एवं खान-पान के इतिहास को जानने की ललक मुझे बेहद प्रभावित करती रही I बताता चलूँ कि प्रिंट-मीडिया में अपने लगभग तीस साल के सफ़र में बहुत कम ऐसे पत्रकार देखे हैं जिनकी विशेष रूचि इस तरह के विषयों में हो I क्योंकि ज्यादातर युवा पत्रकारों में यह भ्रांतिपूर्ण धारणा घर कर गयी है कि अपराध और राजनीति से जुडी पत्रकारिता ही असली पत्रकारिता है I इससे पूर्व जिस युवा की सक्रियता और पहल से प्रभावित हुआ था, वह हैं निराला विदेशिया I निराला का निरालापन इस बात से जाहिर होता है कि कला एवं संस्कृति के मामले में वे भाषाई और क्षेत्रीय संकीर्णता से ऊपर उठकर सोचते और लिखते रहे हैं I विषयों की विविधता से लेकर वह सभी कुछ उनके पास है, जो किसी सांस्कृतिक पत्रकार के अन्दर होना चाहिए I  इससे भी खास बात मुझे यह लगती रही है कि राजनैतिक पत्रकारिता में सक्षम और सफल होने के बावजूद, उन्होंने सांस्कृतिक पत्रकारिता को न केवल अंगीकार किया I अनेक सफल आयोजनों के भागीदार और सूत्रधार भी रहे हैं I

कार्यक्रम के दिन यानी पांच अप्रैल को देर से यानी दुसरे सत्र तक कार्यक्रम स्थल “बापू टावर” पहुँच पाया I हाल के वर्षों में बिहार में जो उल्लेखनीय संस्थान निर्मित हुए हैं, उनमें सबसे नया है यह बापू टावर I इस तरह से अब पटना में “बिहार म्यूजियम” के अलावा एक और अंतर्राष्ट्रीय स्तर का संस्थान और आयोजन स्थल उपलब्ध है I इस महोत्सव की शुरुआत जिस सत्र से हुयी वह था “मगही भाषा : कल, आज आऊ कल ” I  जिसमें भाग ले रहे थे प्रो. शिवनारायण, डॉ. अतीश पराशर, श्री धनंजय श्रोत्रीय, श्री इश्तेयाक अहमद, सञ्चालन की जिम्मेदारी निभाई श्री निराला बिदेशिया ने I दूसरा सत्र था “मगध के इतिहास , पुरातत्व व विरासत” इस परिचर्चा में शामिल थे प्रो. आनंद वर्धन, श्री सुजीत नयन एवं कुमार निर्मलेंदु, संचालन की ज़िम्मेदारी निभाई रविशंकर उपाध्याय ने I दोपहर बीता मगहिया खान-पान के साथ I

खान पान के बाद जिस तीसरे सत्र की शुरुआत हुयी वह था “मगध में उद्यमिता” इसका सञ्चालन किया श्री उज्जवल कुमार ने और शामिल रहे डॉ. सत्यजीत, डॉ. रवि आर. कुमार, डॉ. राहुल कुमार, डॉ. नीरज अग्रवाल I चौथा सत्र “मगध आऊ सिनेमा ” शीर्षक के अनुसार सिनेमा पर केन्द्रित था जिसके तहत मगही सिनेमा के वर्तमान और संभावनाओं पर बातचीत हुयी I संचालन की ज़िम्मेदारी रही श्री विजेता चंदेल के जिम्मे और प्रतिभाग किया श्री विनोद अनुपम, श्री विकास कुमार, सुश्री अस्मिता शर्मा एवं श्री बुल्लु कुमार I पांचवा सत्र युवाओं को समर्पित रहा और इसका शीर्षक था “मगहिया युवा संवाद” जिसके सञ्चालन की ज़िम्मेदारी विजेता चंदेल के जिम्मे ही रही और प्रतिभागी सुश्री रीतिका राज सिंह, श्री पवन कुमार आ (और) पूजा कुमारी, श्री केशव कुमार आ (और) युगल किशोर थे I साथ ही इस सत्र में उन युवाओं को भी शामिल किया गया जो हाल के वर्षों में सोशल मीडिया पर मगही कंटेंट के जरिये अपनी खास पहचान बना चुके हैं I छठा सत्र ” मगध के लोक संस्कृति आऊ लोक संगीत” को समर्पित था  I सत्र का सञ्चालन श्री संजीव मुकेश के जिम्मे था और प्रतिभाग कर रहे थे, श्री अशोक कुमार सिन्हा, श्री विनय कुमार एवं सुमन कुमार सिंह I संयोग से हम तीनों लोग दृश्य कला से संबंधित थे, इसलिए मेरी समझ से इसमें किसी ऐसे चौथे व्यक्ति की कमी दिखी जो लोक संगीत के अध्येता रहे हों I

सतमा (सातवाँ ) सत्र रहा ” मगही कवि सम्मलेन” के नाम, जिसके तहत श्री संजीव मुकेश, श्री चन्दन द्विवेदी, श्रीमती प्रेरणा प्रताप एवं सुश्री अनमोल कुमारी का कविता पाठ हुआ I आयोजन का समापन जिस सत्र से हुआ वह था “मगही लोक गायन ”  I मंच सञ्चालन श्री चन्दन द्विवेदी के जिम्मे रहा और सुरों कि गंगा को प्रवाहित किया सुश्री चन्दन तिवारी, श्रीमती रोशन कुमारी और श्री जितेन्द्र व्यास ने अपनी सुमधुर स्वर लहरियों से I मेरी व्यक्तिगत राय में सीमित संसाधनों और अन्य चुनोतियों से जूझते हुए हमारे युवा साथियों ने जिस सफलता से इसे आयोजित किया वह काबिले तारीफ तो है ही I भविष्य की उन संभावनाओं का द्वार खोलते दिखी, जिसकी तलाश में हमने हालिया कुछ दशक बिताये हैं I चंद राजनीतिज्ञों की कारगुजारी से जातियों, धर्मों और सम्प्रदायों में बंटा हमारा यह समाज अगर सामाजिक -सांस्कृतिक स्तर पर एकजुट होगा तो अंतत राजनेताओं को भी लोक की महत्ता स्वीकारनी पड़ेगी I तब शायद कहैं सामाजिक समरसता और विकास जैसे मुद्दे उनकी प्राथमिकता बन पाएगी I मेरी राय में खोये हुए गौरवपूर्ण इतिहास को दुबारा सामने लाने की यह एकमात्र कुंजी या चाबी है I इस आयोजन को खास बनाया  इसके तहत अतिथियों को प्रदान किया गया वह स्मृति चिन्ह जो नालंदा विश्वविद्यालय के सील (मुहर) की प्रतिकृति थी I आयोजक मित्रों को हार्दिक बधाई एवं धन्यवाद

 

-सुमन कुमार सिंह 

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