आठ दिवसीय ग्लेज राकू फायरिंग कार्यशाला सम्पन्न 

लखनऊ I पिछले दिनों जानकीपुरम स्थित क्ले एंड फायर स्टूडियो में एक विशेष आठ दिवसीय (25 अगस्त से 1 सितंबर 2024) ग्लेज राकू फायरिंग कार्यशाला का आयोजन किया गया। इस कार्यशाला के प्रमुख प्रशिक्षक के तौर पर सिरेमिक ऑर्टिस्ट व क्ले एंड फायर के ऑनर प्रेमशंकर प्रसाद एवं सहयोगी प्रशिक्षक मूर्तिकार विशाल गुप्ता (स्वतंत्र कलाकार) और कोऑर्डिनेटर अजय कुमार थे । इस कार्यशाला में प्रतिभाग करने वाले युवा कलाकार थे अर्चना सिंह (कुशीनगर), दृश्या अग्रवाल (लखनऊ), वंशिका सिंह (लखनऊ), प्रीति कनौजिया (लखनऊ) , प्रदीपिका श्रीवास्तव (सीतापुर) ,उत्कल पांडे (सीतापुर) ,हर्षित सिंह (लखनऊ) और प्रकृति खाक्या (इटावा) ।

बातचीत के दौरान कोऑर्डिनेटर अजय कुमार ने बताया कि कार्यशाला के प्रथम दिन दोनों प्रशिक्षको द्वारा सभी प्रतिभागी कलाकारों को टूल्स किट देकर स्वागत किया गया। उसके बाद राकु ग्लेज के बारे में विस्तार से जानकारी दी गई जो इस प्रकार है- ‌(राकू एक प्रकार का मिट्टी के बर्तन बनाने की जापानी विधि है जो पारंपरिक रूप से जापानी चाय समारोहों में उपयोग किया जाता है, ये अक्सर चाय के प्याले के रूप में बनाये जाते थे। पारंपरिक जापानी प्रक्रिया में, पकाये गए राकू के पात्रों को गर्म भट्टी से निकाल कर खुली हवा में ठंडा होने दिया जाता है। इसका प्रारंभ आधिकारिक रूप से 16वीं शताब्दी में जापान में हुआ था।) जानकारी देने के बाद सभी प्रतिभागियों को राकू के लिए मिट्टी बनाने की विधि बताई गई। सभी कलाकारों ने मिट्टी बनाकर तैयार कर ली तथा मूर्तिशिल्प बनाना शुरू किया।

कार्यशाला के दुसरे दिन भी सभी प्रतिभागी कलाकारों ने अपने मूर्तिशिल्पों पर टेक्सचर देकर अंतिम रूप दिया और इस तरह से मिट्टी में मूर्तिशिल्प तैयार हो गया। उसके बाद मिट्टी में बने इन मूर्तिशिल्पों को 4 दिन तक सुखाया गया। यह इसलिए कि भट्टी में जब इन्पहें काया जाये तो वह अच्छे से पक जाएं। अगर मूर्तिशिल्प पूरी तरह सूख नहीं पाया तो वह भट्टी में टूट कर बिखर जायेगा । 4 दिन बाद जब मूर्ति शिल्प पूरी तरह सूख गई तो उसके बाद बिस्किट फायरिंग के लिए उन सभी मूर्तिशिल्पों को भट्टी में रख दिया गया।

बिस्किट फायरिंग कम तापमान पर की जाती है। उसके बाद अगले दिन इन मूर्तिशिल्पों को ठंडा होने के बाद भट्टी से निकाल लिया जाता है। उसके बाद बिस्किट फायरिंग हुए मूर्तिशिल्पों के ऊपर राकू ग्लेज को लगा कर फिर से भट्टी में रख दिया जाता है। इस बार भट्टी का तापमान पहले से ज्यादा होता है। इनको 2 से 3 घंटे तक पकाते हैं। एक तरफ यह प्रक्रिया चलती है वहीं दूसरी तरफ एक बड़े लोहे के बक्से में लकड़ी के बुरादे को डालते हैं तथा अखबार के छोटे छोटे टुकड़े कर के उस बक्से में डाल दिया जाता है। इसके बाद भट्टी में पक रही गर्म मूर्तियों को सड़सी से पकड़ कर एक एक करके इस बक्से में डालते हैं। उसके बाद अखबार व लकड़ी का बुरादा डाल कर बक्से को 1 घंटे के लिए बन्द कर देते हैं। जिसके कि बक्से से धुआं बाहर ना निकले।

1 घंटे बाद बक्से को खोल कर मूर्तियां को पानी से धुलते हैं। जिससे की मूर्तियों पर लगी राख साफ हो जाये। इतने लंबे प्रोसेस के बाद राकू ग्लेज होता है I इस तरह यह कार्यशाला सफल रही। सभी कलाकारों के मूर्तिशिल्प बहुत सुंदर निकले।

राकू विधि –

राकू क्या है ?

इस पर अजय कुमार ने बताया कि राकू जापानी मिट्टी के बर्तनों का एक रूप है। राकू पहली बार 16वीं शताब्दी के दौरान मोमोयामा काल में, लगभग 1550 में, मध्ययुगीन जापानी चीनी मिट्टी के बर्तनों में दिखाई दिया था। जापानी राकू मिट्टी के बर्तनों का इस्तेमाल पारंपरिक रूप से जापानी चाय समारोह के दौरान इस्तेमाल के लिए चाय के कटोरे बनाने के लिए किया जाता था। राकू चाय के कटोरे को ‘ब्लैकवेयर’ और ‘रेडवेयर’ दोनों के रूप में जाना जाता था। रेडवेयर बस लाल मिट्टी के बर्तन थे जिन पर एक स्पष्ट चमक लगाई गई थी। ब्लैकवेयर को स्टोनवेयर मिट्टी से बनाया गया था जिस पर एक काला चमक लगाया गया था।

आजके समय में इसका प्रयोग कैसे किया जा सकता है ? इस पर अजय ने बताया कि आधुनिक राकू मिट्टी के बर्तन क्या हैं?

ऐसा माना जाता है कि आधुनिक राकू मिट्टी के बर्तनों को जापान के बाहर कुम्हारों से बर्नार्ड लीच ने परिचित कराया था। 1911 में जापान में रहते हुए बर्नार्ड लीच ने एक राकू मिट्टी के बर्तनों की पार्टी में भाग लिया। पार्टी में मौजूद लोगों ने अपने बर्तनों पर रंग लगाया और फिर उन्हें वहीं पार्मेंटी के दौरान ही पकाया ।

हालाँकि बर्नार्ड लीच मूलतः चित्रकार थे, लेकिन कहा जाता है कि इस पार्टी ने उन्हें मिट्टी के बर्तन बनाने का अभ्यास शुरू करने के लिए प्रेरित किया I इसके बाद ज़्यादा से ज़्यादा कुम्हारों को राकू फायरिंग की पारंपरिक विधि से परिचित कराया गया और यह अपने आप में समकालीन मिट्टी के बर्तन बनाने की एक तकनीक बन गई। आधुनिक अमेरिकी राकू सिरेमिक आंदोलन 1940 के दशक में हैल रीगर और वॉरेन गिल्बर्टसन जैसे कुम्हारों द्वारा शुरू किया गया था। 1970 और 1980 के दशक तक राकू की लोकप्रियता बढ़ गई थी और यह कई स्टूडियो कुम्हारों द्वारा प्रचलित एक कला रूप बन गया था। आज के समय में इसका उपयोग सजावट  के लिए ही किया जाता है

इस विधि से बने कप, प्लेट, बाउल या ओर कोई भी मूर्ति शिल्प को आप रोजमर्रा के उपयोग में नहीं ले सकते। क्योंकि इसमें जो ग्लेज लगा होता है वह शरीर के लिए हानिकारक होता है।

-भूपेंद्र कुमार अस्थाना

9452128267

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