प्रबोध कुमार का जाना

प्रेमचंद के नाती कथाकार प्रबोध कुमार 19 जनवरी को नहीं रहे। सन साठ के दशक के कहानीकारों में उनकी गिनती हमेशा प्रशंसा के साथ की जाती रही है। कमलेश जी, अशोक सेकसरिया, महेन्‍द्र भल्‍ला, जितेन्‍द्र कुमार, अशोक वाजपेयी की जो मित्र-मंडली साठ के दशक में, दिल्‍ली में सक्रिय थी, प्रबोध उसके आत्‍मीय सदस्‍य थे। इसी मंडली का एक सदस्‍य मैं भी था। अशोक सेकसरिया के तो अंत तक वे बहुत निकट रहे। अशोक सेकसरिया और प्रबोध कुमार के प्रयत्‍नों का ही यह फल था कि एक जमाने में प्रबोध कुमार की परिचारिका बेबी हाल्‍दार की पुस्‍तक ‘आलो आंधारि’ प्रकाशित हुई, जो उसकी आत्‍मकथा है, और बेबी को अंतरराष्‍ट्रीय ख्‍याति मिली। कई भाषाओं में अनुवाद हुआ। बांग्‍ला में भूमिका लिखी सुप्रसिद्ध कवि शंख घोष ने। कृष्‍णा सोबती जी भी प्रबोध को बहुत स्‍नेह करती थीं, और ‘हम हशमत’ में मेरे ऊपर सोबती जी का जो संस्‍मरण-लेख है, उसमें प्रबोध की भी खासी चर्चा है। प्रबोध की कहानियाँ ‘कृति’ (संपादक: नरेश मेहता, श्रीकांत वर्मा) में प्रकाशित होते ही, चर्चा का विषय बन गयी थीं। प्रबोध जाने-माने नृतत्‍वशास्‍त्री थे। कुछ बरस से अस्‍वस्‍थ थे। वे अपने पीछे अपनी पोलिश पत्‍नी अलीत्सिया, और तीन बेटे छोड गये हैं।

उनके जाने के बाद वह पूरा युग भी आज आँखों के आगे घूम रहा है, जब ‘कृति’ और हिंदी की अन्‍य, साहित्‍यिक पत्रिकाओं के इर्द-गिर्द दिल्‍ली एक प्रमुख साहित्‍य-केंद्र बन रही थी, और सभी अग्रज और युवा लेखक-कवि, अन्‍य कलाओं में भरपूर दिलचस्‍पी ले रहे थे। प्रबोध, रामकुमार जैसे अप्रतिम कथाकार-चित्रकार के भी स्‍नेहभाजन थे। ‘आखेट’ जैसी उनकी कहानी ने, हिंदी में एक नयी शुरूआत ही तो की थी।

-प्रयाग शुक्‍ल

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