आख़िरकार कोरोना से जंग हार वरिष्ठ कलाकार मनोज कुमार सिंह इस दुनिया को अलविदा कह गए। गोरखपुर विश्वविद्यालय से सेवा निवृति के बाद वे इन दिनों एनसीआर के गाज़ियाबाद में रह रहे थे। आज सुबह उनके परिजनों के फेसबुक पोस्ट से यह दुखद जानकारी मिली। उनके इस असामयिक निधन से सम्पूर्ण कला जगत स्तब्ध है, यहाँ प्रस्तुत है छात्र जीवन से उनके मित्र रहे वरिष्ठ कलाकार अनिल कुमार सिन्हा के भावपूर्ण उदगार …
अनिल कुमार सिन्हा
पटना से दिल्ली पहुंचते ही इस आकस्मिक आघात से सामना होगा, ऐसा सोचा भी नहीं था। दरअसल बिहार चुनाव में वोट डालने के लिए पिछले दिनों पटना गया था। ऐसे में यात्रा में रहने की वजह से सोशल मीडिया पर ठीक से नज़र नहीं डाल पाया था। इसलिए यह जानकारी भी नहीं थी कि मनोज कोरोना से ग्रसित हो गए थे, ऐसे में अचानक खबर मिलती है कि वे इस दुनिया को अलविदा कह गए हैं। वैसे तो लॉक डाउन के बाद ज़िन्दगी धीरे -धीरे पटरी पर लौट रही है लेकिन पहले की तरह मित्रों से मिलना जुलना अभी भी ठीक से शुरू नहीं हो पाया था। बहरहाल मनोज कुमार सिंह से मेरी पहली मुलाकात 1975 में बनारस हिन्दू विश्व विश्वविद्यालय, वनारस के हॉस्टल में हुई थी। तब मैं और अशोक तिवारी एम.एफ.ए. में नामांकन के लिये बनारस गए थे।अशोक तिवारी का तो पेन्टिंग डिपार्टमेंट में एडमिशन हो गया। लेकिन एप्लाइड में पम्मी लाल ने डिप्लोमा वालों को लेने से साफ़ इंकार कर दिया।

मैंने वनारस में ही रूककर सुचित्रा टेक्सटाइल ज्वाइन कर लिया। इसके बाद लगभग प्रतिदिन मनोज से होस्टल में मुलाकात होती थी। साथ में हमलोग ए पी गज्जर तथा दिलीप दास गुप्ता के घर अस्सी पर अक्सर जाया करते थे। दोनों प्राध्यापकों से एक खास तरह का आत्मीय सम्बन्ध बन चुका था। अशोक तिवारी, मनोज तथा हमने खूब मस्ती किये। याद आता है मनोज के पास एक साइकिल थी उसपर बैठकर बनारस की गलियों में हम साथ घूमते और मस्ती करते थे। मनोज ख़ूबसूरत पर्सनल्टी के इंसान थे। स्मार्ट तो थे ही, साफ सुथरा और वेल ड्रेस्ड रहना भी उन्हें खूब भाता था। मैं लगभग दो साल तक वनारस में रहा। आगे चलकर मनोज गोरखपुर के एक कॉलेज में प्राध्यापकी से जुड़ गए और इधर मैं भी पटना चला आया।
इसके वर्षों बाद सेवानिबृत के बाद उपरांत हमलोग संयोग से एक बार फिर से मिले जब मैं नोएडा और मनोज गाज़ियाबाद में रहने लगे। इसके बाद तो अक्सर दिल्ली के आर्ट एक्टिविटी में मेट्रो से हम साथ साथ जाते थे। पुराने दिनों की यादें एक बार फिर से ताजा होने लगीं। साथ घूमने में विशेष ख़ुशी मिलने लगी, इस दौरान जी खोलकर बातें भी चलती रहती थीं । कई समूह प्रदर्शनियों में हमने साथ -साथ भाग भी लिया। जब मनोज की एकल चित्र प्रदर्शनी आईफैक्स में आयोजित हुयी तब रोज हम साथ ही गैलरी में बैठते थे। आगे भी कुछ इसी तरह की जुगलबंदी का हमने पक्का इरादा कर रखा था। लेकिन तब कौन जानता था कि अचानक यह सब हो जायेगा और कोरोना हमसे मनोज को हमेशा हमेशा के लिए छीन लेगा।
सच कहूँ तो मित्र अच्छा नहीं लगा यह सब। अब तुम्हारे बिना किसी भी कला आयोजन में दिल्ली जाना हमेशा मुझे खलेगा। लेकिन क्या करें ? शायद नियति को यही मंज़ूर था। ईश्वर तुम्हारी आत्मा को शांति दे व परिजनों को इस दुःख से उबरने की हिम्मत। अश्रुपूरित श्रद्धांजलि।