गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर गुरुवार को पद्म पुरस्कारों का एलान कर दिया गया है। इसके तहत पद्म विभूषण, पद्म भूषण और पद्म श्री से सम्मानित किए जाने वाली हस्तियों के नाम घोषित कर दिया गया है । इस बार राष्ट्रपति ने राष्ट्रपति ने 139 पद्म पुरस्कारों को मंजूरी दी है। देर रात जारी सूची में सात पद्म विभूषण, 19 पद्म भूषण शामिल हैं। इसके अलावा 113 पद्म श्री पुरस्कारों का भी एलान किया गया है। पुरस्कार पाने वालों में 23 महिलाएं हैं। इसमें भोजपुरी गायिका शारदा सिन्हा (मरणोपरांत), जस्टिस (सेवानिवृत्त) जगदीश सिंह खेहर और सुजुकी कंपनी के ओसामु सुजुकी (मरणोपरांत) बिबेक देबरॉय, सुशील मोदी और मनोहर जोशी (मरणोपरांत) के नाम शामिल हैं। इसी सूची में पद्मश्री वाली सूची में एक नाम निर्मला देवी का भी है I सुजनी जैसी विलुप्त होती परंपरागत विधा को निर्मला जी ने जिस लगन और मेहनत से अंतर्राष्ट्रीय पहचान दिलाई, उनके इस संघर्षमय सफ़र को बयाँ कर रहे हैं अशोक कुमार सिन्हा, अपर निदेशक, बिहार म्यूजियम, पटना I
Ashok Kumar Sinha
काफी घटनाओं-परिघटनाओं और अफरा-तफरी के पश्चात् अचानक शोर-शराबा रूक गया। सबके चेहरे पर खुशी की एक लहर दौड़ने लगी। लोग खुशियां मनाने लगे। एक लम्बे संघर्ष के बाद खुली हवा में सांस लेकर सारे लोग अंदर ही अंदर भविष्य का एक साकार सपना बुनने लगे। क्योंकि हमारा देश एक लंबी लड़ाई के बाद अब आजाद हो रहा था। लोगों को लगने लगा था कि अब भारत का स्वरूप उनकी रूचि के अनुसार होगा। स्वतंत्रता ही स्वतंत्रता होगी। उसी दिन एक औरत इन सब स्थितियों के बीच अपने प्रसव पीड़ा के कारण कराहती-चिल्लाती, हाथों-पैरों को पटकते हुए छटपटा रही थी। एक प्रक्रिया के बाद दर्द भरी आवाज कम होती गयी और उस महिला के पास से छोटे शिशु की आवाज आने लगी। गर्भस्थ बालिका ने जन्म ले लिया। आवाज सुनकर घर के लोगों में कुछ ज्यादा ही खुशी उमड़ पड़ी। एक खुशी अंग्रेजों की गुलामी खत्म होने की थी तो दूसरी घर में एक नये मेहमान के आगमन की। लेकिन किसी को आभास भी नहीं हुआ होगा कि उस दिन जन्म लेने वाली वह लड़की बड़ी होकर भारत के मानचित्र पर अपनी एक लंबी लकीर बनाएगी। आम महिलाओं की आर्थिक आजादी के लिए संघर्ष करेगी, उनके भीतर हुनर पैदा कर स्वावलंबी बनाएगी, टूटती जर्जर होती उनकी जीवन-व्यथा को सुग्राहय और मजबूत बनाएगी।
निर्मला देवी की एक कृति
लेकिन कुछ ऐसा ही किया उस दिन जन्म लेने वाली निर्मला ने। एक तरफ नए भारत का निर्माण एवं विकास हो रहा था तो दूसरी तरफ निर्मला के हाथों सुजनी बन रही थी। उस सुजनी पर दुनिया बन रही थी, जिसके अंदर हजारों महिलाओं के सपने आकार ले रहे थे। परम्परागत सुजनी के स्थान पर रंग-बिरंगी सुजनी का सृजन कर वह भारत में सुजनी का पर्याय बन गयी हैं। आज उनके द्वारा निर्मित सुजनी देश ही नहीं, विदेशों में भी देखी, पहनी, समझी और सराही जा रही है। उन दिनों आम तौर पर गाँवों-घरों में महिलाएँ धोती-साड़ी के पुराने टुकड़ों को सीलकर बच्चों के पहनाने के लिए लंगोट या फिर उसे बिछाने के लिए बिछावन के रूप में इस्तेमाल करती है।
उन पुराने कपड़ों को सुजनी का नया रूप देकर उसे स्वतंत्र पहचान दिलाने वाली निर्मला देवी का जन्म 15 अगस्त, 1947 को मुजफ्फरपुर जिले के भुसरा गाँव में हुआ था। पिता बारूनी प्रसाद सिंह गांव में ही रहते थे। बाल्यावस्था से ही निर्मला प्रखर एवं विलक्षण बुद्धि की थी। अपनी माँ जानकी देवी के साथ रहते खेलते-कूदते वह घर में चीजों को देखती समझती थी। उसी दौरान माँ द्वारा निर्मित सुजनी को निहारती रहती थी। जब कभी खाली समय मिलता, उनकी माँ पुराने कपड़े को एक दूसरे पर साटकर सूई-धागे से सिलाई करती थी। सिलाई के दौरान रंग-बिरंगे धागे एवं उससे उभरी रंग-बिरंगी आकृतियां निर्मला के मन को मोहती थी। निर्मला कभी धागे को देखती तो कभी आकृतियों को। ऐसी परिस्थिति में बाल मन में सुजनी की छवि तत्समय बैठ गयी। माँ जब सुजनी बनाती तो निर्मला उनकी सहायता करती। इस प्रकार वह जान गई कि सुजनी कैसे बनाई जाती है। धीरे-धीरे वह इस विधा में निपुण होती गई।
निर्मला का बचपन लाड़-प्यार एवं खेल-कूद में ही बितता रहा। उससे गाँव के विद्यालय से दसवीं तक की पढ़ाई पूरी की। तभी उनकी शादी मढ़ौरा, सारण (छपरा जिला) के कालिका प्रसाद सिंह से हो गयी। विविध रस्म-रिवाजों एवं शानों शौकत के साथ हुई शादी के बाद निर्मला ससुराल चली गयी। तमाम खुशियाँ और जीवन के अरमानों को लिए निर्मला अपने ससुराल में रहने लगी। समय गुजरता गया। एक बेटी का जन्म हुआ। लेकिन इनकी पति के साथ अनबन शुरू हो गई। अक्सर आपसी वाद-विवाद होते रहे। मन में कभी द्वंद्व भरता तो कभी घर-परिवार एवं पति की इज्जत और आबरू देखकर वह बातों को दबा देती। इसी तरह इनका जीवन व्यतीत होता रहा। लेकिन अंततः इनका आपसी मतभेद इस कदर बढा कि मात्र 6 वर्ष की उम्र वाली अपनी बेटी को लेकर निर्मला मायके चली आयी।
मायके में इनकी पारिवारिक स्थिति ठीक-ठाक थी। फिर भी किसी ब्याही औरत को मायके मेें रहना-गुजारना बहुत मुश्किल होता है। ग्राम्य जीवन में वैवाहिक संबंधोें में अलगाव अभिशाप की तरह होता है। अब निर्मला के लिए भी पूरी जिंदगी पहाड़ जैसी दिखती थी। पिताजी एवं घर-परिवार के सहयोग से शनै-शनै उनकी आगे की जिन्दगी शुरू हुई। मन ही मन निर्मला ने अपने आपको बहुत मजबूत बनाया। मजबूत इरादों के साथ अपनी नयी जिंदगी शुरू की। नन्ही बच्ची के पालन-पोषण एवं पढाई-लिखाई के लिए उसने बच्चों को ट्यूशन पढ़ाना शुरू किया। उसी बीच इन्होंने चरखा भी चलाया। उन दिनों गाँव में चरखा चलाने एवं कपड़ा बुनने का कार्य चल रहा था। किसी तरह जीवन-यापन होता रहा। लेकिन निर्मला के मन में बेचैनी थी। एक उठा-पटक की जिंदगी चल रही थी।
ऐसा देखा गया है कि जब कोई व्यक्ति अकेला एवं असहाय होता है, तब उसकी आंतरिक शक्ति भरपूर कार्य करती है। लोग कहते है कि भगवान उसकी मदद करता है। ऐसा ही निर्मला देवी के साथ भी हुआ। संघर्ष करते-करते उनके पांव थकने लगे थे। तभी गाँव में समाजसेवी एवं अदिति संस्था की सचिव विजी श्रीनिवासन का आगमन हुआ। उस समय (1989) तक भूसरा एवं आसपास के गाँवों में गरीबी एवं निर्धनता अपनी चरम सीमा पर थी। मनुष्य और पशु एक ही तालाब में लोट लगाते थे। महिलाओं की स्थिति तो और भी दयनीय थी। बेरोजगारी उनके जीवन का हिस्सा बन गई थी और किसी ने उद्यमिता का नाम तक नहीं सुना था। विजी श्रीनिवासन के सामने सवाल यह था कि वहाँ की महिलाओं को कैसे आगे बढ़ाया जाए। महिलाएँ पतियों की नाराजगी के डर से घर की देहरी लाँघने को तैयार नहीं थी। सभी ने मना कर दिया था। विजी श्रीनिवासन इसी उधेड़बुन में थीं, तभी उनकी मुलाकात निर्मला देवी से हुई। निर्मला देवी ने उन्हें पूर्ण सहयोग देने का आश्वासन दिया।
तत्पाश्चात् विजी ने निर्मला देवी एवं कैलाश प्रसाद सिंह के सहयोग से भूसरा गाँव में महिला विकास समिति का गठन किया। इस संस्था का गठन महिलाओं के उत्थान के लिए किया गया था। यह महिला सहकारिता का केन्द्र था, जिसे अदिति संचालित करती थी। संस्था का मुख्य उदेश्य निपट गरीबी में रह रही महिलाओं की बहुविध मदद करते हुए उन्हें विकास की मुख्य धारा में लाना था। पर मुख्य समस्या अभी भी कायम थी कि महिलाओं को कैसे आगे बढ़ाया जाए। एक दिन विजी की नजर निर्मला देवी द्वारा निर्मित सुजनी पर पड़ी, जो पुराने साड़ी-धोती के टुकड़ों को एक साथ सामान्य रूप से सीलकर बनाई गई थी। उन्होंने निर्मला को बांग्लादेश में बनी एक सुजनी देते हुए नए कपड़े से वैसा ही सुजनी बनाने का अनुरोध किया। उनके अनुरोध पर निर्मला ने गाँव की विमला और कल्पना के सहयोग से रंग-बिरंगे कपड़े को सटाकर रंगीन धागे से अत्यन्त ही बारीकी के साथ फूलदार सुजनी तैयार की। विजी श्रीनिवासन समेत सबने उस सुजनी की खूब तारीफ की।
फिर विजी ने निर्मला से भिन्न-भिन्न डिजाइनो की सुजनी बनाने को कहा और उन्हें लेकर निर्मला देवी को दिल्ली भेजा। दिल्ली में निर्मला के सुजनी की खूब तारीफ हुई। निर्मला देवी का उत्साह बढ़ा और उन्होंने सुजनी कला को पूरे मनोयोग से आत्मसात कर लिया। इस प्रकार घोर परम्परावादी राजपूत परिवार की बेटी होकर भी निर्मला देवी ने उस युग में पर्दा-प्रथा का विरोध किया। यह एक प्रकार से रूढिवादियों के विरूद्ध विद्रोह जैसा ही था। अब नियमित रूप से सुजनी बनाने का सिलसिला शुरू हो गया। धीरे-धीरे निर्मला देवी की सुजनी कला में नवीनता आती गई। शुरूआती समय में तकिए के लिहाफ और परदो ंके उपर उन्होंने सुजनी का चित्रण किया। नई दिल्ली के सेन्ट्रल काॅटेज इम्पोरियम में उसकी बिक्री भी शुरू हो गई। दायरा बढ़ता गया। निर्मला बड़ी संख्या में सुजनी बनाने लगी।
संस्था के माध्यम से निर्मला ने गाँव में दबी-कुचली, आर्थिक तंगी, असहाय, गरीब, दलित समुदाय की उन महिलाओं को जोड़ने का प्रयास किया। उन औरतों को सिलाई एवं सुजनी बनाना सिखाती थी और बदले में उन्हें आर्थिक रूप से सहयोग भी करती थी। जाति, धर्म, वर्ग एवं सम्प्रदाय से उपर उठकर वह लोगों के घर-आँगन में वे जा-जाकर महिलाओं को संस्था से जोड़ने की कोशिश करती रही। लोग कई तरह की बातें करते। कई तरह के आरोप एवं लांछन भी लगे। लेकिन निर्मला के भीतर जुनून था महिलाओं को स्वावलंबी बनाने का। कहते हैं कि हौसला बुलंद और इरादा पक्का हो तो मंजिल दूर नहीं होती। धीरे-धीरे पर्दा प्रथा का विरोध कर महिलाएँ घर से बाहर निकलने लगी और देखते ही देखते सुजनी-कला सीखने के लिए ढेर सारी महिलाएँ इकठ््ठा हो गयी। निर्मला का प्रभाव धीरे-धीरे इस कदर बढ़ा कि गाँव भूसरा के अलावा हसना, मणिपुर, दुर्गा नगर, बाघाखाल, रामनगर, धनौर, दहिया, पटशर्मा और लोभा आदि गाँवों की महिलाएं सुजनी बनाने के लिए उनके पास आने लगी।
उन्हीं दिनों का एक रोचक प्रसंग है। कैलिफोर्निया (अमेरिका) से निर्मला देवी को निमंत्रण मिला था। वहाँ इन्हें अकेले जाना था और इन्हें अंग्रेजी बिल्कुल नहीं आती थी। लोगों ने डराया। अमेरिका में ही गुम हो जाने की आशंका जतायी। लेकिन
विजी श्रीनिवासन और लैला तैयब ने हौसला आफजाई की। तब जाकर निर्मला अकेले ही अमेरिका जाने के लिए तैयार हो गई। लेकिन एयरपोर्ट के लिए निकलते वक्त इनका पासपोर्ट एवं वीजा कहीं खो गया। काफी देर तक ढूँढने पर भी वह नहीं मिला। अमेरिका की उड़ान छूट गई। बाद में बैग की तह में रखा हुआ पासपोर्ट मिला। अगले दिन इनका अमेरिका जाने का फिर एक टिकट बनवाया गया और रास्ते में कई मुश्किलों-झंझावतों को झेलते हुए वे सुरक्षित अमेरिका पहुँच गयी। बाद में सुजनी कला की प्रदर्शनी एवं बिक्री हेतु लंदन, अमेरिका, नेपाल इत्यादि देशों में इनका अनेकों बार आना-जाना हुआ है। भारत के दिल्ली, मुंबई, गोवा, चेन्नई, बंगलोर, सुरत एवं भोपाल इत्यादि शहरों में भी सुजनी की नियमित प्रदर्शनी एवं बिक्री का इनका सिलसिला बना हुआ है।
निर्मला देवी की एक अन्य कृति
निर्मला देवी सभी महिलाओं को सुजनी कला का विधिवत प्रशिक्षण देती है। कपड़ों, रंगों, रूपकारों की महता एवं बारीकियों को समझाती है। फिर महिलाएं स्वतंत्र रूप से सुजनी का निर्माण करती हैं। कपड़े पर धागे से काफी कल्पनाशीलता के साथ बहुत सारी कथा- कहानियों पर आधारित चित्रों का सृृजन निर्मला देवी करती है। घर-आँगन एवं अपने समाज में महिला की स्थिति और रामायण तथा महाभारत से जुड़े कथानकों का जब ये सृजन करती हैं, तो वह देखने योग्य होता है। विषय वस्तु में भी काफी तब्दीलियां इन्होंने की है। पारंपरिक रूप से सुजनी में पहले धोती या साड़ी के दो-तीन लेयर को जोड़कर उसके उपर मोटे धागे का कार्य होता था और फिर उसपर कमल के फूल, पत्ती, हाथी-घोड़ा इत्यादि बनाये जाते थे।
लेकिन निर्मला देवी ने पुरानी धोती या साड़ी के स्थान पर रंगीन पोपलीन, सिल्क एवं मारकीन जैसे कपड़ों का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया और उन पर कंट्रास्ट रंगों यथा लाल रंग पर नारंगी, सफेद, भूरा या पीले रंग के धागों का इस्तेमाल करने लगी। इन्होंने फूल-पत्ती और हाथी-घोड़ा इत्यादि के स्थान पर ग्रामीण दृृश्य, स्त्री-शिक्षा, बाल विवाह, पर्यावरण-प्रदूषण जैसे सम-सामयिक विषयों का अंकन करते हुए सुजनी की पारंपरिक शैली में नवीनता का पुट दिया है। निःसंदेह, उनके इस कार्य में अदिति, फैब इंडिया, पोशाक एवं एशिया हेड फाउन्डेशन से जुड़े डिजाइनरों का भी महत्वपूर्ण योगदान रहा है।
वर्तमान में भूसरा एवं आसपास के गाँवों की लगभग 600 महिलाएं एवं युवतियां सुजनी निर्माण में लगी हुई है। कुछ महिलाएं ऐसी भी हैं, जो घर के काम-काज और मेहनत-मजदूरी करने के पश्चात् संस्था में आकर सुजनी बनाती है। कई लड़कियाँ एक तरफ अपनी पढ़ाई करती हैं और समय निकालकर संस्था के लिए सुजनी का निर्माण करती है। इससे उनकी आर्थिक स्थिति भी मजबूत होती है। कई ऐसी लड़कियां, जिनकी आर्थिक क्षमता पढ़ने की नहीं थी, वे बी.ए. और एम.ए. तक की पढ़ाई भी पूरी कर चुकी हैं। निर्मला देवी के इस सामाजिक योगदान को भुलाया नहीं जा सकता। अब तो नयी पीढ़ी की बालिकायें एवं युवतियां भी उनके साथ कार्य करने में गर्व महसूस करती हैं।
सुजनी कला के क्षेत्र में राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर केअनेकों अवार्ड से सम्मानित निर्मला देवी 72 वर्ष की उम्र में भी खासी व्यस्त है। उनके अंदर का शिल्पकार न तो थका है और न ही वक्त के कदमों के साथ उसने चलना छोड़़ा है। उनके सतत प्रयासों से भूसरा की सुजनी कला को विश्वव्यापी मंच मिल चुका है। स्थानीय महिलाएँ अब इसे आमदनी का साधन-स्त्रोत मानने लगी हैं। इस बदलाव का सबसे बड़ा श्रेय निर्मला देवी को जाता है, जिन्होंने अपनी सोच, लगन एवं सतत प्रयास से भूसरा एवं आसपास के गाँवों का कायाकल्प कर दिया है।
और अंत मेें………………
आज निर्मला देवी के पास सब कुछ है-सफलता, यश और पैसा इत्यादि। लेकिन फिर भी वे उदास हैं। कारण-भूसरा गाँव में सुजनी कला को नवजीवन देने वाली विजी श्रीनिवासन का सपना आज भी अधूरा पड़ा है। निर्मला कहती हैं कि विजी ने अपने जीवनकाल में भूसरा गाँव में एक सुजनी कला भवन बनाने की योजना बनायी थी। भवन की ढलाई भी हो चुकी थी। लेकिन 2004 में उनके असामयिक निधन के बाद से उस सुजनी कला भवन का निर्माण कार्य वहीं रूका पड़ा है। निर्मला उस भवन के उद्धारक की तलाश में हैं।